हमारे पूर्वज कौन थे?

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— रितु कौशिक —

क सवाल जो बचपन में हम सभी के दिमाग में आया होगा वह यह कि हमारे मूल पूर्वज कौन थे और वे कहाँ रहते थे? क्या वे हमेशा से ही भारत में रह रहे थे, या फिर कहीं दूसरी जगह से यहाँ आकर बस गए थे? हालांकि यह एक मुश्किल सवाल है। क्योंकि इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए हमें प्राग इतिहास का अध्ययन करना होगा यानी मानव सभ्यता के उस दौर का अध्ययन करना होगा जिस दौर का कोई भी लिखित विवरण हमारे पास नहीं है। इस सवाल को लेकर पूरी दुनिया में और विशेषकर हमारे देश में न सिर्फ गंभीर सैद्धांतिक बहस चल रही है बल्कि कभी-कभी यह बहस उग्र रूप भी ले लेती है। एक संवेदनशील मुद्दा है जो कॉलेज-यूनिवर्सिटी के दायरे से बाहर निकलकर समय-समय पर राजनीतिक सरगर्मी बढ़ाने का भी काम करता रहा है, वह मुद्दा है भारत में आर्यों के आगमन से संबंधित।

आर्यों के प्रश्न पर मुख्यतः दो मत प्रचलित हैं। एक मत का मानना है कि आर्य सदा से हिंदुस्तान में रह रहे थे और उन्होंने ही हिंदू सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत की थी तथा शुद्ध रक्त आर्य या  ‘शुद्ध नस्ल आर्य ही हिंदुओं के पूर्वज हैं। लेकिन दूसरे मत के अनुसार, आर्य हिंदुस्तान के बाहर से आए थे।

हमें मानव इतिहास की उत्पत्ति और विकास के विषय में जानकारी मुख्य रूप से तीन स्रोतों से मिलती है। पहला स्रोत है पुरातात्त्विक साक्ष्य। दूसरा है भाषागत अध्ययन। और तीसरा स्रोत है विज्ञान आधारित- आनुवंशिकी विज्ञान या जेनेटिक सायंस

जेनेटिक वैज्ञानिकों ने हाल में ही प्राचीन जीवाश्मों से सफलतापूर्वक डीएनए निकालकर उसकी सिक्वेंसिंग का अध्ययन किया है, जिससे मानव इतिहास के बारे में बहुत सी नयी जानकारियाँ सामने आयी हैं और इन जानकारियों ने कई मिथकों को, प्रस्थापनाओं को, मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया है। आर्यों से संबंधित प्रश्न को भी आनुवांशिकी विज्ञान ने हल करने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली है और इस प्रश्न का भी एक विज्ञान आधारित उत्तर ढूंढ़ लिया है कि हमारे पूर्वज कौन थे?

हमारे पूर्वज कहीं बाहर से आए थे या हमेशा से यहीं पर रह रहे थे?

हिंदुस्तान के इतिहास के विषय में सबसे पहले हमें जिस ऐतिहासिक स्रोत से जानकारी मिली है वह है हमारा वैदिक साहित्य, जिसमें सबसे प्राचीन ग्रंथ है ऋग्वेद। वास्तव में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आते-आते ब्राह्मणवादियों द्वारा आर्य पहचान को अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा। इसीलिए भारतीय सभ्यता पर काम करनेवाले यूरोपीय विद्वानों के लिए ऋग्वेद को भारतीय इतिहास के प्रारंभिक ग्रंथ के रूप में उपलब्ध कराया गया। वैदिक साहित्य संस्कृत में लिखा गया है। ऋग्वेद की ऋचाओं से भारत में उस समय रह रहे विभिन्न समूहों के विषय़ में जानकारी मिलती है कि वेदों के रचयिता वे लोग थे जो स्वयं को आर्य कहते थे। वे यज्ञ और बलि जैसी प्रथाओं का पालन करते थे।

आर्यों के विषय में सबसे पहले मैक्स मूलर ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि आर्य हिंदुस्तान के बाहर से आए थे और हिंदुस्तान में आकर उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत की। बाद में इसी क्रम में ज्योतिबा फुले ने लिखा कि आर्य बाहरी हमलावर थे और उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों, जो हिंदुस्तान के असली मालिक थे, को हराकर भारतभूमि पर अपना कब्जा जमा लिया। लेकिन भारत में आर्यों के पैरोकार एक वर्ग ने इस मान्यता में एक कठिनाई देखी, जिस कारण से वे इसे स्वीकार नहीं कर सके। वह कठिनाई यह थी कि जिन लोगों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की नींव रखी वे लोग बाहर से आए हों ये कैसे हो सकता है?

