— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
कल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना की अध्यक्षता में गठित तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ब्रिटिश साम्राज्य के अवशेष के रूप में स्वतंत्र भारत में विद्यमान भारतीय दंड संहिता की राजद्रोह से संबंधित धारा 124 ए को तब तक के लिए स्थगित करने का ऐतिहासिक आदेश सुनाया जब तक कि संघ की सरकार (केंद्र सरकार) उसकी समीक्षा पूरी न कर ले ! यह अंतरिम आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने 2021 में दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुनाया जिसमें इस औपनिवेशिक जमाने के काले कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी है। जस्टिस रमना, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सूर्यकांत के पीठ ने अपने आदेश में यह भी कहा कि इस धारा के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारें आगे कोई केस दर्ज न करे। कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि इस धारा के लंबित मुकदमे में जेलों में बंद आरोपी जमानत के लिए संबंधित अदालतों में अपील करें।
हालांकि पहले केंद्र सरकार किसी जनहित याचिका की सुनवाई के आधार पर इसकी संवैधानिकता की जाँच का ही विरोध कर रही थी किंतु न्यायाधीशों के इस कानून के प्रति कड़े रुख का अनुमान कर पिछले सोमवार को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पैंतरा बदला और न्यायालय को संघ सरकार (केंद्र सरकार) के द्वारा इस कानून की समीक्षा करने के निर्णय से अवगत कराया। साथ ही संघ सरकार की ओर से सर्वोच्च न्यायालय से यह अपील की कि जब सरकार इस कानून की समीक्षा करने को तैयार है तो इस कानून पर तत्काल रोक नहीं लगायी जाए किंतु न्यायाधीशों ने केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए इस कानून पर रोक लगाने का अंतरिम फैसला सुना दिया।
इतना ही नहीं, न्यायाधीशों ने केंद्र सरकार से अदालत में किये वायदे के अनुसार जल्द ही इस कानून की समीक्षा करने के कार्य को पूरा करने को कहा। जुलाई के तीसरे सप्ताह में सर्वोच्च न्यायालय याचिका पर अगली सुनवाई करेगा।
जनतंत्र का घुटता दम
देश के सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के राजद्रोह कानून 124 ए की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली कई याचिकाएं दायर की गयी थीं। इनमें से एक याचिका को स्वीकार करते ही मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने राजद्रोह कानून जैसे विवादास्पद कानून पर तब ऐसी टिप्पणी की थी जो स्वयं इस कानून के औचित्य पर सवाल उठाती थी। उन्होंने कहा था कि राजद्रोह कानून एक औपनिवेशिक कानून है और ब्रिटिश हुकूमत ने भारत की स्वतंत्रता का दमन करने के लिए इसका इस्तेमाल किया था। आगे उन्होंने यह सवाल भी उठाया था कि आज 75 वर्षों की आजादी के बाद क्या इस कानून की जरूरत है?
हालांकि मामला उच्चतम न्यायालय में था और वक्त आने पर अदालत को इस काले कानून की संवैधानिकता पर अपना फैसला सुनाना था किंतु जस्टिस रमना के द्वारा उठाया गया प्रश्न आज की सरकार से था क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार को ही याचिका की सुनवाई के दौरान इस प्रश्न का उत्तर देना था। लेकिन जस्टिस रमना की टिप्पणी से दो बातें साफ दिखाई देती थीं- पहला, यह कानून ब्रिटिश साम्राज्य की विरासत है जिसका इस्तेमाल ब्रिटिश हुकूमत ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए किया अर्थात यह कानून स्वतंत्रता विरोधी है और इसका उद्देश्य दमन करना था जिसका प्रयोग बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों के खिलाफ किया गया,और सजा दी गयी। दूसरा, स्वतंत्रता के बाद ऐसे कानूनों का कोई औचित्य नहीं था।
फिर यह सवाल स्वभाविक रूप से उठता है कि आखिर आजादी के बाद ब्रिटिश राज के इस काले कानून की विरासत को क्यों सम्हाल कर रखा गया…. देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में नेहरू की सरकार से लेकर बाद की सरकारों ने साल 1860 में बने तथा 1870 में संशोधित इस काले कानून को आजाद भारत के भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की शोभा बनाकर क्यों रखा? इतना ही नहीं, यह कानून सिर्फ सजावट की वस्तु बनकर नहीं रहा बल्कि समय-समय पर इस काले कानून का सरकारों ने नागरिकों की विचार और अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता और असहमति के लोकतांत्रिक अधिकार को दबाने के लिए इस्तेमाल भी किया। इसका अर्थ यह है कि स्वतंत्र भारत की चुनी हुई जनतांत्रिक सरकारों ने संवैधानिक प्रावधानों तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ काम किया।
इतना ही नही, यह भी सच है कि चुनी हुई सरकारों ने समय-समय पर ऐसे अनेक कठोर कानूनों का निर्माण किया जो कहने के लिए तो ऐसे कानून अलगाववाद या आतंकवाद की संगठित हिंसक चुनौतियों से निपटने के लिए और भारतीय राज्य की सुरक्षा तथा संप्रभुता की रक्षा के लिए बनाये गये किंतु यदि आजादी के बाद इन कानूनों के दुरूपयोग का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि ये काले कानून सरकारों के हाथ में नागरिकों के जनतांत्रिक प्रतिरोध को दबाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल हुए।
