— नन्दकिशोर आचार्य —
सभी आधुनिक समाजों में इस बात पर जोर दिया जाता है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को– शिक्षार्थी को– किसी-न-किसी रोजगार के लिए तैयार कर सके। इसीलिए शिक्षा की योजना या पाठ्यक्रम बनाते समय उसे रोजगारपरक बनाना आवश्यक समझा जाने लगा है। यह धारणा बढ़ती जा रही है कि जिस शिक्षा के आधार पर कोई निश्चित व्यवसाय प्राप्त न किया जा सके, वह व्यर्थ है। इसीलिए शिक्षा के क्षेत्र में मानविकी से संबंधित विषयों को अधिकांशतः बेकार समझा जाता है क्योंकि अधिकांशतः भविष्य के व्यावसायिक जीवन में उनकी विशेष उपयोगिता प्रमाणित नहीं होती। शिक्षार्थियों में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनका व्यवसाय मानविकी के क्षेत्र के विषयों से संबंधित हो।
इसीलिए कुछ शिक्षाशास्त्री यह आवश्यक मानने लगे हैं कि प्रारंभिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा योजना में ही कुछ व्यवसायों का व्यावहारिक प्रशिक्षण शामिल कर लिया जाना चाहिए। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इसलिए विशेष प्रकार की व्यावसायिक और तकनीकी दक्षता विकसित करनेवाली शिक्षा का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। विज्ञान, तकनीकी, अभियांत्रिकी और चिकित्सा आदि की शिक्षा समाज में विशेष महत्त्व प्राप्त करती जा रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उपर्युक्त सारी शिक्षा का सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से भी अपना महत्त्व है और शिक्षार्थी के भावी आर्थिक जीवन की सुरक्षा भी इसमें है, लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा होता है कि क्या वास्तविक और व्यापक अर्थों में इसे शिक्षा कहा जा सकता है?
क्या शिक्षा का प्रयोजन किसी विषय की जानकारी दे देना या किसी तकनीक अथवा व्यवसाय में दक्षता पैदा करने तक ही सीमित है? शिक्षा यदि संस्कृति में प्रवेश की– व्यक्ति के संस्कृतिकरण की– प्रक्रिया है, तो उसका क्षेत्र सिर्फ उपयोगी जानकारी देने तक ही सीमित नहीं समझा जा सकता। संस्कृति ज्ञान के स्तर पर मूल्यबोध और आचरण के स्तर पर मूल्यनिष्ठा की सहज प्रक्रिया है। जीवन में मूल्यबोध और मूल्यनिष्ठा की यह सहजता विकसित करना ही शिक्षा का प्राथमिक प्रयोजन होना चाहिए। जीवन जी सकने के लिए आवश्यक साधन जुटाने की क्षमता के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि वह जीवन जीने के योग्य भी हो। मूल्यबोध से रहित जीवन पशुस्तर का जीवन है, अतः शिक्षा– जो एक मानवीय प्रक्रिया है– अपना वास्तविक उद्देश्य तभी पूरा कर सकती है, जब वह शिक्षार्थी को मानवीय मूल्यों और संवेदना से अनुप्राणित कर सके।
स्पष्ट है कि केवल जानकारी या तकनीकी अथवा व्यावसायिक दक्षता इस प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकती। जानकारी और दक्षता भी जीवन के लिए उपयोगी चीजें हैं लेकिन, उनका उपयोग समाज के हित में किया जाता है अथवा उसके अहित में, यह भी उपयोग करनेवाले व्यक्ति या संस्था की मूल्य-दृष्टि पर निर्भर करता है। जानकारी या दक्षता संस्कृति का सृजन नहीं करती, यद्पि उसके विकास में वह सहायक उपकरण जरूर हो सकती है। इसका सीधा तात्पर्य यही है कि केवल जानकारी या दक्षता देना शिक्षा के वास्तविक प्रयोजन की अवहेलना करना है।
