दलित राजनीति को एक नये रेडिकल विकल्प की जरूरत है

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— एस.आर. दारापुरी —

हाल में पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों ने यह दिखाया है कि दलित राजनीति एक बार फिर बुरी तरह नाकाम हुई है। इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी, जो कि उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का प्रतीक है, बुरी तरह पराजित हुई और उसे सिर्फ एक सीट मिली। इन चुनावों में बसपा को उत्तराखंड में दो सीट मिली, जबकि पंजाब में वह एक भी सीट नहीं पा सकी, बावजूद इसके कि अकाली दल से उसका गठबंधन था। इसके अलावा, दलित राजनीति के नये खिलाड़ी चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनाव लड़ा था, पर वह खाता भी नहीं खोल पायी। इस तरह, उत्तर भारत में दलित राजनीति ने मुँह की खायी है। मायावती का सबसे बड़ा आधार, उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक बुरी तरह छितरा गया है। इसका एक बड़ा हिस्सा (गैर-जाटव उपजातियाँ) पहले ही बीजेपी के साथ चला गया था और इन हालिया विधानसभा चुनावों में जाटव/चमार वोट का भी एक हिस्सा मायावती से टूटकर सपा और भाजपा की तरफ चला गया। 

इस तरह, उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में बसपा के वोट बैंक के बिखराव से यह साफ हो गया है कि उत्तर भारत में दलित राजनीति बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो गयी है और आज यह एक चौराहे पर खड़ी है। ऐसी स्थिति में दलित राजनीति को एक नये रैडिकल विकल्प की जरूरत है।

यह पहली बार नहीं है जब दलित राजनीति का प्रदर्शन इतना निराशाजनक रहा है। इससे पहले, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) को भी इसी तरह नाकामी का मुँह देखना पड़ा था। आरपीआई जब तक बाबासाहेब डॉ आंबेडकर की विचारधारा पर चलती रही, फलती-फूलती रही। लेकिन जब वह नेताओं के व्यक्तिवाद, मौकापरस्ती और एजेंडा-विहीनता का शिकार हो गयी, उसका पतन होने लगा और आज उसके टुकड़े ही बचे हैं। एक समय इस पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश में बड़ी उपलब्धियाँ दर्ज की थीं। 1962 में इस पार्टी के उत्तर प्रदेश में 4 सांसद और 8 विधायक तथा 1967 में 1 सांसद और 10 विधायक थे। उसके बाद इस पार्टी में टूट-फूट शुरू हुई। उन दिनों पार्टी का एक प्रगतिशील एजेंडा हुआ करता था और वह संघर्ष में तथा जन आंदोलन में यकीन करती थी। पार्टी ने 6 दिसंबर 1964 से देशव्यापी भूमि आंदोलन शुरू किया था। इस आंदोलन में तीन लाख से ज्यादा प्रदर्शनकारी गिरफ्तार हुए थे और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को आंदोलन की सभी माँगें माननी पड़ीं जिनमें भूमि वितरण मुख्य माँग थी। इसके बाद कांग्रेस ने आरपीआई को, इसके नेताओं की व्यक्तिगत कमजोरियों का लाभ उठाकर तथा उन्हें पद और अन्य प्रलोभन देकर, तोड़ना शुरू किया। नतीजतन 1970 तक आरपीआई कई टुकड़ों में बँट गयी और और आज इसके नेताओं का काम अपने निजी हितों के लिए विभिन्न दलों से समझौते करना रह गया है।

अगर हम उत्तर भारत में खासकर उत्तर प्रदेश में बसपा के उभार पर गौर करें तो यह साफ दीखेगा कि एक तरह से उसे आरपीआई के पतन से पैदा हुए शून्य का लाभ मिला था। कांशीराम ने आरपीआई के खँडहर पर बसपा को खड़ा किया था। शुरू में आरपीआई के अधिकतर कार्यकर्ता इसमें शामिल हो गये और इसे दलितों के मध्यवर्ग का भरपूर समर्थन मिला। 1993 में इसने मुलायम सिंह यादव की समाजादी पार्टी से गठबंधन करके बड़ी कामयाबी दर्ज की और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की सरकार बनी। उस समय दलित, पिछड़े और मुसलिम का एक मजबूत मोर्चा बना था और इसका संदेश सारे देश में गूँजा था। लेकिन दुर्भाग्य से यह गठबंधन, कुछ निजी हितों के हावी हो जाने से, जल्दी ही टूट गया। 

सबसे भयानक बात जो हुई वह थी घोर दलित विरोधी भाजपा से समर्थन लेना। इसके बाद भी, बसपा ने दो बार भाजपा से गठजोड़ किया, जो मायावती के निजी हितों के अनुकूल भले रहा हो, दलित-हितों के लिए घातक था। इससे दलितों में दिशाहीनता आयी और वे दोस्त तथा दुश्मन में फर्क करना भूल गये। दलितों को उसी ब्राह्मणवादी विचारधारा से दोस्ती करने को कहा गया जिसके खिलाफ वे संघर्ष करते आए थे। बाद में मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडों, बदमाशों, माफियाओं और दलितों के उत्पीड़कों को बेच दिया जिनसे दलित लड़ रहे थे।