ब्रिटिश सत्ता तो औपनिवेशिक भारतीय राज्य को हर हालत में अपने अधीन बनाये रखना चाहती थी और उसके लिए दमन के काले कानून उसके हथियार थे। स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास साक्षी है कि राजद्रोह के कानून से लेकर रौलट ऐक्ट जैसे अनेक काले कानून ब्रिटिश राज के दमन के औजार थे जिसका इस्तेमाल अंग्रेजी हुकूमत ने निर्ममतापूर्वक किया। लेकिन जनतंत्र तो,कानून का शासन है और जनतंत्र में किसी भी कानून का उद्देश्य सरकार को शक्तिशाली बनाना नहीं बल्कि नागरिक के जीवन की सुरक्षा, उसकी स्वतंत्रता का विकास और विस्तार तथा मनुष्य मनुष्य के बीच समाज, धर्म या राज्य निर्मित भेदभाव व असमानता को दूर कर उसके आर्थिक विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना है। किसी सरकार को अपने नागरिक से सुरक्षा के लिए कठोर, अनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता विरोधी कानून की यदि आवश्यकता होती है तो इसका अर्थ है सरकार को अपनी नीतियों के लिए जन समर्थन कम हो रहा है या शासन की वैधता में कमी आ रही है।
जनतंत्र में नियमित निर्वाचन सरकार को प्राप्त जन समर्थन तथा उसे प्राप्त वैधता को नापने का लोकतांत्रिक पैमाना है। सामान्यतः जनतंत्र में सरकार अपनी नीतियों की विफलता से जब जन समर्थन खोने लगती है तो दमन का रास्ता चुनती है और तब जन-असंतोष और जनाक्रोश को दबाने के लिए या तो कठोर कानून का निर्माण करती है या पूर्व से बने कठोर कानून का सहारा लेती है और सरकार अधिनायकवाद की राह पर चल पड़ती है। सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश वी रमना ने एक स्मारक-व्याख्यान में कहा था कि निर्वाचन का होना ही जनतंत्र की गारंटी नहीं है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जनतंत्र महज चुनाव नहीं है। जनतंत्र में तंत्र में जन-विश्वास जरूरी है और इसके लिए ऐसे कानूनों का निर्माण जरूरी है जो लोकतंत्र में जन-विश्वास को निरंतर बढ़ाएं।
जनतंत्र में सरकार से असहमति या उसकी नीतियों या राजनीतिक फैसलों का शांतिपूर्ण प्रतिरोध जनता की सजगता और राजनीति में उसकी सहभागिता को उजागर करता है इसलिए सरकार द्वारा इसे राजद्रोह कहना या लगातार ऐसे कानून का प्रयोग जनतंत्र में सरकार के प्रति घटते विश्वास का प्रतीक है।
पिछले कुछ सालों में देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, समाज के वंचितों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं के मानवाधिकारों के लिए लड़नेवालों के विरुद्ध ऐसे कानूनों का दुरुपयोग काफी बढ़ गया है। इतना ही नहीं, मोदी सरकार के द्वारा धार्मिक आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनियम लाया गया और समान नागरिकता के विरोधी इस कानून का शांतिपूर्ण प्रतिरोध करनेवालों के खिलाफ इसका बेतहाशा दुरुपयोग किया गया।
सजा की दर तीन प्रतिशत से भी कम
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की राजद्रोह की धारा 124ए हमेशा से भारत में विवादास्पद रही है। ब्रिटिश औपनेवेशिक काल की विरासत के रूप में स्वतंत्र भारत में यह काला कानून राज्यसत्ता के द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल होता रहा है। यद्यपि इस कानून की संवैधानिकता को स्वतंत्र भारत में लगातार चुनौती मिलती रही। पंजाब और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों ने 1950 के दशक में ही एक निर्णय में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1959 के अपने फैसले में इसे अभिव्यक्ति की आजादी की जड़ पर हमला करनेवाला कानून कहा था।
यद्यपि 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इसकी संवैधानिकता को बहाल रखते हुए इसकी सीमाओं को तय कर दिया था ताकि इसका केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा दुरुपयोग को रोका जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब तक ‘लोक व्यवस्था’ को किसी के भाषण से खतरा न हो जाए तब तक कानून के द्वारा स्थापित सरकार के प्रति वैमनस्य, घृणा या अवमानना की अभव्यक्ति मात्र से किसी पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता।
इसके बावजूद कड़वी सच्चाई तो यह है कि केंद्र की विभिन्न सरकारों सहित राज्य सरकारों ने इस कानून का जब मौका मिला दुरुपयोग किया और नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बोला। 2014 के बाद लगातार इसका दुरुपयोग बढ़ा और 2014 से 2020 तक 399 राजद्रोह के मुकदमे विभिन्न राज्यों में दर्ज हुए जबकि मात्र 9 आरोपियों को सजा मिली। राजद्रोह के मुकदमों में तीन प्रतिशत से कम सजा की दर से साफ प्रमाणित होता है कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल सरकारें असहमति और प्रतिरोध को दबाने के लिए तथा डर का माहौल बनाने के लिए करती रही हैं।
आज भी इस डरावने कानून के चंगुल में फँसकर लगभग 800 मुकदमों में 13,000 लोग देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस काले कानून के द्वारा ब्रिटिश राज्यसत्ता ने लोकमान्य तिलक, एनी बेसेंट, और महात्मा गांधी को जेलों में बंद किया था वही काला कानून आजाद भारत में सरकार के खिलाफ बोलनेवाले भारतीय नागरिकों पर धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। अतः यह जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को अंततः असंवैधानिक घोषित कर इस सुनवाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाए और विचार और अभिव्यक्ति की आजादी तथा असहमति व प्रतिरोध के जनतांत्रिक अधिकार को सुरक्षित बनाये।