क्या इन चुनावों पर किसान आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ? – योगेन्द्र यादव

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च्छा होगा कि उस बेबुनियाद अफवाह की हवा अभी की अभी निकाल दी जाए। विधानसभा चुनावों के ताजातरीन दौर (2022) की मतगणना के अभी शुरुआती रुझान ही आए थे कि किसान-आंदोलन के खिलाफ जोर-शोर से निंदा अभियान चल पड़ा। वही लोग, जो चाहते थे कि किसान-आंदोलन कभी अपने पैर जमीन पर टिका ही ना पाये, मौका ताड़कर आगे आए और ऐलान कर दिया कि यह आंदोलन किसानों के लिए था ही नहीं। और वे लोग, जो दिल ही दिल में चाहेंगे कि सरकार किसानों के दुख-दर्द से आंखें फेरे रहे, मौके पर चौका जड़ने के लिए आगे बढ़े और फैसला सुनाया कि किसान-आंदोलन खुदनुमाई और खयालखामी का एक बड़ा नमूना था। यह तो बस चंद चयनितों का जुटाया प्रतिरोध का मजमा था जिनकी देश के बड़े दायरे में कोई खोज-पूछ ही नहीं।

इस तरह ताकतवरों ने एक ताकतवर कथा बुनी और इस कथा के सहारे ये फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों पर किसान-आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ। इसका सीधा मतलब यह कि किसान-आंदोलन होता है तो हुआ करे, किसी को उसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं।

किसान-आंदोलन के असर को लेकर एक बार ऐसी लकीर खींच दी गयी तो फिर तमाम किस्म के तथ्य जुटाये गये ताकि इस लकीर को सही और पुख्ता साबित किया जा सके। बलबीर सिंह राजेवाल तथा पंजाब के कई अन्य किसान नेताओं की अगुवाई में बना संयुक्त समाज मोर्चा चूंकि चुनाव के परिणामों में चारो खाने चित नजर आया सो इस तथ्य को यह कहते हुए सबूत के तौर पर पेश किया गया कि देखिए! जो सूबा किसान-आंदोलन का गढ़ था वहीं के किसानों ने इस आंदोलन की जरा भी परवाह नहीं की।

मीडिया में किसान-आंदोलन पर जो निशाना साधा जा रहा था, उसका जोर अपेक्षा के अनुरूप ही इस बात को जताने-बताने पर था कि बीजेपी उत्तर प्रदेश का बड़ा चुनाव जीत गयी है। लखीमपुर खीरी के इलाके की सारी सीटें बीजेपी की झोली में गयीं। इस तथ्य के सहारे मीडिया में कहा गया कि लखीमपुर खीरी की घटना बेअसर साबित हुई।

पहले चरण के चुनाव के आंकड़ों को आगे कर ये कहा गया कि बीजेपी ने भारतीय किसान यूनियन के घर में भी जीत दर्ज की है और यहां तक कि जाट समुदाय के लोग भी बीजेपी के साथ जस के तस बने हुए हैं। दावा किया गया कि बीजेपी ने राकेश टिकैत के अपने ही मतदान केंद्र पर राष्ट्रीय लोकदल को मात दे दी।

जैसा कि तमाम बेबुनियाद अफवाहों के साथ होता है, इस दावे को भी हेराफेरी, अर्ध-सत्य और अधकचरी जानकारी के आपसी घालमेल के सहारे तैयार किया गया था। चूंकि अब हमारे पास चुनाव-परिणामों को लेकर ज्यादा बारीक और सुथरे हुए आंकड़े हैं, सो हम ऐसे अनेक झूठ की कलई खोल सकते हैं।

हमारे पास लोकनीति-सीएसडीएस टीम के पोस्ट-पोल सर्वेक्षण पर आधारित, चुनाव-परिणामों का ‘द हिंदू’ में प्रकाशित विश्लेषण भी मौजूद है। तो, अब इस बात को लेकर अटकलपच्चीसी की गुंजाइश नहीं कि किसानों ने आंदोलन के प्रति क्या रवैया अपनाया और किसानों के वोट पर किसान-आंदोलन का क्या असर रहा।

