— हजारीप्रसाद द्विवेदी —
संसार भर में वसंत का मौसम उल्लास का काल माना जाता है। हमारे इस प्राचीन देश में तो वसंत-ऋतु के साथ अनेकानेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। एक तो यह काल यों ही जड़-चेतन सबके अंतरतर में आनन्द का शतदल प्रस्फुटित कर देता है, उसपर मनुष्य के मदिर चित्त से निकली हुई कल्पनाओं और मानसपटल पर अंकित स्मृतियों के कारण वह और भी उन्मादक बन जाता है। वसंत-पंचमी के दिन प्रथम वसंतावतार का उत्सव मनाया जाता है। पुराने साहित्य में इस दिन का बड़ा ही मोहक चित्र मिलता है। उन दिनों ग्रामतरुणों में आनन्द उद्वेलित हो उठता और ग्राम-तरुणियाँ नवीन आम्र-मंजरी का कर्णाभरण धारण करके गाँव को जगमग कर देती थीं। प्राकृत कवि ने ऐसी ही किसी कर्ण-कूत-आम्र-मंजरी बालिका की शोभा से उल्लसित होकर गाया था– ‘कण्णकअ चूअमंजरी, पुत्ति तुए मंडियो गाओ!’ फिर फागुन के महीने में यह उल्लास और भी उद्दाम, और भी मोहन रूप धारण करता था।
उत्सवों का काल
सारी वसंत-ऋतु मादक उत्सवों का काल है। कभी अशोक-दोहद के रूप में, कभी मदन देवता की पूजा के रूप में, कभी कामदेवायन-यात्रा के रूप में, कभी आम्र-तरु और माधवीलता के विवाह के रूप में, कभी होली के हुड़दंग के रूप में, कभी होलाका (होला), अभ्यूष-खादनिका (भुने हुए कच्चे गेहूँ की पिकनिक),कभी नवाम्र खादनिका, (नये आम के टिकोरों की पिकनिक) आदि के रूप में समूचा वसंतकाल नाच, गान और काव्यालाप से मुखर हो उठता था। पुराने साहित्य में इन उत्सवों का भूरिशः उल्लेख है। आज भी ये उत्सव किसी न किसी रूप में जी रहे हैं। आज सबसे अधिक आकर्षक उत्सव होली का है। मध्यकाल में इसने सचमुच सीमा अतिक्रमण करनेवाला रूप धारण किया था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र तक ने उल्लासातिरेक में ‘एहि पाखें पतिव्रत ताखें धरों’ की सलाह दी थी। इसकी भूमिका महाराजा श्रीहर्षदेव की रत्नावली में ही दिखायी देने लगी थी। जो हो, मध्यकाल में होलिकोत्सव का रंग ज्यादा गाढ़ा हो गया था और हम उस विरासत को अभी तक ढोये लिये लिए जा रहे हैं।
वसंत क्या है?
परन्तु वसंत है क्या चीज? ज्योतिषी के लिए यह धरती की मध्यरेखा सूर्य के ठीक-ठीक सामने पहुँच जाने के आसपास का समय है। आजकल मार्च महीने के तीसरे सप्ताह के अंत में वह समय आता है। इतनी-सी बात और इतना-सा उल्लास! केवल भारतवर्ष नहीं, समूचा संसार इस दिन उल्लसित हो उठता है। केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षियों की नाड़ियों में अद्भुत तरंगें उठती है। केवल विकसित मन वाले जीवों में ही नहीं, पेड़-पौधों के अन्तरतर का व्याकुल आनन्द किसलयों और पुष्पों के रूप में फूट पड़ता है। और चराचर गवाह है कि जड़ धरित्री भी अद्भुत श्रृंगार-सज्जा में आनन्द-पुलकित जान पड़ती है। क्यों? क्या हो जाता है सारी प्रकृति को? वह हृदय को मथ देनेवाली वेदना क्यों आ जाती है? सारी सृष्टि में अपने को उँड़ेलकर किसी महा-अजाने प्रियतम की तृप्ति के लिए आत्म-दान करने की व्याकुलता कहाँ से आती है?
मेरा मन कहता है कि यह विश्व-जनित उल्लास, यह अणु-परमाणु से लेकर मनुष्य तक का उद्दाम मानसिक आलोड़न, यह अकारण खिंचाव की अनुभूति नयी बात नहीं है, व्यक्ति-मानस की विशिष्ट अनुभूति नहीं है- इसका इतिहास बहुत पुराना होना चाहिए– उतना ही पुराना जितना पुराना मनुष्य है, जितना पुराना चेतन जगत् है, जितनी पुरानी यह धरती स्वयं है! ज्योतिषी जिस बात को बड़ी ही आडम्बर-हीन और अनगढ़ भाषा में कह देता है– धरती की मध्यरेखा का सूर्य के सामने आ जाना!– वह इतनी सीधी-सी बात नहीं है। यह न जाने किस पुराने उल्लास की चिर-नूतन स्मृति की कहानी है। कैसे कहूँ कि धरती के इस साज-सिंगार के अन्तराल में किसी प्रकार का मानसिक कम्पन नहीं है, कोई उन्मथित करनेवाली प्रीति नही है?
