— आनंद कुमार —
वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण की यात्रा-राजनय-इतिहास-सुरक्षा को जोड़नेवाली एक ताज़ा पुस्तक है क्या है तिब्बत। इसमें ल्हासा से लेकर धर्मशाला तक फैले हुए तिब्बती समाज और संस्कृति का अन्तरंग चित्रण है। भारत के हिमालय क्षेत्र की सुरक्षा, चीन की कूटनीति और तिब्बत की आजादी के त्रिकोण का सटीक विश्लेषण भी है। कुल 18 छोटे हिस्सों में संयोजित इस पठनीय पुस्तक से तिब्बत के जटिल प्रश्न का सहज साक्षात्कार हो जाता है क्योंकि इसमें तिब्बत की यात्रा से उपजे बोध की प्रामाणिकता, तिब्बती धर्म-भाषा-भूगोल-इतिहास के अध्ययन से बनी समझ और तिब्बती प्रवासियों से किये गए संवादों से उपजी सहानुभूति का अनुपम संगम है।
इस किताब के आरम्भ में ही चंद्रभूषण कुछ प्रचलित प्रश्नों को स्पष्टता से सुलझाकर बाकी किताब की गहराई का आभास दे देते हैं। जैसे ‘नाम और नजरिये को लेकर एक सफाई’ और ‘तुबो, तुपुत, बोत, या त्रिविष्टप?’ (पृष्ठ V – VIII; 19-25) को पढ़कर तिब्बती भाषा की खासियत और तिब्बत शब्द की भौगोलिक असम्बद्धता का पता चलता है। ‘तिब्बत’ एक अरबी शब्द है। जैसे‘हिन्दुस्तान’ और ‘हिन्द’। कुछ लोग इसको ‘त्रिविष्टप’ ( वेदों में इंद्र देवता की नगरी; ऋग्वेद, 6.18) से जोड़ते हैं। लेकिन तिब्बती प्रवासी संसद अपने देश को ‘चोल्कासुम’ (यानी तीन प्रांत– ऊ त्सांग, अम्दो और ख़म ) कहते हैं।
वैसे तिब्बत का नाम लेने पर एकसाथ बुद्ध और दलाई लामा की छबी उभरती है क्योंकि विभिन्न देशों में बुद्धमार्ग का अनुसरण कर रहे 2 अरब लोगों के लिए प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन जहाँ 2600 वर्ष पूर्व सारनाथ (वाराणसी) में महात्मा बुद्ध ने किया वहीं आज की मानवता के लिए तिब्बत के दलाई लामा प्रधान मार्गदर्शक हैं। यह अलग बात है कि कम्युनिस्ट चीन के विस्तारवाद के कारण वह 1959 से अपने एक लाख अनुयायियों के साथ भारत में शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। शिव उपासकों की मान्यता है कि पार्वती-शिव का स्थायी निवास हिमालय में है और करोड़ों हिन्दुओं, बौद्धों, और बॉन धर्मावलम्बियों का उपासना और आस्था केंद्र कैलाश–मानसरोवर तिब्बत में ही है।
तिब्बत का जिक्र होने पर अपने देश की आजादी और संस्कृति की चीन के उपनिवेशवाद से रक्षा के लिए भारत और बाकी दुनिया से 1959 से लगातार मदद माँग रहे असहाय तिब्बती भिक्षु–भिक्षुणियों और सामान्य स्त्री-पुरुषों की तस्वीरें भी सामने आती हैं। क्योंकि हर 10 मार्च (तिब्बत दिवस) और 10 दिसम्बर (मानव अधिकार दिवस) को दुनिया भर में फैले हुए तिब्बती शरणार्थी‘तिब्बत को आज़ाद करो!’ के नारे के साथ अनेकों स्वाधीन देशों की राजधानियों में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हैं।