सबूतों की मानें तो असर हुआ है…

पहली बात आती है, अवधारणागत छल की। पूरा दुष्प्रचार दो अलग-अलग दावों को एक में घालमेल कर गढ़ा गया। पहला दावा यह है कि किसान-आंदोलन अपने बूते बीजेपी को हरा पाने में कामयाब नहीं हुआ। बेशक, जिन चार राज्यों में बीजेपी को सत्ता में वापसी का जनादेश हासिल हुआ है वहां के चुनाव-परिणामों को देखते हुए ये दावा किया जा सकता है और ऐसे दावे को युक्तिसंगत कहा जाएगा। यह दावा आश्चर्यजनक भी नहीं।

कोई भी आंदोलन केवल अपने बूते चुनाव-परिणाम तय नहीं करता। आंदोलन सिर्फ जमीन तैयार करता है, बेशक यह जमीन किसी तरफ ढलाव लिये हो सकती है लेकिन यह काम तो राजनीतिक पार्टियों का है कि वे आगे बढ़ें और आंदोलन ने लोगों में जो जज्बा जगाया है उसे अपने लिए वोट की शक्ल में बदलें। किसान-आंदोलन अपने दम पर बीजेपी की हार सुनिश्चित नहीं कर पाया और ना ही वह ऐसा कर सकता था। लेकिन ऐसा दावा करना एक बात है और इससे एकदम ही अलग है यह दावा करना कि आंदोलन का किसानों और वोट डालने के उनके फैसले पर कोई असर नहीं हुआ और आंदोलन किसानों में अपनी पैठ भी नहीं बना सका।

मिसाल के तौर पर सबसे पहले पंजाब की बात करें। यहां पते की बात यह नहीं कि किसान आंदोलन का ना के बराबर असर हुआ बल्कि पते की बात यह है कि किसान-आंदोलन का पंजाब में बहुत ज्यादा असर रहा। पंजाब की राजनीति के बारे में जिसे रत्ती भर भी जानकारी है, उससे पूछिए तो आपको बताएगा कि किसान-आंदोलन की अनुगूंज पूरे पंजाब में थी। इस सूबे की राजनीति में बने रहने के लिए आपके पास सिवाय इसके कोई और चारा ना था कि आप अपने को किसानों के साथ खड़ा जाहिर करें।

पंजाब में विपक्षी दलों (आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल) ने किसान आंदोलन का समर्थन किया और सत्ताधारी पार्टी (कांग्रेस) ने भी। जो चुनाव जीते हैं उन्होंने अगर किसान-आंदोलन की कसमें खायी थीं तो उन लोगों ने भी जो चुनाव हार गये हैं। लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करता है कि पंजाब के 84 प्रतिशत मतदाताओं ने किसान-आंदोलन का समर्थन किया। जिस एक दल यानी बीजेपी ने आंदोलन का विरोध किया वह सूबे के विधानसभा चुनावों में धराशायी हो चुकी है।

पंजाब में चुनावों से ऐन पहले किसान नेता बलवीर सिंह राजेवाल और गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने क्रमशः संयुक्त समाज मोर्चा और संयुक्त संघर्ष पार्टी नाम से दो धड़े बनाये। जहां तक इन दो धड़ों के चुनावी प्रदर्शन का सवाल है— उसे किसान आंदोलन की ताकत की पैमाइश का पैमाना बनाना एक मजाक ही कहलाएगा। सच ये है कि किसान आंदोलन के साझे मंच संयुक्त किसान मोर्चा ने इन दोनों ही राजनीतिक धड़ों से कोई नाता-रिश्ता ना रखा था, पहले ही कह दिया था कि इन धड़ों से उसका कोई लेना-देना नहीं। दोनों धड़े के नेताओं को संयुक्त किसान मोर्चा ने निलंबित किया था। हक की बात तो ये है कि पंजाब के शीर्षस्थ किसान-यूनियनों में से एक ने भी इन राजनीतिक धड़ों (संयुक्त समाज मोर्चा और संयुक्त संघर्ष पार्टी) को अपना समर्थन नहीं दिया, जिन चंद यूनियन ने शुरू-शुरू में इन धड़ों को समर्थन दिया उन्होंने भी आखिर को अपना समर्थन वापस लेना ही ठीक समझा। सो इन सियासी धड़ों का वही हश्र हुआ जिसके ये हकदार थे।

