महात्मा गांधी समकालीन दुनिया में अहिंसा और प्रेम के सबसे महत्त्वपूर्ण पथप्रदर्शक रहे हैं। गांधीजी ने अपनी संघर्षमय जीवन यात्रा को ‘सत्य के प्रयोग’ बताया था और सत्य के लिए अहिंसा की अनिवार्यता पर बल दिया है। उन्होंने भारत, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका के अपने विविध अनुभवों के सारांश के रूप में लिखा है कि आर्थिक अन्याय आधारित असमानता को दूर करने के लिए काम करना अहिंसक स्वराज की मुख्य चाबी है। इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर जिन मुट्ठीभर पैसेवालों के हाथ में राष्ट्र की सम्पत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया है, उनकी संपत्ति को कम करना और दूसरी ओर जो करोड़ों लोग अधपेट खाते हैं और नंगे रहते हैं उनकी संपत्ति में वृद्धि करना। जबतक मुट्ठीभर धनवानों और करोड़ों भूखे रहनेवालों के बीच बेइंतहा अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलनेवाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती। अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलनेवाली सत्ता को खुद राजी-खुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तौयार न होंगे, तो यह तय समझिए कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रान्ति हुए बिना न रहेगी। (देखें : रचनात्मक कार्यक्रम (1946) (अहमदाबाद, नवजीवन प्रकाशन; पृष्ठ 40-41)
इससे पहले उन्होंने यह प्रश्न भी उठाया था कि अहिंसा के द्वारा आर्थिक समानता कैसे लायी जा सकती है? पहला कदम यह है कि इस आदर्श को अपनाने वाले अपने जीवन में आवश्यक परिवर्तन करें। हिन्दुस्तान की गरीब जनता के साथ तुलना करके अपनी आवश्यकताएँ कम करें। जो धन कमायें उसे इमानदारी से कमाने का निश्चय करें। अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के बाद जो पैसा बचे उसका वह प्रजा की ओर से ट्रस्टी (संरक्षक) बन जाएँ। जब मनुष्य अपने-आपको समाज का सेवक मानेगा, समाज की खातिर धन कमाएगा, समाज के कल्याण के लिए उसे खर्च करेगा, तब उसकी कमाई में शुद्धता आएगी। उसके साहस में भी अहिंसा होगी। इसके बाद अपने संपर्क के लोगों में समानता के आदर्श का प्रचार करें। अहिंसक आर्थिक समानता की जड़ में ‘ट्रस्टीशिप’ (संरक्षकता भाव) निहित है (देखें : हरिजनसेवक, 24-8-’40)।
गांधीजी ने यह भी रेखांकित किया है कि यदि मनुष्य-जाति आदतन अहिंसक नहीं होती, तो उसने युगों पहले अपने हाथों अपना नाश कर लिया होता। हम लोगों के हृदय में इस झूठी मान्यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और यह व्यक्ति तक ही मर्यादित है। अहिंसा सामाजिक धर्म है और इसे सामाजिक धर्म के तौर पर विकसित किया जा सकता है। भारत में अतीत में युगों तक आम जनता को जो शिक्षा मिलती रही है वह हिंसा के खिलाफ है। इससे भारत में मनुष्य स्वभाव का विकास इस हद तक हो चुका है कि आम लोगों के लिए हिंसा की बजाय अहिंसा का सिद्धांत जादा स्वाभाविक हो गया है (देखें : यंग इंडिया, 26.1.’22;2.1.30)।
गांधीजी के शब्दों में, ‘इस हिंसामय जगत में जिन्होंने अहिंसा का नियम ढूँढ़ निकाला, वे ऋषि न्यूटन से कहीं जादा बड़े आविष्कारक थे। वे वेलिंगटन से ज्यादा बड़े योद्धा थे। वे शस्त्रास्त्रों का उपयोग जानते थे और उन्हें उनकी व्यर्थता का निश्चय हो गया था। और तब उन्होंने हिंसा से ऊबी हुई दुनिया को सिखाया कि उसे अपनी मुक्ति का रास्ता हिंसा में नहीं बल्कि अहिंसा में मिलेगा। अपने सक्रिय रूप में अहिंसा का अर्थ है ज्ञानपूर्वक कष्ट सहन करना। उसका अर्थ अन्यायी की इच्छा के आगे दब कर घुटने टेकना नहीं है; उसका अर्थ यह है कि अत्याचारी की इच्छा के खिलाफ अपनी आत्मा की सारी शक्ति लगा दी जाए। जीवन के इस नियम के अनुसार चलकर तो कोई अकेला आदमी भी अपने सम्मान, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए किसी अन्यायी साम्राज्य के सम्पूर्ण बल को चुनौती दे सकता है और इस तरह उस साम्राज्य के नाश या सुधार की नींव रख सकता है। (यंग इण्डिया; 11.8. ‘20)
गांधी में अहिंसा-आस्था का पल्लवन कैसे हुआ
मैत्री और करुणा, परोपकार और परमार्थ, वीरता और क्षमा, प्रेम और सहिष्णुता – इन्हीं मूल्यों और आदर्शों के बीच सर्वत्र अहिंसा अंकुरित होती है। विश्व के सभी धर्म और सभी देशों के राष्ट्रीय संविधान इसी की संभावना को इंगित करते हैं। लेकिन यह शोचनीय सच है कि मानव समुदाय आज तक हिंसा से अहिंसा की ओर निर्णायक प्रस्थान करने में असमर्थ रहा है। वस्तुत: एक सामान्य मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में व्यक्तिगत और सामूहिक वर्चस्वता, स्वार्थ, लोभ, असुरक्षा, भय, अहंकार और क्रोध का बड़ा योगदान रहता आया है। फिर भी गांधीजी के व्यक्तित्व और विचार में अहिंसा-आस्था का प्रकाश कैसे बना रहा? उनकी आध्यात्मिक खोज को किसने संरक्षण दिया? वह एक ‘विलायत में पढ़े बैरिस्टर’ से ‘भारतीय महात्मा’ कैसे बने?