कैसे कहूँ कि यह सब यों ही हो जाता है? महामाया क्या केवल तथाकथित चेतन प्राणी को ही अपने मोहक मंत्र से आवेग-चंचल कर रही है? क्या त्रैलोक्य-मोहन उल्लास का स्पर्श पाने का सौभाग्य कुछ थोड़े-से जीवधारियों को ही प्राप्त है? कैसे कहूँ कि लाख-लाख पुष्पों का एकाएक फूट उठना सिर्फ जड़ प्रकृति का विकारमात्र है, केवल सूर्य की अचेतन रश्मियों के अपेक्षाकृत सीधे टूट पड़ने की प्रतिक्रिया मात्र है, महज जड़तर गुरुत्वाकर्षण की अन्धलीला मात्र है? नहीं, यह इससे निश्चय ही कोई बड़ी बात है।
धरती सूर्य का ही एक भाग
कहते हैं महासूर्य ही कभी विभक्त होकर दो हो गया था– एक तो सूर्यबिम्ब के रूप में आज सूर्य के नाम से परिचित नक्षत्र ही है– अपने को आप ही धारण करता हुआ, अपने तेज से आप ही जलता रहनेवाला महाप्रतापी सूर्य! और दूसरा खण्ड यह धरती है! कहते हैं कि यह विभाजन कई बार हुआ था। आज जो सूर्य के चारों ओर चक्कर देते दिखायी देनेवाले ग्रहपिण्ड हैं, जो उसके अंगुली संकेत पर इस प्रकार नाच रहे हैं जैसे खिलाड़ी के इशारे पर सरकस के घोड़े नाचते हैं- अविश्रांत, अनवरत! वे भी कभी महासूर्य से टूटकर निकल पड़े थे, पर ब्रह्माण्ड-भर की कहानी जानने की आज जरूरत नहीं है। वैज्ञानिक पण्डितों ने विश्वास दिलाया है कि महासूर्य से टूटकर गिरा हुआ पिण्ड ही धरती है। यह बहुत पुरानी कहानी है। तब से अब तक लाखों वर्ष बीत गये, लेकिन धरती उस वियोग को भूल नहीं सकी। वह चक्कर लगा रही है, उसी आकर्षण-रज्जु में बँधी हुई खाक छान रही है, कुछ ऐसा समझिए कि ‘खिरकी-खिरकी न फिरे फिरकी-सी!’ विचित्र है यह द्वैत में अद्वैत का आकर्षण, विरह में मिलन का अक्लान्त प्रयास; अद्भुत है इसकी प्रचण्ड गति!
शास्त्र में बताया गया कि सृष्टि के आरंभ में किसी दिन निर्मम-निर्द्वन्द्व पुरुषोत्तम के चित्त में महामाया का मंत्र गूँज उठा था– ‘एकोअहं बहुस्याम्’ – मैं एक हूँ, अनेक बनूँ! इस विराट इच्छा ने सृष्टि का यह चक्का घुमा दिया जो अनन्त काल तक चलता रहेगा। क्या महासूर्य के मन में कोई ऐसी ही इच्छा हुई थी? क्या विराट् पुरुष को क्षोभचंचल करनेवाली महामाया ने उसके चित्त में किसी मोहन-मंत्र को गुंजरित कर दिया था? कौन बताएगा? धन्य हो महामाया, निर्मम-निर्द्वद्व विराट पुरुष से लेकर अणु-परमाणु तक को विक्षोभ-व्याकुल बना रही हो। किसलिए? इतना आनन्द, इतना उल्लास, इतनी व्याकुलता तुमने क्या व्यर्थ पसार रखी है? किसलिए? वह कौन-सी माया है जो लता-वृक्षों के अन्तरतर को बेध-कर पुष्पों के रूप में फूट पड़ती है? चराचर के चित्त को उन्मथित कर देनेवाला यह मनोजन्माविकार क्या है? किस महान उद्देश्य से विधाता ने चराचर सृष्टि को इस मनोजन्मा विकार का वरदान दे रखा है?
