
— श्रवण गर्ग —
सत्तारूढ़ दल के दो (पूर्व) प्रवक्ताओं द्वारा की गयी विवादास्पद टिप्पणियों से उठे तूफान के बाद फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उम्मीद जाहिर की है कि सद्बुद्धि प्राप्त होगी और नफरत की आँधी थमेगी। नसीर ने प्रधानमंत्री से भी अपील की कि वे हस्तक्षेप करके नफरत के जहर को फैलने से रोकें। ऐसी ही कई अपीलें नसीर के अलावा सैकड़ों बुद्धिजीवियों, सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों, सेवा-निवृत्त आइएएस अफसरों आदि ने कोई छह माह पूर्व हरिद्वार में आयोजित हुई उस ‘धर्म संसद’ के बाद भी की थीं जिसमें हिंदुओं से अल्पसंख्यकों के खिलाफ शस्त्र धारण करने का आह्वान किया गया था।
नसीर ने तब भय व्यक्त किया था कि : ‘ये लोग (धर्म संसद के आयोजक) नहीं जानते कि वे क्या कह और कर रहे हैं ! ये लोग खुले तौर पर गृहयुद्ध को आमंत्रित कर रहे हैं।’ सड़कों पर जो कुछ भी इस समय दिखाई पड़ रहा है बताता है कि तमाम अपीलों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ।
सरकारों में बैठे हुए लोग जब अपने ही धर्मनिरपेक्ष नागरिकों की आवाजों को सुनना बंद कर देते हैं तो दूसरे मुल्कों की उन कट्टरपंथी ताकतों को हस्तक्षेप करने का मौका मिल जाता है जिनका धर्मों की समानता और मानवाधिकारों की रक्षा में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं जैसा यकीन नहीं है।
उत्तेजनापूर्ण क्षणों के दौरान पार्टी प्रवक्ता द्वारा की गयी दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी का परिणाम यही निकला है कि सरकार को अपने बाकी जरूरी काम छोड़कर स्पष्टीकरण और आश्वासन देने का काम उन मुल्कों के सामने करना पड़ रहा है जहां न तो प्रजातंत्र है और न ही जिनकी हुकूमतों का किताबी तौर पर भी किसी भी तरह की धर्मनिरपेक्षता में भरोसा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शायद पहली बार किसी सरकार को इस्लाम के नाम पर आपस में ही लड़ते रहनेवाले मुल्कों के सामूहिक विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
याद किया जा सकता है कि शिया और सुन्नी मुसलिमों में विभाजित ये तमाम मुल्क धारा 370, तीन तलाक, नागरिकता कानून, गोमांस, मॉब लिंचिंग, धर्म संसद आदि मुद्दों पर अभी तक चुप्पी साधे रहे हैं। सिर्फ एक अवांछनीय टिप्पणी और उसके खिलाफ की गयी आधी-अधूरी कार्रवाई ने सब कुछ उलट कर रख दिया।
इसे इस्लामी मुल्कों के सामूहिक दबाव का नकारात्मक असर भी माना जा सकता है कि वे तमाम अल्पसंख्यक जो पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक विभाजन और अलगाववाद की घटनाओं से अपने आप को प्रताड़ित अनुभव कर रहे थे उनमें अचानक से संगठित होकर सड़कों पर विरोध व्यक्त करने की ताकत उत्पन्न हो गयी। आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि देश की बहुसंख्य जनता ने पूरे मामले में रहस्यमय तरीके से तटस्थता ओढ़ रखी है। सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यक्त नहीं हो पा रहा है कि ताजा विवाद में पूरा देश एक स्वर से सरकार के साथ है।विपक्ष तो है ही नहीं।
भारतीय जनता पार्टी और संघ के हिंदू राष्ट्रवादी कार्यकर्ता चाहे जितनी बड़ी संख्या में नूपुर शर्मा के साथ खड़े हुए नजर आ रहे हों, इस्लामी मुल्कों को भारत के खिलाफ सामूहिक रूप से दबाव बनाए रखने का एक हथियार प्राप्त हो गया है जिसके कि हमारी विदेश नीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के सवाल पर अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा की जानेवाली विपरीत टिप्पणियों की कौड़ी भर चिंता नहीं करनेवाली सरकार को अगर खाड़ी के छोटे-छोटे मुसलिम मुल्कों ने हिलाकर रख दिया है तो उसके कारण भी साफ हैं।
भारतीय मूल के कोई सत्तर लाख नागरिक सिर्फ संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और कुवैत में ही कार्यरत हैं। कतर, बहरीन, जोर्डन, इराक, ओमान, लेबनान में काम करनेवालों की संख्या अलग है। ये नागरिक प्रत्येक वर्ष अरबों रुपए की धनराशि अपने परिवारों को भारत भेजते हैं। यह राशि चालीस अरब डॉलर से अधिक की बताई जाती है। भारत अपनी जरूरत का साठ से अड़सठ प्रतिशत कच्चा तेल खाड़ी के देशों से आयात करता है। इस सब के अलावा अनुमानित तौर पर भारत से पचास हजार करोड़ का सामान खाड़ी के देशों को हर साल निर्यात होता है।
अब अहम सवाल यह है कि एक टीवी चैनल की बहस के बाद से जो माहौल देश में निर्मित हुआ है उससे सबक लेकर संघ और भाजपा क्या कट्टर हिंदुत्व की अपनी छवि में धर्मनिरपेक्षता का संशोधन करना चाहेंगे और अपनी इस घोषणा को चरितार्थ करके दिखाएँगे कि : ’भारतीय जनता पार्टी को ऐसा कोई भी विचार स्वीकृत नहीं है जो किसी भी धर्म-समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाए। भाजपा न ऐसे किसी विचार को मानती है और न ही प्रोत्साहन देती है।’ क्या ‘गोदी मीडिया’ के विशेषणों से आभूषित राष्ट्रीय चैनल अपने स्थापित चरित्र की हत्या कर देंगे?
