— उमेश प्रसाद सिंह —
चैता सुख के खो जाने का गान है। भारतीय जाति बड़ी कठकरेजी जाति है। इसका दिल बड़ा कोमल है। पर कलेजा बड़ा कठिन है। कठोर नहीं है, कठिन है। कठोर वह होता है, जो दूसरों को दुख पहुँचाकर दुखी नहीं होता। कठिन कुछ दूसरे तरह का होता है। यह दुख सह लेता है, मगर दुखी नहीं होता है। दुर्बल जाति के लोग सुख के खो जाने के अवसर उपस्थित होने पर रोने लगते हैं। हमारी विरासत कुछ इस तरह की है कि सुख के खो जाने पर हमारे भीतर गान उठने लगता है। हम गाने लगते हैं। चैता गाने लगते हैं। सुख के विदा हो जाने की पीड़ा का गान चैता कहलाता है।
वसंत के बीत जाने के बाद। वसंत के उल्लास के विदा हो जाने के बाद उसकी उन्मद उदासी की त्रासद चुभन का एहसास चैता में मुखरित हो उठता है। चैता सुख की अदम्य उत्कंठा में उसके अभाव के कचोट का उद्वेलन है। वसंत था। अभी-अभी था। यहीं था। अपने अगल-बगल था। आसपास था। अपने में ही था, समाया हुआ। अपनी ही चेतना की आंतरिकता में मोजरे हुए आम की मादक गंध की तरह इठलाता हुआ। मगर अब नहीं है। सब कुछ है, मगर वह नहीं है। बहुत कुछ नया-नया भी है, लेकिन वह नहीं है। वही नहीं है, मगर उसकी छाया हमें अब भी छू रही है। उसका न होना मन को मथ डालता है। टीस से भर देता है। बेचैन कर देता है। उसके न होने से जो है, वह सब पीड़ा पहुँचाने वाला बन गया है।
मैं जब अपने समय को देखता हूँ वह बेचैन दिखाई पड़ता है। न जाने किस उधेड़-बुन में उन्मन। बेहद हड़बड़ी में भागता हुआ, न जाने क्या खो गया है कि हर छूंछी हांड़ी में हड़बड़ाया हाथ डालता अकुलाया हुआ है। लगता है, हमारे समय में हर आदमी का कुछ खो गया है। पता नहीं क्या खो गया है। मगर खो गया है जरूर। जो खो गया है, उसे ही हम ढूँढ़ रहे हैं। हर कहीं ढूँढ़ रहे हैं। मगर वह कहीं भी मिल नहीं पा रहा है। हमारा समूचा समय बेचैन है। बेहद बेचैन है। मुझे लगता है कि हमारे समूचे भारतीय समाज की कोई बहुत ही प्रिय और बहुत ही जरूरी चीज खो गयी है।
हाँ, सच है। जरूर खो गयी है। हमारे घरों में हमारा घर खो गया है। हमारे परिवार में हमारा परिवार खो गया है। हमारे पड़ोस में हमारा पड़ोस खो गया है। यहाँ तक कि हममें हम ही खो गये हैं। बड़ा अजीब है। ऐसा क्यों है?
मुझे लगता है, हमारी समूची भारतीय जाति की अस्मिता ही खो गयी है। हमारे पास बहुत कुछ है। हमने बहुत कुछ उपलब्ध किया है। फिर भी….। हमें लगता है, सब कुछ हरा-हरा ही दिखता है। अपने सुख में अंधे हुए को सब कुछ भला-भला ही दिखता है।
मगर सबकुछ भला-भला नहीं है। भारतीय जन के लिए भारतीय जनता के लिए सब कुछ भला-भला नहीं है। कुछ बुरा है, जो भले को भी शोभन नहीं होने देता। सुखद नहीं होने देता।
भारतीय जनता के सुहाग का चिह्न खो गया है। अपने ही घर-आँगन में, अपने ही कोठे- अटारी में, अपनी ही सेज में, अपनी ही श्रृंगार–सामग्री में कहीं खो गया है। वह कब से हेर रही है। खोज रही है। ढूँढ़ रही है। ढूँढ़ने में व्यग्र है। उसका कहीं पता नहीं चल पा रहा है।
हमारी विरासत खोये हुए वसंत की पीड़ा को चैता में गाने की विरासत रही है। मगर अब तो हम अपनी विरासत से वंचित होकर वैश्विक जन होने का झुनझुना बजाने में लगे हैं। फिलहाल हम न गा पा रहे हैं, न तो रो ही पा रहे हैं। हम गाना भूल चुके हैं। रोना हमारे स्वभाव में कभी रहा ही नहीं है।
भारतीय जनता तो कब से कह रही है– खोज दो न, खोजवा दो न। हमारे सुहाग का चिह्न तो हमारे स्वाधीनता-संघर्ष के संकल्प का ही है। सपने ही हैं। सब अपनों की तू-तू, मैं-मैं में खो गया है। अपनों में ही, अपनों के बीच ही हमारा अपनापन कहीं खो गया है।