उत्तर प्रदेश में निश्चित ही बीजेपी की जीत किसान आंदोलन के लिए एक झटके की तरह है। संयुक्त किसान मोर्चा ने यूपी के मतदाताओं का आह्वान किया था कि किसान विरोधी बीजेपी को इस चुनाव में वे सबक सिखाएं। जाहिर है, अगर उत्तर प्रदेश के सारे किसानों ने इस आह्वान की सुनी होती तो बीजेपी की सत्ता में वापसी नहीं हो पाती। अगर इसे नाकामयाबी गिना जाए तो बेशक किसान आंदोलन यूपी में असफल रहा। लेकिन क्या किसान आंदोलन का यूपी में कोई असर ही नहीं हुआ?

लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के आंकड़े एक अलग ही कहानी बयान करते हैं। (पोस्ट-पोल यानी चुनाव के तुरंत बाद किया जानेवाला सर्वेक्षण भरोसेमंद होता है क्योंकि इसकी प्रस्तुतियों में अंतिम परिणाम का ध्यान रखा जाता है। सो, बीजेपी का मतदाता पोस्ट-पोल विश्लेषण में वैसा ही महत्त्व रखता है जैसा कि अंतिम चुनाव परिणामों के विश्लेषण में)।

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षण के मुताबिक, कुल 49 प्रतिशत मतदाताओं ने किसान-आंदोलन का समर्थन किया, आंदोलन का विरोध करनेवाले मतदाताओं की तादाद केवल 22 फीसदी रही। तीनों कृषि-कानून वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसले का 46 प्रतिशत मतदाताओं ने समर्थन किया जबकि इस फैसले का विरोध करनेवालों की तादाद महज 11 प्रतिशत रही। (जहां तक किसानों का सवाल है, किसानों में 54 प्रतिशत लोग तीनों कानून वापस लिये जाने के पक्ष में थे जबकि 11 प्रतिशत विपक्ष में)।

क्या किसान-आंदोलन का मतदाताओं के वोट करने के फैसले पर कोई असर रहा? कुल 55 प्रतिशत किसानों का कहना था कि उन्होंने आंदोलन के असर में अपने वोट डालने का फैसला किया। जिन लोगों ने ऐसा कहा, उनके बीच बीजेपी समाजवादी पार्टी-आरएलडी गठबंधन से 11 प्रतिशत अंकों से पीछे रही।

बीजेपी इन बातों से आगाह थी, उसे छुट्टा पशुओं से पैदा होनेवाली मुश्किल का भी भान था। इसी मजबूरी में बीजेपी सहित तमाम पार्टियों ने चुनाव-अभियान के दौरान किसानों से जुड़े मुद्दे उठाये। इसी अहसास से मजबूर प्रधानमंत्री तक को छुट्टा घूमते पशुओं से हो रही परेशानी की बात सार्वजनिक रूप से कहनी पड़ी।

सर्वे के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि उत्तराखंड के तराई वाले इलाके में भी किसान-आंदोलन को लेकर लोगों में समर्थन था। इन तथ्यों की रोशनी में आप खुद ही सोचिए कि किसान आंदोलन के निष्प्रभावी रहने का दुष्प्रचार किस कोने टिकता है!

लखीमपुर खीरी के चुनाव-परिणामों का मसला

लेकिन लखीमपुर खीरी में जो हत्याकांड हुआ, उसके बारे में क्या कहेंगे? यहां याद रखने की एक बात यह है कि लखीमपुर खीरी किसान आंदोलन का कभी कोई केंद्र ना था, सो लखीमपुर खीरी में हुए हत्याकांड के असर को वहां आए चुनाव-परिणामों से नहीं आंका जा सकता और ना ही ऐसा करना चाहिए। याद रहे कि बीजेपी 2018 के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश के मंदसौर में विजयी रही जबकि वहां 2017 में किसानों पर पुलिस ने खोली चलाती थी।