लेकिन सरोकारी और जिज्ञासु भारतीयों का तिब्बत के बारे में आधा-अधूरा ज्ञान चिंता की बात है। जबकि यह हमारा सबसे बड़ा और पुराना पड़ोसी देश है। इसके राजधर्म का उद्गम बौद्ध धर्म की ‘नालंदा परम्परा’ से जुड़ा है। इसकी लिपि का निर्माण नालंदा विश्वविद्यालय के भाषाविदों ने किया। इसकी स्मृतियों में कश्मीर से लेकर बिहार तक के विश्वविद्यालयों की श्रृंखला है। नागार्जुन, शांतरक्षित, पद्मसंभव, दीपंकर श्रीज्ञान, नरोपा, मैत्रीपा, निगुमा आदि के प्रति श्रद्धा है (पृष्ठ 71-76)। दूसरी तरफ तिब्बत-चीन संबंधों में तिब्बत की महत्ता के साक्ष्य बचे हुए हैं जैसे जोखांग मंदिर के आगे का बारह सौ पुराना तिब्बत और चीन की संधि का शिलालेख (821-822 ईस्वी) (पृष्ठ 54-59)। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘तिब्बत में सवा बरस’ जैसी रचनाओं से हमारे ज्ञानवर्धन की पहल भी की थी। इसके बारे में सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपालानी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डा. लोहिया, डा.रघुवीर और न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला से लेकर जार्ज फर्नांडीज तक तिब्बतमित्र राजनीतिज्ञों की एक लम्बी श्रृंखला भी रही है। इन्हें इस बात की पीड़ा थी कि हिमालय पर्वतमाला की दूसरी तरफ चीनी राष्ट्रवाद के उदय के कारण तिब्बत को 1949 में अपना स्वराज गँवाना पड़ा।
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तिब्बत को चीन ने माओ त्से तुंग के नेतृत्व में 1949-59 के बीच सैनिक बल से अपने कब्जे में कर लिया और अब मूल तिब्बत देश की भौगोलिक काट–छाँट करके उसके एक सीमित हिस्से को अपने नक्शे में ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ के नाम से दिखाने की कोशिश करता है। फिर 1962 में चीन ने भारत को ही अपना निशाना बनाया और 1 लाख वर्गकिलोमीटर क्षेत्र पर काबिज हो गया। वस्तुत: मौजूदा चीन के समूचे क्षेत्रफल का 50 प्रतिशत से जादा हिस्सा तिब्बत, शिनच्यांग ((पूर्वी तुर्किस्तान), चिंघाई और इनर मंगोलिया को जबरदस्ती अपने कब्जे में लेने से बना है। चीन ने अपने विस्तारवाद से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का भी एक बड़ा भूखंड 1960 के बाद से अपना बना लिया है।
फिर भी जमीनी सच यही है कि प्राकृतिक दृष्टि से लद्दाख से लेकर उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल तक के हिमालय प्रदेशों के लोग जुड़वाँ बच्चों की तरह से तिब्बत से 5000 किलोमीटर लम्बी सीमारेखा से जुड़े हुए हैं। भोटी भाषा और इसकी बोलियाँ, बुद्ध धर्म, सिन्धु से लेकर गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ, हिमालय क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास, भारत-तिब्बत-भूटान-नेपाल और चीन के बीच हुई 19वीं-बीसवीं शताब्दी की संधियों, विविध व्यापार मार्गों और अब भारत और चीन की सैनिक गतिविधियों से यह जुड़ाव बना हुआ है। इसका दुखद पहलू यह है कि हमारी तरफ के इलाके में शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार-आवास यातायात की समस्याओं के कारण आबादी घट रही है और चीन के कब्जे वाले हिस्से में तेजी से बढ़ाई जा रही है। 2014 में चीनी रेलवे के विस्तार के बाद से तिब्बत और बीजिंग के बीच आना-जाना आसान हो गया है। चीनी फौज की पकड बढ़ गयी है। इसका नुकसान दोक्लाम (भूटान) से लेकर गलवान घाटी (लद्दाख) तक में भारत को उठाना पड़ रहा है।
