डॉ एम.डी. सिंह और अनिल सिन्हा की कविताएं

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

— एम.डी. सिंह —

1. चलिए जीते हैं !

गणनाओं से मुक्त होकर
चलिए जीते हैं उन्मुक्त होकर
वहां जहां संसार भी हम ही हों
देश भी हम ही
पूर्ण भी हम ही हों
शेष भी हम ही

भय भूत भावना से रिक्त
होकर अकूत जिजीविषा से सिक्त
चलें वहां जहां देव दानव लड़ रहे
मृत्यु से छीन कर अमृत कलश
अमृत पीते हैं
चलिए जीते हैं

प्रतिबंधों का संसार बड़ा है
अनुबंधों का बाजार खड़ा है
हम क्यों बॅंधें चलिए जीते हैं
आशा निराशा प्रत्याशा से विमुक्त
भाषाई निवेदनों से परे
जैविक आह्लाद से ओत-प्रोत !

2. प्रश्न

प्रश्न वह नहीं
जो पूछ लिया गया है
प्रश्न वह भी नहीं
जिसका उत्तर मिल गया है

प्रश्न वह है
जो अभी पनप रहा आपके भीतर
जो अभी चल रहा साथ साथ निरंतर
जिसका उत्तर
अभी ढूंढ़ नहीं पाया है
आपका मन आपका अंतर

सच कहिए तो वही
अनगढ़ा-अनचीन्हा निरुत्तर ही
प्रश्न है

3. ग़ज़ल

पेट को ही न दोस्त बेहद भरने दिया जाए
दिमाग को भी तो कुछ हजम करने दिया जाए

बाहर निकल के करने लगती है मनमानियां
रोशनी को बंद कमरों में रहने दिया जाए

भीतर रहीं तो जीने नहीं देंगी किसी हाल
बातों को दिलों से बच निकलने दिया जाए

हाथ उठे तो हुई लड़ाई लाजमी समझिए
हाथ बस गिरते को उठाने उठने दिया जाए

बेफ़िक्री गर चाहिए मुक़ाबले की बात हो
महज फिक्र को गर्दिश में उतरने दिया जाए

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

— अनिल सिन्हा —

लोकतंत्र अब एक शिकार-कथा भर है

इस मुल्क में लोकतंत्र अब सिर्फ एक शिकार-कथा है
एक गली से निकलता झुण्ड दूसरी गली की ओर  बढ़ा है
और, टूट पड़ा है उन निरीह लोगों पर
जो दबे हैं पहाड़ सी होती खुद की जिंदगी के नीचे

जंगल की तरह
सभी हैं खौफ के साये में
नदी, नाले, पहाड़, झरना,
जिंदगी और बंदगी भी

प्रार्थनाओं से करुणा शब्द हटा लिया गया है
और ईश्वर के होठों से आशीर्वाद शब्द छीन कर
थमा दिया गया है हथियार उनके हाथों में
अब प्रभु ने मुस्कुराना भी छोड़ दिया है

मैं जरा भी हैरान नहीं हूँ
मुझे पता था कि विराट लगने वाले वे शब्द धोखा थे
जो इस सभ्यता की महानता के बखान में गढ़े गए थे
असल में वे बहाना थे निहत्थों पर हमलों का
जंगल की ही तरह
खरगोश और हिरणों पर भेड़ियों के टूटने का बहाना

मुझे मालूम है
आप अदालत, पुलिस और कानून की बात करेंगे
और पूछेंगे यहाँ से वहां तक फैले सन्नाटे के बारे में
तो मैं ले चलूँगा आपको फिर एक बार जंगल की तरफ,
सदियों से खड़े दरख्तों के पास
जिनकी छाँव में प्रार्थनाएं होती हैं
और अनगिनत हत्याएं भी
हम क्या करेंगे इन ऊँचे दरख्तों का ?
हमें तो हवा में लहराते हाथ चाहिए
आसमान को पहुँचते हाथ।

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