आस्था, संस्कृति और अस्मिता के आग्रहों ने हिंसा की गुंजाइश और अहिंसा की श्रेष्ठता दोनों को बनाये रखा है। एक तरफ हिंसामय विश्व में अहिंसा की तलाश जारी है। दूसरी तरफ, अहिंसक जीवन और सभ्यता की रचना के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन से हिंसा को निर्मूल करने की चुनौती को भी पहचानने का दबाव है। इस सन्दर्भ में अहिंसा का सामाजिक आधार निर्मित करने का कौशल विकसित करना गांधी का युगांतरकारी योगदान है। इसलिए यह जानना-बताना जरूरी है कि गांधीजी में यह क्षमता कैसे फली-फूली?
वस्तुत: आज से 130 साल पहले 1891 में एक 22 वर्षीय भारतीय युवक इंग्लैंड से सुशिक्षित होकर भारत लौटा और स्वदेश वापसी के पहले दिन ही संयोगवश उसकी मुलाकात एक 24 वर्षीय ‘शतावधानी’ युवक से हुई। पहली भेंट में ही दोनों में निकटता हो गयी और अगले दस बरसों में यह विशिष्ट सम्बन्ध ब्रिटेन से वकालत की ऊँची पढ़ाई करके वयस्क जीवन में प्रवेश करनेवाले युवक के आध्यात्मिकता के शिखर की ओर बढ़ने का कारण बना। इनमें से पहला युवक अगले पाँच दशकों में क्रमश: रंगभेद, उपनिवेशवाद, जातिवाद, और साम्प्रदायिकता के निवारण का मंत्रदाता सिद्ध हुआ। दूसरा युवक कुल 34 बरस की आयु-अवधि के बावजूद एक महासिद्ध के रूप में अहिंसा, अनासक्ति और अपरिग्रह के लिए प्रसिद्ध जैन धर्म का आधुनिक मार्गदर्शक बना। उन्होंने दिगम्बर और श्वेताम्बर पंथ के गहन विमर्शों की सहज व्याख्या के जरिये ‘आत्मसिद्धि’ के मार्ग को प्रशस्त किया।
यहाँ हम गांधीजी (1869-1948) और श्रीमद राजचंद्र जी (1867-1901) की अद्वितीय आध्यात्मिक मैत्री की चर्चा कर रहे हैं। गांधीजी के जीवन मार्ग निर्धारण में इस रिश्ते की ऐतिहासिक भूमिका के कई आयाम थे। एक, श्रीमद राजचंद्र ने ही पश्चिमी शिक्षा और सभ्यता के कारण दुविधाग्रस्त हो चुके गांधी जी के भ्रमित मन में अपने ज्ञान-प्रकाश से ‘आत्मार्थी’ बनने का संकल्प पैदा किया। दूसरे, भारतीय चिन्तन परम्परा के परिचित होने के लिए ‘षडदर्शन’समेत कई जरूरी ग्रंथों के पाठ की प्रेरणा दी। तीसरे, 1891 और 1901 के बीच निरंतर शंका-समाधान के जरिये भारतीय अध्यात्म परम्परा अर्थात वैदिक विमर्श, जैन धर्म साधना और बौद्ध धर्म दर्शन से बनी ‘आर्य-धर्म की सनातन धारा’ के प्रति विश्वास को मजबूत किया। इसमें दक्षिण अफ्रीका में‘आत्ममंथन’ से गुजर रहे गांधीजी और भारत में ‘आत्मसिद्धि’ कर चुके श्रीमद राजचंद के बीच हुए प्रश्नोत्तरों की बहुत प्रासंगिकता थी।
चौथे, श्रीमद राजचंद्र की आध्यात्मिक ज्योति के आलोक में गांधीजी ने हिन्दू धर्म के बहुचर्चित दोषों से ऊबकर एक बेहतर धर्म के रूप में ईसाई धर्म अपनाने के निर्णय को बदला। सर्वधर्म समभाव की राह को पहचाना और सत्य-अहिंसा और प्रेमबल की त्रिवेणी के साक्षात् प्रतीक बने।
इसी ज्ञान-सम्बन्ध की बुनियाद पर गांधीजी 1891 और 1906 के कठिन वर्षों के बीच की 15 बरसों की अवधि में अनेक व्यक्तिगत और सार्वजनिक प्रयोगों में जुटे। श्रीमद राजचंद्र द्वारा मिले मार्गदर्शन से विकसित हुए अपने चिन्तन में लियो तोलस्तोय की शिक्षाओं, जॉन रस्किन के सूत्रों और थोरो के सिद्धांतों का समावेश करते हुए सर्वोदय के अन्वेषी बने। अन्यायग्रस्त विश्वव्यवस्था के बदलाव के लिए प्रयासरत स्त्री-पुरुषों के लिए रचनात्मक सुधार और सत्याग्रही प्रतिरोध के अहिंसक पथ का निर्माण किया।