— विनय भारद्वाज —
मधु लिमये का नाम लेते ही एक सौम्य, गरिमामय, ओजस्वी व बेहद आकर्षित करनेवाली सादगी के व्यक्तित्व की छवि मन और दिमाग पर छा जाती है– 1970 के दशक में उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में आमंत्रित वक्ता, विभिन्न राजनीतिक मंचों से उनके ओजस्वी विचार व उनके वैस्टर्न कोर्ट के आवास पर उनके पास बैठकर उन्हें सुनना एक स्वप्न जैसा लगता है। एक शांत दिखनेवाला व्यक्ति कितने स्तर पर वैचारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक व संस्थागत चुनौतियों का सामना करते हुए भी खान-पान, संगीत की बारीकियों को समझकर अपने इर्द-गिर्द सहज व आनंदमय वातावरण कैसी खूबी से गढ़ लेता था– यह चमत्कार केवल महसूस ही किया जा सकता था मधु जी की संगति में बैठकर व उन्हें सुनते हुए।
गांधी, लोहिया की वैचारिक विरासत को अपनी संपूर्णता में समझते हुए मधु लिमये उन बिरले राजनीतिज्ञों व विचारकों में से हैं जिन्होंने समाजवादी सोच की शुचिता, उसकी दूरदर्शिता व उसके ‘सार’ को न केवल एक पैनी धार दी ताकि समकालीन वैचारिक ‘प्रतिद्वंद्वी’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक स्पष्टवादिता के साथ मुकाबला किया जा सके। इस अर्थ में मधु लिमये न केवल समाजवादी चिंतक बल्कि स्वतंत्र भारत के राजनीतिक पटल पर एक बहुत प्रखर, मुखर व भविष्य की संभावनाओं को समझने व उसके खतरों से सबको आगाह करनेवाले मार्गदर्शक के रूप में उभरते हैं। जिस साफगोई से उन्होंने स्वाधीन भारत के सामने प्रस्तुत चुनौतियों को उनके राजनीतिक ढाँचे में देखा वे आज हमारे सामने विकराल भयावह रूप में मौजूद हैं। याद कीजिए, मधु लिमये बिना किसी लाग-लपेट के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने विरोध को किन मुद्दों पर बहुत मुखर होकर कह रहे थे। राष्ट्रवाद की परिभाषा व उसमें हर नागरिक का स्थान! लोकतांत्रिक गणतंत्र में समता, सहभागिता, सहयोग व विभिन्नताओं व विविधताओं की समावेशी कार्य-प्रणाली व आचरण।
हिंदू राष्ट्र व हिन्दुत्व प्रधान राजनीतिक व सामाजिक दर्शन का विरोध जिसमें मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी विचार तथा मतों के प्रति अनादर व तिरस्कार। जातिव्यवस्था-जनित शोषण व भेदभावपूर्ण असमानता। जन-भाषाओं तथा स्थानीय भाषाओं पर संस्कृतजनित हिंदी का प्रभुत्व व राजनीतिक सत्ता के केंद्रीयकरण का विरोध।
मधु जी का जनसंघ व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखर विरोध मेरी दृष्टि में समाजवादी तथा हिंदुत्ववादी विचारधारा के बीच एक तीखे सभ्यतागत व वैचारिक टकराव की एक पैनी और दूरदर्शी तथा भविष्यमुखी दृष्टि से जन्मा था, जो उसके खतरों को समझता था, उससे चिंतित था व उससे एक शांतिपूर्ण किंतु लंबे वैचारिक संघर्ष की तैयारी के लिए देश के समाजवादी मूल्यों व विरासत में आस्था रखनेवालों को तैयार करना चाहता था।
कोई भी समाज और राष्ट्र विचारधाराओं व परस्पर विरोधी विचारों के आपसी टकराव तथा संघर्ष से नहीं बच सकता। मधु लिमये की वैचारिक विरासत हमें इस वैचारिक संघर्ष में समाजवादी कहाँ तक पहुँचे, कहाँ चूक गए, कहाँ वे निष्प्रभावी, दुर्बल हुए इस पर सोचने व मौजूदा परिस्थितियों के संदर्भ में हमें सोचने, विचार करने तथा सामर्थ्यानुसार उनकी चुनौती का सामना करने के लिए प्रेरित करती है।