लखीमपुर खीरी में हुए हत्याकांड के असर को लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे ने दर्ज किया है। सर्वे के मुताबिक लगभग 48 प्रतिशत मतदाताओं ने कहा कि लखीमपुर हत्याकांड की घटना ने उनके वोट डालने के फैसले पर असर डाला, इन मतदाताओं के बीच बीजेपी पूरे 16 प्रतिशत के अंतर से पीछे रही। इस सिलसिले की सबसे अहम बात ये कि यूपी के कुल मतदाताओं का 47 फीसद हिस्सा इस बात के समर्थन में था कि प्रधानमंत्री अजय मिश्र टेनी को मंत्रिमंडल से हटा देते तो अच्छा रहता (सूबे के सिर्फ 26 प्रतिशत मतदाता इस बात से सहमत नहीं थे)।

जहां तक पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत का सवाल है- वह सूबे के बाकी हिस्सों में हुई जीत की कहानी से बहुत अलग नहीं है। सच तो ये है कि जो इलाके किसान आंदोलन के मुख्य केंद्र बनकर उभरे, उनमें बीजेपी के प्रति मतदाताओं के समर्थन में तेज गिरावट आयी है। बीजेपी चार जिलों- मुजफ्फरनगर, मेरठ, शामली और बागपत- की 19 विधानसभा सीटों में 13 सीटों पर हार गयी। गाजीपुर मोर्चे पर डटे ज्यादातर किसान इन्हीं जिलों के थे। मुजफ्फरनगर दंगे में आरोपित बीजेपी के कई बड़े नेता इन जिलों में अपनी सीट हार गये। जाट समुदाय के वोटों का बंटवारा बीजेपी और सपा-रालोद के बीच बराबर-बराबर हिस्सों में नहीं हुआ और ये बात रालोद के लिए थोड़ी निराशाजनक कही जाएगी लेकिन इन इलाकों में पार्टियों को मिले वोटों के लिहाज से देखें तो स्थिति बड़ी हद तक बदली हुई दिखेगी। साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे के बाद इस इलाके के जाट समुदाय के वोटों पर बीजेपी का जैसे एकाधिकार चला आ रहा था जो अब टूट चुका है।

बैटिंग और बॉलिंग के लिए पिच तैयार करने का मसला

आखिर को एक सवाल यह कि राकेश टिकैत के अपने मतदान केंद्र पर पड़े वोटों के बारे में क्या माना जाए? दरअसल राकेश टिकैत के मदतान केंद्र पर पड़े वोटों के बारे में मुख्यधारा के मीडिया में फर्जी खबर चलायी गयी। यों राकेश टिकैत के मतदान केंद्र पर पड़े वोट हमारे इस विश्लेषण के लिहाज से बहुत मानीखेज नहीं, फिर भी तथ्य यह है कि उनके मतदान केंद्र (बुढ़ाना विधानसभा क्षेत्र के सिसौली गांव में मतदान केंद्र संख्या 166) पर आरएलडी के प्रत्याशी के पक्ष में 521 वोट पड़े जबकि बीजेपी के प्रत्याशी के पक्ष में 162 वोट।

हमारी इन बातों का सार-संक्षेप यह है कि : ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने चुनावी राजनीति के मैदान का मिजाज तय किया। चुनावी लड़ाई के नतीजे किस ओर जाएंगे, आंदोलन यह तय नहीं कर सका लेकिन ऐसा बिना पक्षपात के किया भी नहीं जा सकता।

अगर चुनावी मैदान में चली लड़ाई को क्रिकेट के एक टेस्ट मैच के रूप में देखें तो नजर आएगा कि इस खेल में किसान-संगठन ना तो गेंदबाज थे और ना ही बल्लेबाज। हां, किसान-संगठनों ने मैच के लिए विकेट जरूर तैयार किया था। और, ऐसे विकेट पर बल्लेबाजी करने उतरी टीम को अच्छी-खासी दिक्कत पेश आयी। लेकिन बल्लेबाजों को आउट करने की जिम्मेदारी विपक्षी दलों की तरफ से गेंदबाजी करने उतरे लोगों की थी। नाकामी इन गेंदबाजों की कही जाएगी, किसान आंदोलन की नहीं।

(इस लेख के निमित्त आंकड़े उपलब्ध कराने के लिए लोकनीति-सीएसडीएस का बहुत आभार)

(द प्रिंट से साभार)

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