लेकिन मूल्यबोध या मूल्य-दृष्टि का सवाल बहुत उलझा हुआ सवाल है। वास्तविक मानवीय मूल्य क्या हैं? उनकी सही अभिव्यक्ति किस प्रकार हो? ये तथा इनसे जुड़े सभी सवाल बड़े पेचीदा सवाल हैं। यह सर्वमान्य है कि शिक्षा की प्रक्रिया और उसके माध्यम से सम्प्रेषित होनेवाले मूल्यों का निर्धारण संबंधित जाति, वर्ग, समाज या राष्ट्र के अपने हितों या प्रवृत्तियों के अनुकूल होता है। इसलिए इस बात का बहुत खतरा रहता है कि मूल्यबोध के नाम पर शिक्षा के माध्यम से कोई व्यक्ति, संस्था, वर्ग या राष्ट्र शिक्षार्थी का अनुकूलन करने लगे। इसलिए शिक्षा की सही प्रक्रिया वही हो सकती है जो शिक्षार्थी तक किन्हीं मूल्यों को सम्प्रेषित करने के बजाय उसे इस योग्य बना दे कि वह स्वयं मूल्यों की परख और तदनुकूल उनका अपने लिए वरण कर सके।
अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों द्वारा अनुशासन को शिक्षा का एक प्रमुख लक्ष्य माना गया है। अनुशासन का वास्तविक अर्थ तो व्यक्ति के विवेक और मूल्यों का अनुशासन ही है, लेकिन, सामान्य व्यावहारिक जीवन में इसका तात्पर्य किसी-न-किसी सत्ता और उसके द्वारा निर्धारित मर्यादा का अनुशासन होकर रह जाता है। यह देखा गया है कि सत्ता और व्यवस्था का प्रत्येक रूप किसी-न-किसी स्तर पर उन्हीं मूल्यों की अवहेलना करता है, जिनकी पुष्टि ही उसके अस्तित्व की घोषित सार्थकता होती है और इस गुप्त उद्देश्य की पूर्ति में शिक्षा की प्रक्रिया को सदैव अपने अनुकूल बनाने की कोशिश की जाती है।
इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में शिक्षार्थी की स्वतंत्रता तो बहुत दूर की बात है;शिक्षक की स्वतंत्रता को भी अधिकाधिक सीमित करने के कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपाय किए जाते हैं। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इसीलिए शिक्षार्थी सीखने के लिए स्वतंत्र नहीं होता, वह सीखने के लिए मजबूर होता है, वह सब कुछ सीखने के लिए जो उसे संबंधित व्यवस्था सिखाना चाहती है। इसीलिए, मेरी राय में, शिक्षा की सार्थकता की एक कसौटी यह भी होनी चाहिए– खास तौर पर आधुनिक समाजों में– कि वह किस हद तक शिक्षार्थी को अनुशासित होने के साथ-साथ विद्रोही भी बनाती है।
यदि कोई वैज्ञानिक अपने ज्ञान का उपयोग ज्ञान के अपने विकास और पूरी मानवता के कल्याण के लिए करने के बजाय किसी एक वर्ग, राष्ट्र या व्यवस्था के लिए दूसरों को नष्ट करने या उन्हें आघात पहुँचाने के उद्देश्य से करता है अथवा अपने ज्ञान को गुप्त रखता है और ज्ञान के विकास में सरकारी आदेश के कारण असहयोग करता है, तो यही मानना होगा कि विज्ञान की शिक्षा में कहीं-न-कहीं कोई कमी है। अन्य विषयों या क्षेत्रों की शिक्षण-प्रक्रिया के बारे में भी यही कहा जा सकता है। इसलिए शिक्षा की वास्तविक सार्थकता इसमें है कि वह न केवल शिक्षार्थी के मूल्यबोध और उसके अनुकूल आचरण करने की प्रवृत्ति को पुष्ट करे, बल्कि अन्याय और असत्य के विरुद्ध असहयोग और संघर्ष की प्रवृत्ति का विकास भी करे।
अन्याय और असत्य से सक्रिय असहयोग और उनके विरुद्ध अहिंसक संघर्ष ही व्यक्ति के नैतिक आचरण की वास्तविक कसौटी है। अतः यदि शिक्षा-प्रक्रिया इस आचरण को पुष्ट नहीं करती है तो वह अपने वास्तविक उद्देश्य में असफल ही कही जाएगी।
लेकिन, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा-प्रक्रिया का ही नहीं, शिक्षा-व्यवस्था का भी स्वायत्त होना आवश्यक है। जहाँ यह आवश्यक है कि शिक्षार्थी की सीखने की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाय, वहीं यह भी उतना ही आवश्यक है कि इस प्रक्रिया और इसकी प्रबंधक व्यवस्था को राज्य, पूँजी, संप्रदाय आदि सत्ता के विभिन्न प्रकारों से भी अलग रखा जाए। निश्चय ही वर्तमान परिस्थितियों में यह एक मुश्किल– बल्कि कुछ लोगों की राय में तो असंभव कार्य है, लेकिन, जिस सीमा तक हम शिक्षा-प्रक्रिया को शिक्षार्थी-केंद्रित और शिक्षा-व्यवस्था को सत्ता से स्वतंत्र रख पाएंगे, उसी हद तक शिक्षा भी अपने वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति की ओर अग्रसर हो सकेगी।