— विमल कुमार —
हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को 2022 का बुकर पुरस्कार मिलने से क्या हिंदी भाषा गौरवान्वित हुई है?
यह सवाल इसलिए खड़ा हो गया है क्योंकि जब से गीतांजलि जी को यह पुरस्कार मिला है, तबसे सोशल मीडिया पर लोग लगातार यह टिप्पणी किए जा रहे हैं कि गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलने से हिंदी गौरवान्वित हुई है और उसे अब अंतरराष्ट्रीय जगह मिली है।
क्या इससे पहले हिंदी को वह गौरव हासिल नहीं था जो एक पश्चिमी देश का पुरस्कार मिलने से हासिल हो गया है? जब राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘मध्य एशिया का इतिहास’ की भूमिका लिखते हुए शिवपूजन सहाय ने राहुल जी को अंतरराष्ट्रीय लेखक की संज्ञा दी थी, तब क्या हिंदी को अंतरराष्ट्रीय जगह नहीं मिली थी? क्या अज्ञेय के कारण हिंदी को अंतरराष्ट्रीय छवि नहीं मिली थी?
क्या पिछले कुछ दशकों में केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, और मंगलेश डबराल की कविताओं और उदय प्रकाश की कहानियों के अनुवाद से हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप नहीं मिला था?
क्या प्रेमचन्द, रेणु, श्रीलाल शुक्ल को अंतरराष्ट्रीय पहचान नहीं मिली थी?
क्या हिंदी इससे पहले अंतरराष्ट्रीय स्वरूप नहीं प्राप्त कर पायी थी जो इस पुरस्कार से अब कर पा रही है। हिंदी समाज बहुत जल्द ही अपनी परंपरा और इतिहास को भूल जाता है और कुछ इस तरह की त्वरित टिप्पणियां आने लगती हैं मानो आज जो कुछ हो रहा है वह पहले कभी नहीं हुआ था।
गीतांजलि श्री को बुकर प्राइज मिलना निश्चित रूप से प्रसन्नता की बात है, वह उसकी हकदार हैं, लेकिन इस किताब को पुरस्कार में शॉर्टलिस्ट किए जाने के बाद जिस तरह इसकी खबरें प्रसारित की जा रही थीं उससे लगता है कि इसके पीछे एक प्रकाशक लॉबी काम कर रही थी। इसके प्रकाशक ने इस किताब को शॉर्टलिस्ट किये जाने पर ही एक भव्य पार्टी का आयोजन किया था। इससे पता चलता है कि इस किताब को लेकर किस तरह एक मीडिया हाइप बनाने की कोशिश की जा रही थी।
अभी भी हिंदी समाज में पुरस्कारों को लेकर एक अजीब तरह नशा और माया-मोह काम करता है। हमने पुरस्कारों को ही रचना की गुणवत्ता का मानक बना लिया है। अगर किसी लेखक को तथाकथित बड़ा पुरस्कार मिलता है तो हम उस लेखक को अधिक याद करते हैं या पढ़ते हैं या उनके बारे में जानने की कोशिश करते हैं लेकिन अगर किसी लेखक को कोई पुरस्कार नहीं मिला तो हम उसकी तरफ झॉंकने की कोशिश भी नहीं करते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई लेखक नोबेल पुरस्कार, बुकर पुरस्कार, पुलित्जर पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार या भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिलने से ही महत्त्वपूर्ण होता है? जब दुनिया के कई बड़े लेखकों को नोबेल पुरस्कार नहीं मिले या उपर्युक्त में से कोई भी पुरस्कार नहीं मिला तो क्या वह महत्त्वपूर्ण नहीं है? क्या उसकी रचना में कोई गुणवत्ता नहीं है?
बुकर पुरस्कार का दिलचस्प पहलू यह है कि जिस किताब को यह पुरस्कार दिया जाता है वह किताब इंग्लैंड या आयरलैंड में छपी होनी चाहिए यानी जो किताबें इंग्लैंड से बाहर छपी हैं वे इस पुरस्कार की हकदार नहीं हैं। इसलिए यह पुरस्कार एक सीमित अर्थों में दिया जानेवाला पुरस्कार है लेकिन इसकी वाहवाही पूरी दुनिया में डंके की चोट पर बजायी जाती है।
आखिर वे कौन लोग हैं इसके पीछे जो चाहते हैं पुरस्कार देकर उस लेखक के बारे में एक बाजार बनाया जाए और एक विशाल पाठक वर्ग उनकी कृतियों को पढ़ने की कोशिश करे। अरुंधति रॉय को जब यह पुरस्कार मिला था उसके बाद से उनकी कृतियों के हिंदी में अनुवाद होने लगे और हिंदी में भी उनका एक पाठक वर्ग तैयार हुआ है जो उनको पढ़ना चाहता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है कि किसी लेखक की कृतियों का अधिक से अधिक अनुवाद हो लेकिन क्या हिंदी की कृतियों का अधिक भाषाओं में अनुवाद होता रहा है? हिंदी में अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं की कृतियों का जितना अनुवाद हुआ है क्या उस मात्रा में हिंदी की कृतियों का अनुवाद दूसरी भाषाओं में हुआ है? हमें इस पर भी विचार करना चाहिए।
प्रेमचंद के निधन के दशकों बाद उनकी कृतियों के अंग्रेजी में अनुवाद हुए। रेणु जरूर सौभाग्यशाली रहे कि उनकी किताबों के अनुवाद उन्हीं दिनों होने लगे। पर नागार्जुन, मुक्तिबोध को तब यह सौभाग्य नहीं। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’, और राही मासूम राजा राजा के उपन्यास ‘आधा गांव’ तथा रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ के अंग्रेजी अनुवाद काफी लोकप्रिय हुए हैं। जिलियन राइट जैसी अनुवादक उन्हें मिली।निराला को शुरू में नलिन विलोचन शर्मा जैसे अनुवादक मिले, बाद में शैलेश्वर सती प्रसाद और एम एम ठाकुर जैसे अनुवादक मिले पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में उसकी चर्चा कम हुई। विक्रम सेठ और डेविड रूबी ने भी अनुवाद किये। यह अलग बात है कि उन अनुवादों पर तब कोई बुकर पुरस्कार या उसके जैसे पुरस्कार या सम्मान नहीं मिले लेकिन क्या उनके न मिलने से इन रचनाकारों की कृतियों की गुणवत्ता कम हो जाती है?