हालांकि बसपा चार बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आयी, पर उसने कभी भी यह नहीं बताया कि दलितों के लिए उसका एजेंडा क्या है। इसका नतीजा यह हुआ कि तथाकथित दलित सरकार तो बनी पर दलितों के सशक्तीकरण की कोई योजना लागू नहीं हुई। दलितों का सिर्फ भावनात्मक तुष्टीकरण होता रहा और एक हद तक उनमें आत्म-सम्मान की भावना जागी, लेकिन दलितों की दशा वैसी की वैसी ही रही।

सामाजिक एवं आर्थिक जनगणना-2011 बताती है कि ग्रामीण इलाकों में दलितों के दो सबसे दुर्बल पक्ष हैं। एक, उनकी भूमिहीनता। दूसरे, शारीरिक श्रम वाली मजदूरी करने के लिए उनका विवश होना। यह बड़े अफसोस की बात है कि हालांकि मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं लेकिन न तो उन्होंने दलितों के लिए जमीन आवंटित की न दलितों को आवंटित जमीन पर कब्जा दिलाया, 1995 को छोड़कर। नतीजतन दलित आज भी मजदूरी, नित्यकर्म तथा पशुओं की खातिर चारा हासिल करने के लिए उनपर निर्भर हैं जिनके पास जमीन है। इस स्थिति के रहते, अपने ऊपर होनेवाले अत्याचारों का कारगर प्रतिकार वे नहीं कर पाते हैं। ऐसा लगता है कि दलितों को कमजोर और निर्भर बनाये रखना मायावती की राजनीति का भी हिस्सा रहा है।

ऐसा देखा गया है कि जब से नवउदारवादी आर्थिक नीति देश में लागू हुई है, दलितों को इसका सबसे ज्यादा खमियाजा भुगतना पड़ा है। कृषि और स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी निवेश में कमी का सर्वाधिक नुकसान दलितों को हुआ है। रोजगार-सृजन की गति में आयी कमी भी दलितों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुई है। निजीकरण ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण को भी बेमानी बना दिया है। लेकिन मायावती ने दलितों पर पड़नेवाले इन कुप्रभावों को बराबर नजरअंदाज किया। 

दरअसल, मायावती भी दलितों के साथ उसी किस्म की राजनीति करती रही हैं जैसे मुख्यधारा की पार्टियाँ। दलितों को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने के बजाय, प्रतीकों की राजनीति करते हुए, उन्हें मायावती ने सिर्फ अपने वोट बैंक के रूप में देखा। उनके इस रवैये के कारण, दलितों का भी उनसे मोहभंग हो गया।

बसपा की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमजोर करने के बजाय उसे और मजबूत ही किया है जिसका भाजपा को लाभ मिला है। वह दलितों की अधिकतर उपजातियों में सेंध लगाने और उन्हें हिंदुत्व से जोड़ने में कामयाब हुई है। जाति की राजनीति की यह एक स्वाभाविक परिणति है। जब यह जमकर प्रचारित किया गया कि बसपा मुख्य रूप से चमारों और जाटवों की पार्टी है तो दलितों की अन्य उपजातियों में इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी। यह कई चुनावों से होता रहा है। उत्तर प्रदेश में दलितों की अधिकतर उपजातियाँ बसपा से छिटक कर भाजपा तथा सपा की तरफ जा चुकी हैं। काफी हद तक चमार और जाटव भी बसपा का साथ छोड़ चुके हैं।

उपर्युक्त वर्णन से यह साफ है कि उत्तर भारत में बसपा की जातिगत राजनीति मौकापरस्ती, सिद्धांतहीनता, दलित हितों की अनदेखी और भ्रष्टाचार के कारण नाकाम हो चुकी है। लिहाजा, दलितों को एक नये रैडिकल विकल्प की जरूरत है। इस विकल्प को जाति के बजाय वर्ग-हित को आधार बनाना होगा ताकि एक जैसे हालात में जीनेवाले सभी वर्गों के लोग इससे जुड़ सकें। साथ ही, जातिगत भेदभाव से मुक्ति भी इस विकल्प का एक खास वादा होगा। इसके लिए दलितों को जाति की संकीर्ण राजनीति से बाहर निकलना होगा और व्यापक लोकतांत्रिक व जनपक्षधऱ राजनीति का हिस्सा बनना होगा।

द ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (रेडिकल)- एआईपीएफ- ने 2013 से ही इस दिशा में पहल की है। पिछले विधानसभा चुनाव में हमने दुद्धी (अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित), सोनभद्र और सीतापुर सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। दुद्धी में लड़कियों के लिए शिक्षा और वनाधिकार कानून के तहत जमीन का आवंटन हमारा मुख्य एजेंडा था। सीतापुर में दलितों का सम्मान और किसानों का अधिकार हमारे मुख्य मुद्दे थे। हमारी पार्टी का मुख्य एजेंडा दलितों, आदिवासियों, कामगारों और किसानों को राजनीति के केन्द्र में लाना और कॉरपोरेट-वित्तपोषित हिन्दुत्व को हराना है। एआईपीएफ संत रविदास की ‘बेगमपुरा अवधारणा’ को मूर्तिमान करने के लिए संकल्पित है। इसके लिए हमारी पार्टी सभी लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, सेकुलर और जनपक्षधर ताकतों से हाथ मिलाने को तैयार है। आप इसके संविधान, नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में www.aipfr.org पर विस्तार से पढ़ सकते हैं। अगर आप हमारे एजेंडे से सहमत हैं तो आइए हमसे जुड़ें।

countercurrents.org से साभार

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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