तो सूर्य और पृथ्वी अभिन्न वस्तुएँ हैं। इस पृथ्वी पर जो कुछ है वह सूर्य का है। यह विलोल वायु, वह विस्फूर्जितवीर्य समुद्र, यह उत्तुंग गिरिकूट– सब सूर्य से आए हैं और सब सूर्य के तेज से चल रहे हैं। यह प्राणतत्त्व, मनस्तत्त्व, बुद्धितत्त्व – सब सूर्य से प्रेरणा पा रहे हैं। वैदिक ऋषि ने सविता (सूर्य) देवता के उस वरेण्य तेज का ध्यान किया था, जो हमारी बुद्धि को प्रेरणा देता है- ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’! सूर्य सच्चे अर्थों में ‘सविता’ (उत्पन्न करनेवाला) है।
धरती सूर्य से मिलने के लिए आकुल
कुछ आश्चर्य नहीं यदि आज धरित्री उसके सामने पहुँचने पर पुलक-कण्टकित हो उठती है और निःशेष भाव से आत्मदान की व्याकुलता से अधीर हो उठती है– कुछ आश्चर्य नहीं यदि उसके आश्रित चराचर जगत् में इस काल में उल्लास की तरंगें लहरा उठती हैं। लाखों वर्षों से यह लीला चल रही है। लाखों वर्षों से चराचर के हृदय-स्थित मनोजन्मा विकार की सहायता यह वसंत नामक कालखण्ड कर रहा है। ज्योतिषी, तुमने केवल ऊपर-ऊपर से देखा है, तुमने इस व्याकुल अभिसार-यात्रा के स्खलित-विचलित पद-संचार को ठीक नहीं समझा।
वसंत का मादक-काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती– एक ही महापिण्ड के दो रूप– उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है। उसी व्याकुल वेदना ने धरित्री को इतना चक्कर दिलवाया है, उसके अन्तरतर को उन्मथित व्याकुल कर-करके यह इतना सौन्दर्य उत्पन्न किया है– यह हरित शाद्वला वनराजि, यह तरंगमोहिनी वारिधारा, यह फूल और पल्लवों का अपूर्व वैचित्र्य– सब उसी व्याकुलवेदना से संभव हुए हैं। यह व्यर्थ नहीं होना चाहिए। मेरा मन कहना है कि इसकी कहीं-न-कहीं कोई चरितार्थता होनी चाहिए। त्रिपुरसुन्दरी का त्रैलोक्य-मोहन रूप निश्चय ही किसी बड़े उद्देश्य के लिए है। देखकर मन मुग्ध हो जाता है– किस प्रकार छोटे-से चैतन्य-कण ने अपने को मानव-बुद्धि के रूप में विकसित कर लिया है। जड़ से चैतन्य, चैतन्य से मन-बुद्धि और मन-बुद्धि से मनुष्यत्व का विकास चकित कर देनेवाली घटना है। यह पद्मकलिका के विकास के समान है, एक-एक दल उभरते जा रहे हैं, धीरे-धीरे सुगन्धि अपने-आपको उद्घाटित करती जा रही है। यह सब निश्चय ही व्यर्थ नहीं है। हर वसंत के अवसर पर जब सृष्टि का पुलक-कम्पन बाँध तोड़ देता है तब लगता है कि अभी और बहुत बाकी है। महाकालदेवता का यह अबोध आनन्द-वितरण- उन्मथित करनेवाली रहस्य-लीला- निश्चय ही सकारण है।
आत्मदान में सार्थकता
आज जब संसार की भयंकर प्रतिहिंसा की बात सोचता हूँ तो मन बैठ जाता है। कहाँ उल्लासमयी मादक वेदना का काल वसंत और कहाँ ‘युद्धं देहि’ का विकट विराव। परन्तु यह स्थायी भाव नहीं है। जानता हूँ, मूल स्वर प्रेम का है, आत्मदान का है, दलित द्राक्षा के समान अपने-आपको निचोड़कर महा-अज्ञात की तृप्ति-साधना का है। सारी धरित्री इसका सबूत है, चराचर में व्याप्त व्याकुल मनोवेदना इसका समर्थन करती है। संचारी भावों से व्याकुल होने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक कटु-तिक्त रस मधुर रस को अन्ततः सहायता ही पहुँचाता है। वसंत का काल समस्त चराचर को उन्मथित करके समूची धरती को पुष्पाभरणा बना के और मनुष्य के चित्त में कोमल वृत्तियों को जागरित करके यही संदेश ले आता है कि सार्थकता आत्मदान में है। यह सृष्टि का इतना व्यापक आयोजन व्यर्थ नहीं है। अपने-आपको निछावर कर देने के आनन्द से ही यह आरंभ होता है, उसी में इसकी चरितार्थता है। ये युद्ध और प्रतिहिंसा के भाव क्षणिक हैं– स्थायी है अपने को उत्सर्ग करके महाकाल की लीला में सहायक होने की मानसोल्लासिनी वेदना। वसंत इसी की याद दिलाने आता है। सनातन से वसंत उसी आत्मदान की उल्लासदायिनी वेदना का चित्र माना जाता है। धन्य हो ऋतुराज, धन्य हो महाकाल के महान् रंगित, धन्य हो भगवती त्रिपुर-सुंदरी के स्मितविलास!
(‘कुटज’ से)