विलुप्त होती प्रकृति की चिंता

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— विमल कुमार —

हाल के वर्षों में हिंदी में कुछ ऐसी कवयित्रियां सामने आयी हैं जिनकी रचनाओं में बंगाल की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना परिलक्षित होती है। ये बांग्लाभाषी तो हैं ही हिंदीभाषी भी हैं। उनके पास हिंदी पट्टी और बांग्ला पट्टी के मार्मिक जीवनानुभव हैं। इन कवयित्रियों ने अपने अनोखे बिंब, भाषा और शैली से हिंदी कविता में लोगों का ध्यान आकर्षित किया है और हिंदी कविता को थोड़ा और समृद्ध भी किया है। सुलोचना वर्मा हिंदी की एक ऐसी ही कवयित्री हैं जिनके कृतित्व और व्यक्तित्व में दो संस्कृतियों का एक समुच्चय दिखाई देता है जिनमें वह समान रूप से रची-बसी हैं। वह काफी सुरुचिसंपन्न तथा परम्परा और आधुनिकता का गहरा विवेक रखनेवाली सांस्कृतिक बोध की लेखिका हैं। वह कुशल अनुवादक तो हैं ही, कहानीकार और बांग्ला नवजागरण में गहरी दिलचस्पी रखनेवाली रचनाकार हैं। उनका पहला कविता संग्रह बचे रहने का अभिनय गत दिनों प्रकाशित होकर आया है। इस तरह हिंदी कविता की दुनिया में एक और नयी कवयित्री का प्रवेश हुआ है। दसेक वर्षों में हिंदी की इस दुनिया को स्त्री कविता ने रचा है जिसमें बाबुषा कोहली, लवली गोस्वामी, अनुराधा सिंह, मोनिका कुमार, सुजाता प्रमुख हैं।

सुलोचना हिंदी कविता की गिरोहबाजी, भागमभाग, और आत्ममुग्धता से दूर रहकर चुपचाप लेखन में विश्वास रखती हैं और वह साहित्य की दुनिया में धमाचौकड़ी भी नहीं मचाती हैं। शायद यह कारण रहा हो कि उनकी कविताओं की तरफ अभी लोगों का कम ध्यान गया है और लोग उन्हें एक अनुवादक के रूप में अधिक जानने लगे हैं। लेकिन उनके पास केवल अनुवाद की नहीं बल्कि कविता की भी थाती है और उनके पहले कविता संग्रह को पढ़ने से इस बात की पुष्टि भी होती है।सुलोचना हिंदी और बांग्ला में समान गति से सक्रिय हैं और उन्होंने काफी अनुवाद कार्य किये हैं। वे जब तब हिंदी के समादृत अनुवादकों की सीमाएं भी इंगित करती हैं। इस दृष्टि से हिंदी में उनका आना एक नयी भावभूमि का आना है। उन्होंने हिंदी कविता को एक ऐसी दुनिया से परिचित कराया है जिसका कोई रंग रूप यहां पहले दिखाई नहीं देता है। जब हिंदी की स्त्री कविता का एक हिस्सा यूरोपीय कविता से आक्रांत दिखता है और अपनी ऊर्जा वहां से लेता है सुलोचना अपनी रचनात्मकता का उत्स बांग्ला की समृद्ध परंपरा में खोजती हैं और उसे एक आधुनिक रूप प्रदान करती हैं। उनका स्वर ज्योति शोभा और जोशना बनर्जी आडवाणी से भिन्न है। उनकी रचनाओं में अमूर्तन और बिम्बधर्मिता का घटाटोप भी नहीं है। उनके यहां जो कुछ है, सो बहुत स्पष्ट, सुचिंतित और सुव्यवस्थित है। कहीं कहीं कविता रचने के प्रयास में स्फीति और सम्पादन का अभाव नजर आ सकता है।उन्हें कुछ कविताओं को और मांजने की जरूरत पड़ सकती है लेकिन इतना तय है कि सुलोचना की दृष्टि बहुत साफ है और वह कविता में क्या कहना चाहती हैं उसको लेकर वह बहुत आश्वस्त हैं, उन्हें किसी तरह का संदेह नहीं है। वह कविता में अपनी आवाज खोज चुकी हैं। उन्हें पता है कि उन्हें क्या लिखना है, किन विषयों को उठाना है और उसका निर्वहन किस तरह करना है।

सुलोचना वर्मा

उनकी कविता ‘नदी की आत्मकथा’ सर्जक की भी आत्मकथा बन जाती है। नदी और व्यक्ति को रचना में वह एकाकार कर देती हैं।

“जब लौट आयी मैं कोलकाता के बाबू घाट से
तो देखा नदी ने लिख दी थी अपनी आत्मकथा
मेरे दुपट्टे के किनारों पर अपने जल्द से

पढ़ रही हूँ आत्मकथा नदी की इन दिनों
तो उतर रही है एक नदी मेरे भीतर भी
नींद की नौका अक्सर ले जाती है मुझे हुगली पार”

कोलकाता का बाबू घाट उनकी कविताओं में कई बार लौटता है –

“मैं भीड़ के बीच खड़ी थी अकेली ठीक वैसे / जैसे पड़ी थी अकेली बिन माझी की नाव/ कोलकाता के बाबू घाट पर/ हवा में तैरते हुए कुछ शब्द कर रहे थे अतिक्रमण मानस पर/ राजमणि, गंगा स्नान, ढीमर जाति देवी मंत्र, शुद्र वर्ण और भी कई…./ रह रह कर ध्यान भंग कर रही थीं गंगा की शांत लहरें/ और टकरा रही थीं पास आती हुई हमारी डिंघी के पास से उसी तरह/ जैसे मैं टकरा गयी थी अचानक बिसरी ही स्मृतियों उस क्षण/ कोलकाता के बाबू घाट पर”