क्या ‘रेत समाधि’ इस पुरस्कार से पहले महत्त्वपूर्ण कृति नहीं थी? लेकिन आज जिस तरह इसे बुकर पुरस्कार मिलने पर हो-हल्ला मचाया जा रहा है उससे एक बात तो तय है इसके पीछे प्रकाशक अपना बाजार खोजना चाहते हैं। वे प्रचार के माध्यमों से पहले एक प्रभामंडल तैयार करना चाहते हैं ताकि एक सामान्य पाठक उससे आकर्षित होकर उस किताब को खोजें, उसे पढ़े।
गीतांजलि श्री को यह पुरस्कार मिलने से एक फायदा जरूर हुआ कि हिंदी अंग्रेजी का एक सामान्य पाठक गीतांजलि जी की कृतियों को खोज-खोज कर पढ़ना चाहेगा और अब वह ‘माई’ तथा ‘तिरोहित’ उपन्यास को भी पढ़ने की जहमत उठाएगा। हिंदी के अनुवाद का बाजार बढ़ेगा तो पाठक बढ़ेंगे और संभव है भविष्य में नोबेल भी इस भाषा के किसी लेखक को मिल जाए।
इस उपन्यास की कैसी गुणवत्ता है इसपर पहले भी हिंदी में कई टिप्पणियां लिखी जा चुकी हैं। उन्हें देखा जा सकता है पर कई लोगों का तो यह मानना है कि अंग्रेजी अनुवाद में यह उपन्यास अधिक अच्छा और अधिक स्तरीय हो गया है जबकि मूल हिंदी में यह उतना उत्कृष्ट उपन्यास नहीं है। इस टिप्पणी को किस रूप में देखा जाए यह पाठक ही बताएंगे लेकिन कुछ लोगों ने उनके अन्य उपन्यास बेहतर बताये हैं। कई लोगों ने यह सवाल उठाया है कि क्या आदिवासी, दलित और मजदूर की समस्या पर यह उपन्यास केंद्रित है? क्या यह कृति किसान आंदोलन, स्त्री के खिलाफ हिंसा, भारतीय राजनीति में हुए बदलाव और दक्षिणपंथी उभार को संबोधित है?
खैर, गीतांजलि श्री को पुरस्कार मिलने से हिंदी की दुनिया में थोड़े दिनों के लिए एक जश्न और उत्साह का संचार जरूर हुआ है और वे लोग जो हिंदी साहित्य के घर को पश्चिमी देशों की दृष्टि से देखते हैं उन्हें कुछ ज्यादा खुशी मिली है। लेकिन क्या जब निराला की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ था या प्रसाद की कामायनी का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ था या मुक्तिबोध की रचनाओं के अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुए थे या रघुवीर सहाय की कृतियों का भी जब अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ था तब क्या उनसे हिंदी गौरवान्वित महसूस नहीं हुई थी?
आखिर हिंदी का गर्व क्या तब हासिल होता है जब उसके एक लेखक को पश्चिमी समाज का प्रमाणपत्र मिले या एक पूंजीवादी संस्थान या सत्ता प्रतिष्ठान से मिलनेवाले पुरस्कार से वह सम्मानित हो? क्या यह औपनिवेशिक मानसिकता का सूचक नहीं है?
आखिर हम भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृति को दिए जानेवाले पुरस्कारों ज्ञानपीठ और सरस्वती सम्मान पर क्यों नहीं कहते कि हिंदी गौरवान्वित हुई है।
क्या इस तरह के पुरस्कार के बगैर हिंदी में गर्व करने लायक कोई चीज नहीं है ?क्या दूधनाथ सिंह, असगर वजाहत, पंकज बिष्ट, संजीव, शिवमूर्ति, हृषिकेश सुलभ, प्रियम्वद अखिलेश के उपन्यासों से हिंदी गौरवान्वित नहीं है जो एक बुकर के मिलने से उसे महसूस हो रहा है।
हिंदी की परंपरा वीतरागियों की रही है जो इस तरह की चमक-दमक, प्रचार और बाजार की प्रायोजित लोकप्रियता से दूर रही है?
गीतांजलि श्री को यह पुरस्कार मिलने से देश का इलीट समाज उन्हें जाने तो उसका पाठकीय संस्कार समृद्ध होगा।
हिंदी अपने भदेसपन में अपनी विनम्रता, ईमानदारी और त्याग में खुद गौरव महसूस करती रही है। वह संघर्ष, अभाव और न्याय की पुकार की भाषा है। और हाशिये की आवाज है। उसे एक पुरस्कार गौरव नहीं दिला सकता। हिंदी का स्वाभिमान इतना हल्का नहीं है कि वह एक पुरस्कार से खुद को गौरवान्वित महसूस करने लगे। फिर भी मैनपुरी में जन्मी इस लेखिका को एक बधाई देश की ओर से बनती ही है और हिंदी का परचम दुनिया में लहराया ही है।