पिछले आठ वर्षों के दौरान अपनायी जा रही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति को सत्ता-प्राप्ति की दिशा में भाजपा की बुनियादी ताकत माना जाता है। अपनी इसी (अस्सी बनाम बीस) ताकत के दम पर भाजपा एक के बाद एक चुनाव जीतती रही है। राष्ट्रीय चैनलों पर चलनेवाली (एकतरफा) हिंदू-मुसलिम बहसें सत्तारूढ़ दल की मदद में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। नूपुर शर्मा अगर पैगम्बर साहब का जिक्र नहीं करतीं तो उनके बाकी कहे पर कोई कभी ध्यान नहीं देता, मुसलिम मुल्क तो बिलकुल ही नहीं। कहा जाता है कि नूपुर शर्मा जैसी आक्रामक छवि वाले पार्टी-प्रवक्ताओं की संख्या तीन दर्जन से ज्यादा है।
बताया गया है कि हाल के अप्रिय घटनाक्रम के बाद अपने प्रवक्ताओं की मीडिया बहसों में भागीदारी के लिए भाजपा ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों का उद्देश्य निश्चित ही ऐसी बातों पर टिप्पणी करने से बचना होगा जो किसी धर्म विशेष की भावनाओं या उसके पूजनीयों के सम्मान को ठेस पहुँचा सकती हों। सवाल यह है कि ये प्रवक्ता अगर हिंदू-मुसलिम की बात करना बंद कर देंगे तो फिर देखने-सुनने वाले तो फर्क ही नहीं कर पाएँगे कि वे किस पार्टी का पक्ष रख रहे हैं! और फिर चैनलों के एंकर क्या करेंगे?
आठ वर्षों की सफल सत्ता-यात्रा के बाद भाजपा और संघ अपने मूल को इसलिए नहीं छोड़ सकते हैं कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति का अगर वे घरेलू मोर्चे पर तिरस्कार करते हैं तो अपनी सरकार को विदेशी मोर्चे पर भी उसके पालन की इजाजत नहीं दे सकते। दूसरे यह कि चैनलों की बहसों में भाग लेनेवालों के लिए तो दिशा-निर्देश जारी किए जा सकते हैं, उन लाखों कार्यकर्ताओं के बोलने और आचरण पर प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते जिनका पूरा प्रशिक्षण ही हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए हुआ है। किसी से छुपा हुआ नहीं है कि एक बड़ी संख्या में भाजपा और संघ के समर्थक नूपुर शर्मा और जिंदल के खिलाफ की गयी निलम्बन-निष्कासन की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं।
कट्टर हिंदुत्व की अपनी नीति पर आक्रामक तरीके से वापस लौटने और नूपुर शर्मा-जिंदल जैसे बहुचर्चित प्रवक्ताओं का पुनर्वास/पुनर्स्थापन करने के लिए भाजपा को स्थिति के सामान्य होने तक की प्रतीक्षा करनी होगी और उसमें देर भी लग सकती है। साथ ही यह भी मानकर चला जा सकता है कि तमाम कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद अगर खाड़ी के मुसलिम मुल्क भारत के खिलाफ अपनी दबाव की रणनीति कायम रखते हैं तो एक स्थिति के बाद सरकार उनकी नाराजगी को नजरअंदाज करने का साहस भी जुटा सकती है।
इस समय भाजपा और मोदी के सामने बड़ा सवाल 2024 में फिर से सत्ता में लौटने का है। नूपुर शर्मा की टिप्पणी और बाद की घटनाओं ने भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण को और मजबूत करने में मदद ही की है। किसी को भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ देंगे, वे अब बदल जाएँगे या भाजपा देश से माफी माँग लेगी !
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