भारत सरकार की रहस्यमय चुप्पी और हिमालय क्षेत्र के अतिरिक्त शेष प्रदेशों के भारतीय राजनीतिज्ञों की उदासीनता के बावजूद एक अरसे बाद तिब्बत का सच फिर से दुनिया के लिए महत्त्वपूर्ण हो रहा है। इसमें दलाई लामा के नैतिक नेतृत्व (पृष्ठ 141-155), तिब्बत मुक्ति-साधना का बढ़ता दायरा और तिब्बती नयी पीढ़ी की अस्मिता चेतना का साझा योगदान है, भारत के क्षेत्रफल के आधे के बराबर क्षेत्र में विस्तृत मुस्लिम बहुल शिनच्यांग (पूर्वी तुर्किस्तान) में चल रहा सैनिक दमन और उग्र प्रतिरोध भी तिब्बत की अहिंसक पुकार को दुनिया की हमदर्दी का अधिकारी बना रही है। इससे तिब्बत की रक्षा के बारे में आशा बढ़ती है। लेकिन तिब्बती मुक्ति साधना की अपनी जटिल समस्याएँ भी हैं। इस बदलाव को चन्द्रभूषण ने बहुत कुशलता से ‘जो चल रहा हिमालय के उस पार’ (पृष्ठ 43-53), ‘इक्कीसवीं सदी में दलाई लामा’ (पृष्ठ 141-155) और ‘निर्वासित तिब्बती सरकार के साथ एक दिन’ (पृष्ठ 156-158) सामने रखा है।
इस किताब के कुछ अध्याय हमें इतिहास की जरूरी भूलभुलैया में ले जाते हैं। जैसे ‘एक था तिब्बती साम्राज्य’ (पृष्ठ 60-70), ‘बिखराव के बीच दीपंकर’ (पृष्ठ 82-91), और ‘लामराज : महान पाँचवाँ और बाकी’ (पृष्ठ 112-122)। कई पृष्ठों में तिब्बत की संस्कृति और सम्प्रदायों की बनावट का दिलचस्प और सचित्र विवरण है – ‘याक, थंका, कीड़ाजडी और विद्रोह’ (पृष्ठ 34-42), ‘मंगोलों के सामने दो पंडित’ (पृष्ठ 92-99), और ‘मिंग, तुमेद और गेलुग’ (पृष्ठ 100-111)। चंद्रभूषण ने एक शिष्ट बुद्धिजीवी की तरह अपने पूर्ववर्ती लेखकों की भी याद कराने के लिए एक पूरा अध्याय रखा है – ‘कुछ मुसाफिर ल्हासा की राह पर’ (पृष्ठ 123–130)। इससे हम नैनसिंह रावत (1874-75), राहुल सांस्कृत्यायन (1929), ग्यालो थोंदुप (1939) और या हानझांग (1952) की दृष्टि और शैली का परिचय पाते हैं। फिर अनजाने ही भारत के अपने घावों से भी आमने-सामने होते हैं– ‘बासठ की रणभूमि में’ (पृष्ठ 131-140)। यह किताब चीनी सरकार और तिब्बती प्रवासी सरकार के पक्ष-प्रतिपक्ष को दो महत्त्वपूर्ण साक्षात्कारों के जरिये उपलब्ध कराने में सफल हुई है– ‘दलाई शासन को याद भी नहीं करना चाहते’ (पृष्ठ 31-33) और ‘हमारे पास अकेला रास्ता आगे बढ़ने का ही है’ (पृष्ठ 165-168)।
सारांशत: यह किताब अपनी विषयवस्तु, दृष्टि, लेखन-शैली और प्रासंगिकता की कसौटी पर एक असाधारण रचना है। इसके पढ़ने से भारतीय ही नहीं, तिब्बती स्त्री-पुरुषों की भी जानकारी और समझदारी का दायरा विस्तृत होगा। इसका चौतरफा स्वागत होना स्वाभाविक रहेगा।
किताब : तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत
लेखक : चंद्रभूषण
अंतिका प्रकाशन, सी-56 ,यूजीएफ़-4,शालीमार गार्डेनएक्स्टेंशन ई, गाज़ियाबाद-201005 (पेपरबैक, मूल्य 200 रु., पृष्ठ संख्या 168)