मप्र में पुजारियों के लिए मानदेय की घोषणा का मतलब क्या है

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— डॉ सुनीलम —

भारत में मंदिरों की कुल संख्या लगभग 10 लाख है और मंदिरों के पास भारत सरकार के बजट के बराबर यानी करीब 35 लाख करोड़ की पूंजी है।

इस पृष्ठभूमि में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा पुजारियों को पॉंच हजार रुपए प्रतिमाह मानदेय देने की घोषणा की गयी है। कांग्रेस की सरकार ने 2019 में मानदेय 3 गुना बढ़ाकर तीन हजार रुपए किया था। सभी अखबारों ने टिप्पणी की है कि मानदेय बढ़ाने का काम प्रदेश के पच्चीस हजार पुजारियों तथा ब्राह्मणों की 10 फीसद आबादी को आगामी विधानसभा चुनाव के लिए साधने की दृष्टि से किया गया है।

आपको याद होगा उत्तर प्रदेश में चुनाव के पहले इसी तरह ब्राह्मणों को लुभाने की तमाम घोषणाएं की गयी थीं।

जब से मैंने यह समाचार पढ़ा है, मेरे जेहन में तमाम सवाल उठ रहे हैं। पाठकों के साथ वही सवाल साझा करना चाहता हूं। इस निवेदन के साथ कि वे इस मुद्दे की गंभीरता को समझें । बहुजन संवाद यू ट्यूब चैनल पर 4 मई को शाम 6 बजे इसी विषय पर कुछ विद्ववानों के साथ चर्चा भी की है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार जो मुख्य तौर पर जनता के टैक्स के पैसे से चलती है, उसके संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार किसका है?

मुझे लगता है कि निःशक्तों, वंचितों, गरीबों, विधवा महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समूहों का सबसे पहला अधिकार होना चाहिए।ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों में स्प्ष्ट किया है। समाज में ऐसे सर्वाधिक जरूरतमंद लोगों को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 600 रुपये मासिक पेंशन दी जा रही है। वह भी सभी को नहीं। ऐसी स्थिति में 8 गुना मानदेय पुजारियों को देना सरकार की भेदभावपूर्ण नीति का परिचायक है। किसानों को भी सालाना 6 हजार रुपये देने का दावा सरकार करती है लेकिन गत 3 वर्षों में कुल 18 हजार किसी भी किसान को अभी तक नहीं मिला है।

दूसरा सवाल यह है कि क्या राष्ट्र-राज्य (स्टेट) का कोई धर्म होता है? भारत संविधान द्वारा संचालित है , जिसमें सभी धर्म एक समान हैं, ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा जो मानदेय पुजारियों को दिया जाने वाला है, क्या वह सभी धर्म के पूजा पाठ करने वाले माननीयों को दिया जाएगा? मौलाना, पादरी, ग्रंथी, आदिवासियों के भगत, बौद्ध समुदाय के भंते सहित? क्या सरकार केवल हिंदू पुजारियों को मानदेय देने की घोषणा कर भारत के संविधानिक प्रावधानों की अवहेलना तथा अन्य धार्मिक समूहों के साथ भेदभाव नहीं कर रही है?

अर्थात मध्यप्रदेश सरकार की यह घोषणा क्या भेदभावपूर्ण एवं असंवैधानिक नहीं है? क्या इस तरह की घोषणाओं पर रोक लगाने का काम भारत का उच्चतम न्यायालय करने की हिम्मत दिखलाएगा? क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति इसमें कानून प्रदत्त हस्तक्षेप करने के लिए आगे आएंगे?

भारतीय समाज में जब से जाति व्यवस्था चल रही है, तब से पुजारी कैसे गुजर-बसर कर रहे थे? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है?यह स्पष्ट है कि धर्म में विश्वास रखनेवाले आम लोग पुजारियों की व्यवस्था कर रहे थे। कई जगह इसे जजमानी प्रथा के तौर पर भी जाना जाता है। सरकार यदि यह मानती है कि पुजारियों की आर्थिक स्थिति खराब है तो क्या यह माना जाए कि समाज में पुजारियों के प्रति आस्था कम या खत्म हो गयी है कि उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार को आगे आना पड़ रहा है? या इन पूजारियों को सरकार के सामने हाथ फैलाने को मजबूर होना पड़ रहा है?

यह सर्वविदित है कि मंदिरों में जो चढ़ावा आता है उससे पुजारियों का घर-परिवार हजारों साल से चलता रहा है। मंदिरों के आनेवाले चढ़ावे पर कई जगहों पर मंदिर के प्रबंधकों का कब्जा होता है। प्रबंधकों द्वारा पुजारियों को मानदेय दिया जाता है।

चौथा सवाल यह खड़ा होता है कि पुजारी कौन और किस जाति का होगा? जवाब है कि पुजारी ब्राह्मण होगा। इसमें सवाल यह है कि दूसरी जाति का व्यक्ति यदि वह धर्म का जानकार है तो, वह पुजारी क्यों नहीं हो सकता? सरकार द्वारा जिस तरह नौकरियों में और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया जाता है वह पुजारियों के लिए लागू क्यों नहीं होता?

भारत सरकार या राज्य सरकार की नीतियां तो सभी नौकरियों में लागू होनी चाहिए।

महिलाओं को पुजारी क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? यहां यह भी सवाल महत्त्वपूर्ण है कि क्या सरकार समाज के कर्मकांड, पोंगापंथ, अंधविश्वास को बढ़ावा देने का काम अपने इस कदम से नहीं कर रही है?

पॉंचवॉं सवाल यह है कि यदि सरकार मानदेय देती है तो क्या मंदिर में श्रद्धालुओं द्वारा दान दिया जानेवाला चढ़ावा सरकार के खाते में जमा नहीं होना चाहिए?
मेरी यह मान्यता है कि सरकार को सभी धार्मिक स्थलों का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए। उसकी संपत्ति तथा पूंजी का इस्तेमाल देश की शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतों को पूरा करने में किया चाहिए। यह हो सकता है कि उस पूंजी से प्राप्त होने वाले ब्याज को सरकार मंदिरों के रखरखाव और पुजारियों को मानदेय देने के लिए खर्च करे लेकिन जनता के टैक्स के पैसे का इस्तेमाल पुजारियों को मानदेय देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने इस मुद्दे पर गम्भीर पहल की है। उसने पुजारियों की भर्ती में सभी जातियों के बेरोजगारों को पात्रता प्रदान कर दी है। अर्थात जाति विशेष की जगह सभी जातियों के लिए भर्तियां खुली कर दी गयी हैं। परीक्षा के माध्यम से पुजारियों का चयन किया जाएगा। तमिलनाडु के इस मॉडल को देश भर में लागू किया जाना चाहिए।

फिलहाल तो भाजपा सरकार ने जो घोषणा की है उसका उपयोग आरएसएस के कार्यकर्ताओं के पुनर्वास के लिए किया जाएगा। और आरएसएस के शक्ति केंद्र मंदिरों से संचालित होंगे।

यह लेख इस मुद्दे पर बहस खड़ी करने के उद्देश्य से लिखा गया है। आप अपनी टिप्पणी जरूर लिखिएगा।

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