स्त्री मुक्ति के चार औजार

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

स्त्री मुक्ति पर जिस तरह का लेखन हमारे यहाँ ज्यादातर देखने में आ रहा है, उससे यह झलक मिलती है कि पुरुषों द्वारा शोषण ही स्त्रियों की एकमात्र समस्या है। यह समस्या इतनी स्पष्ट है, फिर भी आश्चर्य की बात यह है कि इसे हजारों तरह से लिखा जाता है और थीम की नवीनता हमेशा बनी रहती है। इसका एक कारण शायद यह है कि स्त्री-पुरुष के संबंध चाहे जितने बदलते रहे हों उनके बुनियादी चरित्र में कोई फर्क नहीं आता। लेकिन स्त्री मुक्ति के प्रश्न क्या दुनिया भर में एक जैसे हैं? या, विभिन्न समाजों में स्त्री मुक्ति के औजार अलग-अलग होंगे? हमारे यहाँ के स्त्रीवादी लेखन में हुआँ-हुआँ कुछ कम होता, तो यह महसूस किया जाता कि सितारों के आगे जहाँ और भी हैं।

देश की 90 प्रतिशत स्त्रियों को अपनी मुक्ति के लिए जिन औजारों की जरूरत है, ये औजार वे नहीं हैं जो मध्यवर्गीय स्त्रियों की भाषा को आधुनिक तथा उत्तर-आधुनिक बनाते हैं, जिसके बिना पश्चिमी देशों में होनेवाले सेमिनारों का नियंत्रण पत्र प्राप्त नहीं किया जा सकता।

आजकल तुलसीदास को प्रतिक्रियावादी कवि माना जाने लगा है, पर उन्होंने सती अनसूया के मुँह से कहलवाया है कि विधाता ने स्त्री को पता नहीं किस तरह रचा है कि सपने में भी उसे सुख नहीं है। सीता ने, जिससे ये पंक्तियाँ कही गयी हैं, अपने निजी अनुभव से निश्चय ही इस सत्य को पहचाना होगा। उनके सुख के एकमात्र दिन वे थे जब जनक दुलारी के रूप में उन्होंने अपने शुरुआती अठारह-बीस साल बिताये थे। बाद में तो निराला के शब्दों में ‘दुख ही जीवन की कथा रही’। प्रश्न उठता है कि निराला के दुख में और सीता के दुख में क्या कोई साम्य है? किसी भी व्यक्ति के दुखों का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लेकिन  ‘सरोज स्मृति’ की पूरी थीम का सारांश यही प्रतीत होता है- ‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित कर न सका।’ निश्चय ही निराला के जीवन में और भी वेदनाएँ थीं, पर बेटी सरोज के संदर्भ में निराला का भौतिक दैन्य ही प्रकट हुआ है। निराला अपने व्यक्तित्व के बल पर अपने भौतिक अभावों की मार से पार पा सकते थे, पर बेटी के दैन्य का वे क्या करते जिसके दुख उन्हें लगातार सालते रहे। 

सीता के प्राकृतिक माता-पिता के बारे में कोई सूचना नहीं मिलती। इतना निश्चय है कि वे एक राजा के घर में पलीं-बढ़ीं, एक राजकुमार से ब्याही गयीं और अपने चक्रवर्ती पति द्वारा गर्भावस्था में परित्यक्त हुईं। इसी तरह, द्रौपदी भी राज परिवार में जन्म लेने के बावजूद कम दुख नहीं झेला। इसका संदेश यही है कि संपन्न परिवार की होने से ही स्त्री को दुख से मुक्ति नहीं मिल जाती। वह पराधीन है और पराधीन ही रहती है। लेकिन अगर वह गरीब की बेटी और गरीब की ही जोरू हो, तब? तब क्या उसका दुख दुगना-तिगुना नहीं हो जाता? निराला की बेटी सरोज के दुख क्या वही थे, जो महाराजा जनक की बेटी के या निराला के समकालीन जवाहरलाल की बेटी के थे? ऐसा लगता है कि आधुनिक सीताएँ समकालीन सरोजों के बारे में सोचने से कतराती हैं। सीता ने भी अपनी दासियों की वेदनाओं पर विचार किया था, इसके प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। या, हैं?