सुलोचना की कविताओं में प्रकृति से एक अटूट रिश्ता है। उनके यहां कविता में विलुप्त होती प्रकृति की गहरी चिंता भी है। वह सुख की तलाश में प्रकृति से एक संवाद भी करती हैं और इस तरह प्रश्न भी पूछती हैं-

” हुगली के किनारे टहलते हुए नदी से मैंने पूछा/ पवित्र नदी क्या तुम मुझे दे सकती हो एक छटांक सुख?/ नदी ने कहा यदि घूम सको मेरी लहरों का जनपद और पढ़ सको तो/ शायद महसूस कर सको एक किस्म का सुख।”

क्या विकास की इस आंधी में मनुष्य इस सुख से वंचित नहीं हो गया है? सुलोचना कहती हैं हम इस अंधी दौड़ में अदृश्य सुखों को भी प्राप्त नहीं कर पाते।

उनकी एक लंबी कविता है ‘मछली पुराण’। हिंदी में मछलियों पर अनेक कविताएं लिखी गयी हैं पर उनका पुराण नहीं लिखा गया। सुलोचना ने इस कविता में बासु दा लैला रूपक बाबू के माध्यम से विकास की विडम्बना और उसकी मार्मिक शोक कथा ही लिख दी है जिसमें मत्स्यपालन की आजीविका से उत्पन्न मृत्यु संकट के विषाद और जीवन के आनंद के साथ साथ एक गहरा प्रश्न भी है-
“21वीं सदी के इस महादेश में दिख रहा है हर ओर और कंक्रीट/ सूखती जा रही है नदियां और पाट दिए जा रहे हैं तालाब /ज्यादार लोगों की सुधि में/ पोखर नहीं पानी नहीं बरसा नहीं हरीतिमा नहीं /खेत नहीं धान नहीं झील नहीं मछली नहीं/ वह मातम भी तो नहीं जो बहा करती थी हवाओं के संग/ शस्य श्यामला धरा के ऊपर/ मत्स्य शिकार का आनंद भी नहीं/

यह विनाश नहीं आया स्वतः ही/ किया गया इसे आमंत्रित कायदे से/ जो आया विकास की वेशभूषा में/ फिर पसरता ही गया !

रुष्ट हो रही है जल माता/ मत्स्य देवी देने ही वाली है पृथ्वी वासियों को श्राप /कब करेंगे प्रतिवाद हम और आप।”

सुलोचना ने मधुमेह, कोलोस्ट्राल, थायरोड और मस्कुलर डिस्ट्रॉफी पर भी कविताएं लिखी हैं। मधुमेह पर लीना मल्होत्रा की कविता की स्मृति हो आयी। लेकिन अन्य रोगों पर एकसाथ किसी कवयित्री ने कविता नहीं लिखी है। सुलोचना हर चीज में जीवन की तलाश भी करती हैं और उसके संघर्ष और दुख-दर्द को भी रेखांकित करती हैं। कविता उनके लिए शब्दों की पच्चीकारी नहीं, कोई कौतुक या कौशल नहीं, बल्कि वह एक आंतरिक वैचारिक जरूरत है।

सुलोचना ने चाय पर पांच कविताएं लिखी हैं और हर चाय की अलग खुशबू की तरह इन पांचों कविताओं के रंग और स्वाद भी अलग अलग हैं। यह हिंदी की नयी ईकोपोएट्री है। हिन्दी कविता का एक नया इकोसिस्टम भी विकसित हो रहा है।

उनकी एक छोटी सी कविता है काजल। एक नयी व्याख्या के साथ। सुलोचना एक नया अर्थ प्रदान करती हैं क्योंकि वह नयी दृष्टि से चीजों को देखती हैं। सदियों से चले आ रहे इस काजल को नए अंदाज में उन्होंने देखा है –
“काजल है लक्ष्मण रेखा
सुख द्वारा खींची गई
आंखों की देहरी पर
आंसुओं के लिए

दुख का रावण
आता रहता है
वेश बदलकर
बार-बार।”

“दोचोटी वाली लड़की” उनकी एक उल्लेखनीय कविता है। हिंदी कविता में कई लोगों ने चोटी बनानेवाली या स्कार्फ बाँधनेवाली लड़की का जिक्र किया है पर इस शीर्षक से किसी ने कविता नहीं लिखी। बाजार और नयी आर्थिक नीति से पहले कस्बे में निम्न मध्यवर्गीय परिवार की एक लड़की के संघर्ष की पूरी कहानी यह कविता कहती है।

सुलोचना ने रोहित वेमुला पर भी एक कविता लिखी है तो शरतचन्द्र के ‘चरित्रहीन’ की स्त्री पात्र पर भी। यानी वह इतिहास और वर्तमान दोनों में विचरती रहती हैं और सजग हैं।उन्होंने एक कविता लिखी है ‘बुद्ध होती हुई स्त्री’, जो स्त्रियों की एक प्रतिनिधि कविता साबित होगी भविष्य में।

किताब : बचे रहने का अभिनय
कवयित्री : सुलोचना वर्मा
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, सी-21, सेक्टर 65, नोएडा-201301
ईमेल : [email protected]

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