उसूलों के पक्के थे मधु लिमये

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)


— हिम्मत सेठ —

वैसे तो एक मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस होने के चलते बहुत बड़ा त्योहार है और पूरे विश्व में उत्सव की तरह मनाया भी जाता है। समाजवादियों के लिए एक मई का महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इसी दिन प्रखर समाजवादी चिन्तक एवं नेता, जिनकी प्रसिद्धि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है, आदरणीय मधु लिमये जी का जन्म हुआ। इस वर्ष एक मई विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि मधु जी की जन्म शताब्दी वर्ष है।

मधु लिमये से मेरा कभी साक्षात्कार नहीं हुआ इसे मैं अपना दुर्भाग्य मानता हूँ। हाँ, मैंने उनको बड़ी-बड़ी आमसभाओं में सुना और उनके बारे में पढ़ा भी है। वैसे तो 1968 में जब हिंदुस्तान जिंक की यूनियन ने हिंद मजदूर पंचायत से नाता जोड़ा तब से ही जॉर्ज फर्नांडिस के साथ बातचीत में मधु जी के बारे में बहुत जानने-समझने का अवसर मिला। 1977 में जनता पार्टी के शासन में आने के समय जब मधु जी ने मंत्रिपद स्वीकार करने से मना किया तब तक हम मधु जी को बहुत कुछ जान चुके थे।

1976 में, जेल में रहते, मधु जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष बढ़ाने के इंदिरा गांधी के फैसले का विरोध किया। किसी भी गलत बात से समझौता करना मधु जी को कतई गवारा नहीं था।

मधु जी ने अपने कर्म और विचार से, हजारों ही नहीं लाखों युवाओं को समाजवाद के विचार से जोड़ने का काम किया। इससे भी अधिक युवाओं को समाजवाद, राष्ट्रवाद, अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद और साम्यवाद के मुलम्मे पर रोशनी डालकर भ्रम में फँसे लोगों को वास्तविकता से अवगत कराया। देशप्रेम का जज्बा इतना जबर्दस्त था कि अपने कॉलेज के दिनों में 1939 में जब विश्वयुद्ध छिड़ गया था और अंग्रेज सरकार युवाओं को अंग्रेजों की तरफ से लड़ने के लिए सेना में भर्ती कर रही थी तथा पैसा भी इकट्ठा कर रही थी तो उस समय देश के कुछ संगठन खास तौर से सावरकर की हिंदू महासभा तथा गुरु गोलवरकर का आर.एस.एस. के लोग अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने के लिए अंग्रेजों की दलाली करते हुए फार्म भरवा रहे थे। मधु लिमये ने अपने साथियों के साथ संकल्प लेते हुए कहा कि न एक सैनिक और न एक पैसा अंग्रेजों की मदद के लिए देंगे न अंग्रेजों की तरफ से लड़ेंगे। इस युद्ध से भारत का कोई वास्ता नहीं है। कम्युनिस्ट साथियों का रूस और ब्रिटेन की दोस्ती के बाद अंग्रेजों की मदद करना भी पसंद नहीं आया। 

मधु जी 1940 में कॉलेज में पढ़ते हुए ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव हो गये थे। 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिगत रहते हुए काम किया और अंग्रेजों द्वारा पकड़े जाने पर जेल गये।

मधु जी आंदोलन और संघर्ष में जितना व्यस्त रहते थे उतना ही लेखन और अध्ययन में भी। 1952 में ही उनकी एक पुस्तक कम्युनिस्ट पार्टी की कथनी और करनी का भेद उजागर करते हुए प्रकाशित हुई। वे कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधी होने के बावजूद कभी अमरीका के पक्षधर नहीं रहे। वे वास्तव में लोकतांत्रिक समाजवादी विचारक थे और जीवन भर रहे।

आंदोलनकारी तो वे 17 साल की आयु से ही हो गय़े थे। उन्होंने 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन चलाया। जब भारत आजाद हो गया, हमारा संविधान बन गया तो उन्हें लगा कि गोवा पर पुर्तगाली शासन क्यों रहे। गोवा मुक्ति के लिए संघर्ष की शुरुआत तो डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1946 में ही कर दी थी। मधु जी को पुर्तगाल सरकार ने 13 साल की  जेल की सजा सुनायी।

1963 में डॉ. राममनोहर लोहिया उपचुनाव जीतकर संसद में पहुँचे तो 1964 में मुंगेर से उपचुनाव जीतकर मधु लिमये ने भी लोकसभा में पहुँचकर अपनी संसदीय पारी की शुरुआत की। संसद में भी मधु जी के वक्तव्यों ने खूब धूम मचाई, विशेषकर उस समय के भ्रष्टाचार और जनता की खुली लूट के कई मामले संसद में उठाये। तथ्यात्मक बहस की और सरकार को कठघरे में खड़ा किया। 1967 में भी मुंगेर से चुनाव जीते लेकिन 1971 में इंदिरा गांधी की आँधी में बड़े-बड़े दिग्गज चुनाव हार गये। उस समय भारत-पाकिस्तान युद्ध का ज्वर चढ़ा हुआ था और इंदिरा गांधी ने दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश नाम के एक और देश को आकार दे दिया था। उसका असर चुनाव में पड़ना ही था।