भारत की नारीवादियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे स्त्री मुक्ति की पश्चिमी अवधारणाओं से कुछ ज्यादा ही प्रभावित हैं। इस आरोप के पीछे प्रमुख बात यह होती है कि पश्चिम सी स्त्रियों को व्यक्तिगत जीवन की जो स्वाधीनताएँ चाहिए, भारत की स्त्रियों को उनकी जरूरत नहीं है। इससे भी आगे, वे स्वाधीनताएँ यहाँ उपलब्ध करा दी जाएँ, तो भारत की स्त्रियाँ बिगड़ जाएँगी। समाज में अराजकता फैल जाएगी। परिवार नष्ट हो जाएगा। भारतवासियों की यह आशंका जितनी डरावनी लगती है, वस्तुतः उतनी है नहीं। एक आततायी, लेकिन अनुशासित पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था की तुलना में बाहरी नियंत्रण से मुक्त और स्वतंत्र व्यवस्था हमेशा बेहतर होती है- इसके तत्कालिक नतीजे जो भी निकलते हों।

स्पष्ट है कि इस कोटि के भारतवासी पुरुष की आजादी से नहीं, स्त्री की आजादी से डरते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्त्री की आजादी से डर पश्चिमी समाजों में भी कम नहीं रहा है। इन समाजों में स्त्री संघर्ष का इतिहास लाल कालीन से नहीं गुजरा है। एक-एक सुविधा के लिए दशकों और शताब्दियों तक संघर्ष करना पड़ा है, जैसे मताधिकार। इस दृष्टि से भारत की स्त्रियाँ किस्मत वाली हैं कि जिन अधिकारों के लिए पश्चिम की स्त्रियों को काँटों-भरे रास्ते पर लंबा संघर्ष करना पड़ा है, वे अधिकार उन्हें आसानी से मिल गये हैं। बेशक अभी तो ये कागज पर ही हैं लेकिन कागज पर हैं, इसलिए बहुत-सी स्त्रियाँ इनका उपयोग भी कर पा रही हैं। जो इन अधिकारों का उपयोग करने की स्थिति में आज नहीं हैं, उनकी दशा हमेशा ऐसी नहीं रहेगी। मिठाई है, तो उसे खाने का प्रलोभन भी होगा।

जिस तथ्य की ओर इन भारतवासियों का ध्यान नहीं जाता और जिसकी चर्चा भारत में होनेवाले नारीवादी चिंतन से भी नदारद रहती है, वह यह है कि भारत की ज्यादातर स्त्रियों को पहले संबंधों में मुक्ति चाहिए या उन परिस्थितियों से मुक्ति चाहिए जो उनके समय, उनकी श्रमशक्ति और उनकी ऊर्जा को इस तरह निचोड़ लेती हैं कि उन्हें गैर-भौतिक चीजों के बारे में सोचने का मौका ही नहीं मिलता। 

स्वतंत्रता कोई हवाई चीज नहीं है। स्वतंत्रता की भावना रहती हमारे मन में ही है, पर उसका उपयोग जिन परिस्थितियों में होता है, वे मुख्यतः भौतिक हैं। जो स्त्री रोज अठारह घंटे काम करने को बाध्य है, उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह जीवन में उन पहलुओं पर ध्यान दे सकेगी जिनका संबंध अस्तित्व की बुनियादी सार्थकताओं से है?

सभ्यता के विकास का संबंध फुरसत से है। इसका मतलब यह नहीं है कि जिनके पास फुरसत नहीं है, वे असभ्य होते हैं। लेकिन उन्हें पढ़ने-लिखने, सोचने-विचारने और मिलने-जुलने की फुरसत हो जाए, तो वे और ज्यादा सभ्य हो सकते हैं। विचारणीय है कि स्त्री मुक्ति से प्रश्नों पर क्या वे महिलाएँ ही ज्यादा विचार नहीं कर रही हैं, जिनके पास इसके लिए पर्याप्त समय है? यदि उन्हें पूरे घर के लिए दो बार खाना बनाना पड़े, परिवार के सभी सदस्यों के कपड़े साफ करने पड़ें, झाड़ू-पोंछा करना पड़े और कुएँ या नल से पानी लाना पड़े, तो समाज को उनका रचनात्मक योगदान कितना रह जाएगा? ऐसी महिलाएँ चूंकि स्वयं श्रम नहीं करतीं, शायद इसीलिए वे श्रमिक-वर्ग की स्त्रियों की मन और शरीर को तोड़ देनेवाली श्रम-स्थितियों की कल्पना तक नहीं कर पातीं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं है कि वे नारी मुक्ति के ऐसे मुद्दे उठाती हैं, जो देश की सामान्य औरतों के हृदय में सनसनी पैदा नहीं कर पाते। ये मुद्दे बेकार हरगिज नहीं हैं। लेकिन इन्हें महानगरों की महासंध्याओं से बाहर ग्राहक तभी मिल सकेंगे जब उन ग्राहकों के पास पर्याप्त समय होगा। इसलिए स्त्री-पुरुष की बराबरी का मुद्दा उठानेवालों को यह याद दिलाना जरूरी लगता है कि स्त्री-स्त्री की बराबरी भी उतना ही महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

(जारी)

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