(कल प्रकाशित ‘आंबेडकर की पत्रकारीय विरासत’ का दूसरा हिस्सा)
— प्रबोधन पॉल —
मूकनायक और बहिष्कृत भारत में हिंदू धर्म, हिंदू धर्मग्रंथों और हिंदू समाज की आलोचना करते हुए जाति के द्वारा विभाजित समाज की समस्याओं पर चर्चा की जाती थी। इन दोनों अखबारों में जाति के सवाल पर उदासीन रहने के कारण दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों की भी आलोचना की जाती थी और कांग्रेस की भी।
मूकनायक के जरिए आंबेडकर यह तर्क देते थे कि सामाजिक विभेदों को दंभपूर्वक नजरअंदाज करके राष्ट्रवादी चेतना का विकास नहीं किया जा सकता। उन्होंने हिंदू समाज की तुलना एक बहुमंजिली मीनार से की, जिसमें एक मंजिल को दूसरी मंजिल से जोड़ने के लिए कोई सीढ़ी नहीं है।
यहाँ मीनार का रूपक हिंदू समाज के लिए है और अलग-अलग मंजिल का रूपक अलग-अलग जाति के लिए। उनका तर्क था कि ऐसा समाज, जो विभिन्न व्यक्तियों के लिए बहुत सारे दूसरे लोगों से घुलने-मिलने के अवसर बंद कर देता है, राष्ट्रीय एकता की राह में रोड़ा है। ऐसा समाज केवल उदासीनता, ऊँच-नीच और हिंसा को ही बढ़ावा दे सकता है, ऐसे समाज में राष्ट्रीय एकता की भावना के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
1920 का दशक दलित आंदोलन के लिए रैडिकल रूपांतरण का दशक था। पश्चिम भारत में दलित लोक राजनीति ने इसी दशक में आकार लिया था, दलितों की पीड़ा को प्रभावी राजनीतिक और सांगठनिक भाषा में उतारकर। 1927 के महाड आंदोलन से पश्चिम भारत में एक सशक्त लोक राजनीति का उभार हुआ। महाड आंदोलन में हिंसा झेलने के बाद ही आंबेडकर ने यह कहना आरंभ किया कि दलितों को हिंदू समुदाय से अलग गिना जाए। उनका कहना था कि चूंकि दलितों को हमेशा सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोका गया है और वे निरंतर ऊँची जातियों की हिंसा के शिकार बनते रहे हैं, इसलिए ऊँची जातियों और अछूतों के बीच सामंजस्य नहीं हो सकता। बहिष्कृत भारत के एक अन्य संपादकीय में उन्होंने लिखा कि हिंदू समाज पारस्परिक मेल-मिलाप और भाईचारा के मूलभूत सामाजिक मानदंडों को लागू करने में अक्षम है। उनका तर्क था कि सामाजिक समानता का अभाव जातिगत हिंसा की ओर ले जाता है।
हिंसा का सवाल न केवल बहिष्कृत भारत के लिए बल्कि बाद में निकले जनता तथा प्रबुद्ध भारत जैसे पत्रों के लिए भी काफी गौरतलब विषय रहा। इन पत्रों ने पश्चिम भारत में दलितों पर होनेवाली हिंसा की घटनाओं की खबरें तथा प्रमाण प्रकाशित किये। 1920 के दशक के उत्तरार्ध में बहिष्कृत भारत ने जातिगत हिंसा के खिलाफ जनमत बनाने में काफी अहम भूमिका निभायी। यह दर्शानेवाले प्रमाणों की कमी नहीं कि बहिष्कृत भारत में आंबेडकर के लिखे कुछ महत्त्वपूर्ण अग्रलेखों का दलितों की बैठकों-सभाओं में सार्वजनिक रूप वाचन किया गया था। संपादक के तौर पर उनकी कुशलता और उनकी प्रभावी संप्रेषणशीलता साफ जाहिर थी। दलितों की दुर्दशा को परिभाषित करते हुए आंबेडकर उस हिंसा की शिनाख्त करना कभी नहीं भूलते थे जो हमारे सामाजिक ढाँचे की देन है। और उनकी इस बात ने पश्चिम भारत में दलितों को एकजुट करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
1927 में जो मुद्दे महाराष्ट्र के सावर्जनिक पटल पर छाये हुए थे उनमें एक मुद्दा एक अंतरधार्मिक विवाह का था, जिसमें लड़की हिंदू थी और लड़का मुसलिम। वह लड़की और कोई नहीं बल्कि प्रसिद्ध विद्वान आर.जी. भंडारकर की पोती थी। उसके विवाह का मराठी अखबारों ने, खासकर जो पूना से प्रकाशित होते थे, जमकर विरोध किया। उस विरोध के जवाब में आंबेडकर ने बहिष्कृत भारत में एक जोरदार संपादकीय लिखा, उस विवाह का पक्ष लेते हुए।
आंबेडकर का कहना था कि हमारे समाज को अंतरधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहित करना चाहिए, क्योंकि यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपसी भरोसा बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा। अंतरधार्मिक विवाह के विरोधियों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा कि विवाह एक निजी मामला है, इसमें दूसरों को टाँग नहीं अड़ाना चाहिए।