लेकिन दो साल बाद ही 1973 में बांका से उपचुनाव जीत कर मधु लिमये ने संसद में फिर कदम रखा। 1964 में ही डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया और पार्टी सम्मेलन में प्रस्ताव रखा। मधु लिमये हमेशा पार्टी के बड़े पदों पर रहे। उनमें लोगों को संगठन से जोड़ने की शक्ति गजब की थी। मधु जी कांग्रेस के विरुद्ध तो थे लेकिन आरएसएस और जनसंघ को साथ लेने के इच्छुक नहीं थे। उन्होंने डॉ. लोहिया को दृढ़ता के साथ अपने विचार बता दिये। डॉ. लोहिया इस बात को जानते थे कि मधु जी को जब तक इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं किया जाता तब तक आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उन्होंने मधु जी से बहस करने के बजाय भावुकता से काम लिया और कहा कि मुझे लगता है हम सबको साथ लेकर ही वोट बँटने को रोक सकेंगे और कांग्रेस को हरा सकेंगे। उन्होंने कहा, यह कोई सिद्धांत नहीं है। इसे एक रणनीति के रूप में अपनाकर देखते हैं। तुम्हें मुझ पर भरोसा करना चाहिए।

मधु लिमये, लोहिया के सामने निरुत्तर हो गये और मौन रहे। 1967 में परिणाम आशा अनुरुप आए। आठ प्रदेशों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बन गयीं। लेकिन गैर-कांग्रेसवाद के जनक डॉ. लोहिया का 6 माह में ही अवसान हो गया। मधु जी ने रेल हड़ताल और जेपी आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपातकाल में जेल गये। लोकसभा से त्यागपत्र दिया और जनता पार्टी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1977 में जीते, तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के आमंत्रण और मान-मनौवल के बाद भी मंत्रिपद स्वीकार नहीं किया। सत्ता से दूरी बनाये रखी और जनता के बीच में लगातार बने रहे।

यह मधु लिमये की दूरदृष्टि थी कि भाजपा के चलते देश में जो हालात अब बन रहे हैं उनसे 1980 के दशक में ही बचा लिया। मधु लिमये ने जब देखा कि आरएसएस और जनसंघ के नेता येन-केन-प्रकारेण पूरी पार्टी पर काबिज होना चाहते हैं और उन चारों राज्यों में, जहाँ लोकदल घटक के मुख्यमंत्री थे, विश्वास का मत प्राप्त करो के नारे के साथ अपने लोगों को मुख्यमंत्री-पद पर बिठाने की नापाक कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने चरण सिंह जी को अपनी बात समझाई और सौ से ज्यादा सांसदों के साथ पार्टी से अलग हो गये। सरकार गिर गयी। सरकार टूटने के साथ ही आरएसएस की योजना भी विफल हो गयी। 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी सत्ता में आयीं। 1980 में चुनाव हारने और स्वास्थ्य ठीक न रहने कारण मधु जी सक्रिय राजनीति से हट गये। लेकिन 1982 के बाद भी लगातार जनता पार्टी और लोक दल के विलय के लिए प्रयास करते रहे। आगे चलकर जनता दल बना।

मधु जी सक्रिय राजनीति से अलग हो गये लेकिन देश की जनता की सेवा और कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में तत्कालीन परिस्थितियों पर लेख लिखे, इसी दौरान कई पुस्तकें भी लिखी जिसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर पर लिखी किताब विशेष है। मधु जी के व्यक्तित्व और कर्म से प्रेरणा लेने की और भी बहुत सी बातें हैं।

उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन स्वीकार नहीं की। उनका मानना था कि देश को आजाद कराना हमारा कर्तव्य था। किसी के कहने से ये कार्य नहीं किया। हम अपनी इच्छा से आंदोलन में कूदे। पेंशन किस बात की? चार बार सांसद रहने के बाद भी उन्होंने सांसद की पेंशन नहीं स्वीकार की। दो कमरों के मकान में जिंदगी भर रहे। उनके घर एयर कंडीशन की तो छोड़ो कूलर और फ्रिज भी कभी नहीं रहे। उसूलों के पक्के, अपरिग्रही, अहिंसावादी, हथियार विरोधी थे मधु लिमये। उन्हें शत्-शत् नमन एवं श्रद्धांजलि।


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