सद्यः सुहागन के लिए झुलनी से बढ़कर कुछ भी नहीं है। वह है तो सबका अर्थ है। वह नहीं है, तो सब व्यर्थ है। उसे तो उसके होने पर ही सब कुछ भला लगता है। जनतंत्र में जनता को क्या चाहिए? हमें सबसे पहले हमारी सुरक्षा चाहिए, शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए, सम्मान चाहिए, पारस्परिकता चाहिए, पारिवारिकता चाहिए। हमें जीने के अवसर की सुलभता चाहिए। मगर यही नहीं है। यही तो नहीं है। यही खो गया है। यहीं कहीं खो गया है। किससे पूछें भला। कैसे फूछें भला।
कौन सुनेगा? कोई नहीं। सब मगन हैं, मस्त हैं अपनी धुन में। अपनी लगन में। अपनी खुशी में। उनकी खुशी देखकर पूछने से पहले ही जी लजा जाता है। वसंत चला गया है। धूप तीखी होने लगी है। मन में बेचैनी भरी है। बेचैनी में चैता का बोल बज रहा है-
एहिं ठैंया झुलनी हेरानी हो, रामा, कासों मैं पूछूँ,
सास से पूछूँ, ननदिया से पूछूँ, सइयां से पूछत लजानी हो रामा…..।
भारतीय जाति की आधुनिक अस्मिता का निर्माण हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सृजित मूल्यों से हुआ है। भारतीय जाति की आत्मिक अभीप्सा उन्हीं मूल्यों की जीवन में उपलब्धता की अभीप्सा है। हमारी मूल अभीप्सा प्यासी की प्यासी है। आजादी के बाद भी सरकारें विकास के दावों की उद्घोषणा गला फाड़-फाड़ कर करती आ रही हैं। आज भी कर रही हैं। हम कैसे कहें कि हमारी सरकार झूठ बोलती है। हम कैसे कहें कि हमारी सरकार सच बोलती है। नहीं, हमारी तो कुछ बोलते बोलती ही बंद हो जाती है। फिर सरकार के सामने हमारे कुछ भी बोलने का मतलब ही क्या है। जो कुछ भी हो, मगर भारतीय जाति की बेचैनी कम होने का नाम नहीं ले रही है। हमने सरकारें बदल-बदलकर भी देखा है। हमारा हर बदलाव छूँछी हांड़ी में हाथ डालने जैसा ही साबित हुआ है। जो खो गया है, वह कहीं नहीं मिलता। हाथ हर जगह जाता है।
हमारे सुहाग का चिह्न हमारी झुलनी खो गयी है। सौभाग्य तो है, मगर सौभाग्य का चिह्न खो गया है। हमारे लोकतंत्र के सौभाग्य का चिह्न हमारी सुरक्षा, हमारा स्वास्थ्य, हमारी शिक्षा, हमारे हाथ में नहीं है। हमारे साथ में नहीं है। वह खो गयी है। वह अमेरिका में नहीं, इंग्लैण्ड में नहीं, चीन में नहीं, पाकिस्तान में नहीं खोयी है। यहीं खो गयी है। यहीं अपने घर में ही हेरा गयी है। वह इसी ठाँव कहीं गुम हो गयी है।
अपनी सबसे प्रिय चीज, सबसे बहुमूल्य चीज अपनों के बीच ही खो गयी है। सब तो अपने ही हैं। अपने ही प्रियजन हैं। किससे पूछें? कैसे पूछें? सास-ससुर से, ननद-देवर से पूछने में संकोच होता है। सैंया से पूछते तो लज्जा ही दबोच लेती है। द्वार-आँगन, ढूँढ़ते, कोठे-अटारी ढूँढ़ते हिचक होती है। अपनी सेज पर ढूँढ़ते तो जी एकदम लजा जाता है। समूची भारतीय जाति, समूची भारतीय जनता हलकान है, बेहद। हलकान तो है मगर लज्जित भी है। वह पूछते-पूछते, ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वजा उठती है। तो भी क्या? लज्जा में भी बेचैनी कम कहाँ हो पाती है। तनिक भी कम नहीं होती। कम होने का नाम नहीं लेती है।
कहनेवाले कहते हैं कि आँख फैलाकर देखो न। क्या रौनक है! क्या रंगीनी है, कैसा उजाला है। अब कहनेवालों का क्या। कहना ही जिसका व्यापार है, कुछ भी कहे, कौन रोक सकता है। किसकी जीभ, किस-किस की जीभ कौन पकड़े। फिर जिनको बोलकर ही मालामाल होना है धन से, दौलत से, पद से प्रतिष्ठा से, वे भला किसके रोके रुकनेवाले हैं! जो सब कुछ अपने लिए देख रहा है, उसे भला दूसरे का देखा क्या दिखेगा। नहीं, दिखेगा। कभी नहीं दिखेगा। जो अपने सुख में अंधा है, उसे अँधेरा नहीं दिखता। अभाग नहीं दिखता। खोया हुआ सौभाग्य, सौभाग्य का चिह्न नहीं दिखता। नहीं दिख सकता है। सावन के अंधे को जनतंत्र लजा रहा है। जनता लजा रही है. चारों तरफ बाजा बज रहा है। बधावा बज रहा है। उत्सव की तैयारी चल रही है। जिसे सुनना है सुन नहीं रहा है। किससे पूछें?