— रघु ठाकुर —
एक मई स्व. मधु लिमये का जन्म दिवस है और यह वर्ष उनका शताब्दी वर्ष भी है। मधु जी के जीवन को पाँच खण्डों में बाँटकर देखा जा सकता है।
- स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी,
- गोवा सत्याग्रह में हिस्सेदारी,
- समाजवादी आंदोलन में अग्रणी भूमिका,
- संसदीय कार्य,
- सक्रिय राजनीति से हटने के बाद लेखन कार्य।
मधु लिमये जी अपनी युवास्था में ही स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये थे और गिरफ्तार होकर जेल गये थे। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने समाजवाद के विचारों का न केवल अध्ययन किया बल्कि अध्यापन भी किया। स्वर्गीय साने गुरु जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने समाजवाद मधु लिमये से सीखा। स्वर्गीय साने गुरु जी का प्रेम और विश्वास मधु जी के ऊपर कितना गहरा था, यह इससे जाना जा सकता है कि जब आजादी के बाद उन्हें घोर निराशा हुई तब भी उन्होंने अपने जीवन का आखिरी पत्र मधु जी के नाम लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि जो सपने देखे थे वे पूरा होते नजर नहीं आ रहे हैं। आजादी के आंदोलन के बाद मधु जी गोवा सत्याग्रह में शामिल हुए और उन्होंने गोवा पुलिस की लाठियों को सहा। जब मधु जी ने सत्याग्रह करते हुए गोवा की सीमा में प्रवेश किया तब उनपर भीषण लाठीचार्ज हुआ और वह बेहोश होकर गिर गये और जिस प्रकार पुलिस उन्हें उठाकर ले गयी थी उससे वहाँ उपस्थित लोगों ने यही अनुमान लगाया कि मधु जी की मृत्यु हो गयी। उस समय बंबई के समाचारपत्रों में छपा कि,“मधु लिमये गेले”। बंबई के उनके पड़ोसी, चंपा जी को शोक संवेदना देने घर आने लगे। कई दिनों बाद इस तथ्य की पुष्टि हुई कि मधु लिमये जिंदा हैं।
मधु जी समाजवादी आंदोलन के अग्रणी नेता थे, और आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. लोहिया एवं जेपी के बाद दूसरी पीढ़ी के नायक थे।
उन्होंने उस समय म्यांमार (बर्मा) में अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में भारत की सोशलिस्ट पार्टी की ओर से हिस्सेदारी की थी। सोशलिस्ट पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र एवं सत्ता के गोली चलाने के विरूद्ध जब लोहिया ने भूमिका ली तब उसको लेकर जो बँटवारा हुआ उसमें मधु जी डॉ. लोहिया के साथ रहे और तब से लेकर जीवन के आखिरी दिन तक वह डॉ. लोहिया के साथ रहे। डॉ. लोहिया का मधु जी के प्रति अटूट विश्वास था और मधु जी का डॉ. लोहिया के प्रति अटूट श्रद्धा थी।
मधु जी का संसदीय जीवन तो स्वर्णाक्षरों से लिखने योग्य है। उन्हें संसदीय नियमों एवं परंपराओं का इतना गहरा ज्ञान था कि जब वे कोई प्रश्न उठाते थे तो स्पीकर को भी आमतौर पर उनके तर्क काटने का साहस नहीं होता था। एक बार संसद का पूरा सत्र ही मधु लिमये जी के नाम दर्ज हो गया था, क्योंकि उस पूरे सत्र में हर दिन मधु लिमये जी द्वारा संसद में उठाये गये प्रश्न ही चर्चा के केंद्र में थे।
उस समय की दिनमान पत्रिका, जो 60 के दशक में देश की सबसे लोकप्रिय पत्रिकाओं में एक थी, उसने शीर्षक ही लिखा था “मधु सत्र”। मधु जी के संसदीय ज्ञान और बौद्धिक योग्यता का यह आतंक था कि जब वे एक अटैची लेकर संसद में जाते थे तो सत्तापक्ष और उनके मंत्री भयभीत हो जाते थे कि पता नहीं कौन सा रहस्य मधु जी के पिटारे से निकलने वाला है, और जाने किस मंत्री की नौकरी जाएगी। मधु जी के कार्य की विशेषता यह थी कि जो सवाल उठाते थे उसे निर्णायक हल तक ले जाते थे और कई मामलों को तो उन्होंने लगातार कई सत्रों तक उठाया तथा शक्तिशाली सरकारों को भी कार्रवाई करने को लाचार कर दिया।