1920 के दशक में हिंदू-मुसलिम टकराव पहले ही राजनीति के चरित्र को प्रभावित कर रहा था, खासकर बंबई प्रेसिडेंसी में। उसी दौर में वी.डी. सावरकर ने हिंदू राष्ट्र की अपनी कल्पना पेश की थी। शुद्धि और संगठन को लेकर उस समय के मराठी अखबारों में गर्मागर्म चर्चाएँ होती थीं। इस ध्रुवीकृत माहौल में अनेक मराठी अखबारों ने मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई छेड़ने के आह्वान का समर्थन किया था। कई राष्ट्रवादी कहे जाने वाले अखबारों ने भी उनके सुर में सुर मिलाया था।
1930 के दशक तक हिंदू धर्म को लेकर आंबेडकर का तेवर आलोचनात्मक तो था, पर रुख सुधार का था। लेकिन 1929 में जलगाँव के पाँच हजार दलितों ने सामूहिक रूप से हिंदू धर्म छोड़ने की धमकी दी, जिससे धर्मान्तरण को लेकर एक भारी बहस खड़ी हो गयी। आंबेडकर ने, बहिष्कृत भारत में, जलगाँव के दलितों की हिमायत की और उनसे इस्लाम धर्म अपनाने को कहा। उनका तर्क था कि इस्लाम समानता की वकालत करता है, उसे आचरण में भी उतारता है, इससे दलितों को वहाँ सामंजस्य बिठाने में आसानी होगी। उन्होंने बहिष्कृत भारत में इस्लाम के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी देनेवाली एक लेखमाला भी शुरू की।
1920 के दशक ने महात्मा गांधी का उभार भी देखा। गांधी के बारे में इस दशक में आंबेडकर की धारणा बाद के दशकों में बनी उनकी राय से भिन्न थी, क्योंकि दोनों का तब तक राजनीतिक तौर पर आमना-सामना नहीं हुआ था। दोनों की प्रसिद्ध मुलाकात गोलमेज सम्मेलन में हुई थी। हालांकि आंबेडकर 1920 के दशक में भी गांधी के साथ संवाद में सतर्क रहा करते थे, लेकिन गांधी की राजनीति को लेकर उनका रुख सकारात्मक था।
मूकनायक और बहिष्कृत भारत में छपनेवाले लेखों व टिप्पणियों में गांधी का जिक्र आता रहता था। आंबेडकर के संपादकीयों में मूकनायक ने गांधी के द्वारा शुरू किये गये असहयोग आंदोलन का विरोध किया था लेकिन ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता के विरोध में बोलने का साहस दिखाने के लिए उनकी प्रशंसा की थी।
मूकनायक के संपादकीयों में इस बात पर उम्मीद जतायी गयी थी कि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी कर रहे हैं। छुआछूत समाप्त करने पर गांधीका बहुत जोर था और इस बात ने राजनीति में बदलाव की आशा जगायी थी। 1927 में दलित लोक राजनीति के आरंभ के साथ ही गांधी के बारे में आंबेडकर की राय आलोचनात्मक, और ज्यादा आलोचनात्मक होती गयी। बहिष्कृत भारत में आंबेडकर की टिप्पणियों में दलितों के प्रति गांधी के संरक्षणवादी रवैये और वर्णव्यवस्था पर उनके नजरिये की कड़ी आलोचना की गयी थी।
लेकिन इसके साथ ही, गांधी की ईमानदारी, शुचिता और उनके सदाचार की प्रशंसा की गयी थी। गांधी की बाबत की गयी अपनी टिप्पणियों में आंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया था कि गांधी को जाति तथा अस्पृश्यता के सवाल को हल करने में अपने करिश्मे का उपयोग करना चाहिए। 1930 के दशक के आरंभ में आंबेडकर राष्ट्रीय पटल पर एक बहुत महत्त्वपूर्ण शख्सियत बन गये। 1930 के दशक में गांधी और कांग्रेस के साथ उनके रिश्तों के नया आयाम खुला, जो कि 1920 के दशक में पूरी तरह नदारद था।
संपादक के तौर पर आंबेडकर का कार्यकाल भले छोटा लेकिन वह काफी महत्त्वपूर्ण रहा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के उनके संपादकत्व ने लोकोन्मुखी नयी राजनीति का स्वर निर्धारित करने में महती भूमिका निभायी। न केवल दलितों को एकजुट करने में बल्कि उनके नेतृत्व को स्थापित करने में भी उनके तर्क काफी सहायक सिद्ध हुए।
एक बार फिर आंबेडकर परिदृश्य के केंद्र में आ गये हैं, राजनीतिक रूप से भी और बौद्धिक रूप से भी। लिहाजा यह और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम उनकी पत्रकारीय विरासत को याद करें। उनकी पत्रकारिता ने न सिर्फ उनकी रैडिकल राजनीति को, बल्कि पेशेवर ईमानदारी में उनके दृढ़ विश्वास को भी प्रतिबिंबित किया।