मैं 1963-64 में मधु जी के संपर्क में आया था, यद्यपि मैं उस समय अपने गृह जनपद में पार्टी का पदाधिकारी मात्र था। मध्यप्रदेश में मधु लिमये जी का अकसर आना होता था और मध्यप्रदेश के कार्यकर्ताओं का भी उनसे गहरा लगाव था, वे कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझते थे तथा उनके प्रति संवेदनशील रहते थे।
1973 में मैं तत्कालीन सरकार के द्वारा, पुलिस के हड़ताल कराने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तार कर, भोपाल जेल में निरुद्ध था। वहाँ मेरे कक्ष के सामने की बैरक में एक मुस्लिम भाई थे जिन्हें पाकिस्तानी नागरिक के नाम पर गिरफ्तार कर जेल में रखा गया था। वे रात में बैरक बंद होने के बाद सीखचों के पास खड़े होकर जोर-जोर से रोते थे, यह उनका लगभग दैनिक कार्य था। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आप रोते क्यों हैं? क्या आपको कोई शारीरिक कष्ट है? उन्होंने बताया कि 1947 में जो बँटवारा हुआ तब वो छोटे थे उनकी बड़ी बहन का ससुराल पूर्व के भारत और विभाजन के बाद के कराची (पाकिस्तान) में था। जब बहन अपनी ससुराल में जा रही थी उसके साथ वह कराची चले गये फिर विभाजन हो गया, आना जाना लगभग बंद हो गया।
कई वर्षों बाद जब हालात सामान्य हुए तब वो वीजा लेकर भोपाल अपने घर आए, यहाँ आकर तांगा चलाने लगे, शादी हो गयी बच्चे हो गये, और यहीं रहने लगे। 1965 में भारत-पाक युद्ध के समय सरकार के द्वारा देश में पाकिस्तान से आए हुए लोगों की वैधानिकता की जाँच परख शुरू की गयी और इसी समय वीजा अवधि समाप्त होने के बाद वापिस नहीं जाने के आरोप में पाकिस्तानी नागरिक मानकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया, तभी से वह जेल में बंद थे। पाकिस्तानी सरकार उन्हें वापिस नहीं लेना चाहती थी और भारत सरकार की नजर में वो पाकिस्तानी थे। जेल में आए हुए उन्हें कई वर्ष गुजर गये, उन्होंने अपने बच्चों को भी वर्षों से नहीं देखा। मैंने उनकी व्यथा जेल से ही मधु जी को एक पत्र के रूप में लिखकर भेजी। यह मधु जी का भी बड़प्पन था कि एक छोटे से पदाधिकारी के पत्र को पढ़कर बड़ी संजीदगी से संसद में उठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि न केवल वह भाईजान छूटे बल्कि विभिन्न जेलों में गिरफ्तार 50 लोग और भी रिहा हुए, साथ ही सभी को भारत की नागरिकता भी मिल गयी।
मधु जी के साथ मैंने विशेषतः मध्यप्रदेश में बहुत दौरे किये और उस समय के मध्यप्रदेश में जिसमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल थे, शायद ही कोई जिला ऐसा हो जिसका दौरा हम लोगों ने नहीं किया था। धार जिले के माण्डू, होशंगाबाद के पचमढ़ी, पन्ना इत्यादि कई जिलों में मैंने उन्हें कार्यकर्ता शिविर में बुलाया तथा वह कई दिनों कर रुके। 1963-64 से लेकर जीवन के आखिरी क्षण तक मैं उनके साथ रहा। जब उन्होंने जीवन का परित्याग लोहिया अस्पताल में किया तब भी मैं उनके साथ था।
मधु लिमये एक नैतिक चरित्र के, सच बोलने वाले नेता थे। उन्होंने मुझसे एक ही बार झूठ बोला, जब वो लोहिया अस्पताल में भर्ती थे।
दो दिन से उन्होंने कुछ खाया नहीं था, मैंने उनसे बहुत आग्रह किया कि कुछ खा लीजिए, उनमें बहुत शारीरिक पीड़ा थी वह साँस भर रहे थे। मेरे प्रेम के आग्रह को समझकर बोले, आज रात को रुक जाओ, मैं कल सुबह तुम्हारे साथ खाऊँगा। सुबह कुछ खाने से पहले ही वह दुनिया से विदा हो गये। शायद उनके जीवन का यही पहला या आखिरी झूठ था। या फिर जिस वायदे को नियति ने पूर्ण नहीं होने दिया।
उनकी अपार स्मृतियाँ हैं, सैकड़ों घटनाएँ हैं, जिनका स्मरण मस्तिष्क में घूमता रहता है। उनके शताब्दी वर्ष में हम संकल्प लें कि हम उनकी नैतिकता, चरित्र, त्याग, ज्ञान, ईमानदारी और संघर्ष का अनुसरण कर सकें।
मधु जी एवं चंपा जी को विनम्र श्रद्धांजलि।