अर्थात भारतीय सभ्यता की नींव डालनेवाले लोग बाहर से आए हों ये उन्हें स्वीकार नहीं था। उनका मानना था कि इस महान सभ्यता के निर्माता मुसलमानों की तरह बाहर से आए हुए लोग नहीं बल्कि वे लोग थे जो यहीं पर ही पैदा हुए। यह भी माना जाने लगा था कि वे आर्य ही थे जिन्होंने न सिर्फ भारतीय बल्कि हिंदू सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत भी की थी। इस प्रकार वेदों के रचयिताओं को ही भारत के लोगों का और विशेष रूप से हिंदुओं का पूर्वज समझा जाने लगा। आरएसएस, बीजेपी का संपूर्ण दर्शन इसी विचार के आधार पर खड़ा है।

लेकिन संघ परिवार के लिए प्रेरणास्रोतईश्वर प्रेरित पुरुष लोकमान्य तिलक मानते थे कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, वे भारत में उत्तरी ध्रुव के आसपास के इलाके से आए थे। यह हिंदुत्ववादियों के लिए बहुत मुश्किल में डालनेवाली बात थी।

अब तिलक के निष्कर्ष को गलत ठहराने का साहस नहीं था, पर आर्यों का मूल स्थान भारत से बाहर था– यह मानने के लिए भी वे तैयार नहीं थे। इसका समाधान गुरु गोलवरकर ने ढूँढ़ निकाला! गुरुजी अद्भुत विद्वत्ता का परिचय देते हुए कहते हैं कि–असल में उस वक्त उत्तरी ध्रुव वहाँ था, जहाँ आज बिहार और उड़ीसा हैं….. आर्यों का उद्गम स्थल हिंदुस्तान में ही था, हिंदू भारत में बाहर से नहीं आए, उत्तरी ध्रुव ही हिंदुओं को यहाँ छोड़कर बाहर चला गया है। (स्रोत : वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड)

लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान आधारित ज्ञान आगे बढ़ने लगा यह विचार भी खंडित होने लगा क्योंकि भारत में सेवारत ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी गहराई से भारतीय उपनिवेश के इतिहास और संस्कृति को जानने के लिए प्रयासरत थे। एक पराए मुल्क पर नियंत्रण के लिए उसके इतिहास को जानना उन्हें जरूरी लगता था और यदि इतिहास का यह ज्ञान आसानी से उपलब्ध न हो तो उसे खोजना भी उनके लिए अति आवश्यक जान पड़ने लगा था। इसी क्रम में यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा 1921 से 1922 के बीच भारत के उत्तर पश्चिमी हिस्से में खुदाई शुरू की गयी।

इन पुरातात्त्विक खुदाइयों से पता चला कि वैदिक सभ्यता से पूर्व भी भारत में एक और सभ्यता थी और उसके दो महत्त्वपूर्ण केंद्र थे- मुअनजोदड़ो और हड़प्पा। यह एक शहरी सभ्यता थी, और यह सभ्यता, वैदिक सभ्यता से लगभग 2000 साल पहले अस्तित्व में थी।

इस खोज ने उस धारणा पर गहरा आघात किया जिसमें यह माना जा रहा था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत आर्यों के द्वारा की गयी थी। अब फिर से एक नया प्रश्न खड़ा हो गया कि अगर हड़प्पा सभ्यता, आर्य सभ्यता से प्राचीन थी, तो क्या वे हड़प्पा सभ्यता के लोग थे जिन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत की थी? क्या वे ही हमारे पूर्वज थे? जो लोग इस पूर्व धारणा से ग्रसित थे कि आर्यों ने ही हिंदू सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत की थी वे दावा करने लगे कि आर्यों ने ही हड़प्पा सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों की रचना की थी। लेकिन विज्ञान आधारित सच्चाई इसके विपरीत है।

विद्वानों के कठिन प्रयास के बावजूद आज तक हड़प्पा की लिपि और भाषा को नहीं पढ़ा जा सका है। लेकिन वेदों को पढ़ने के बाद और हड़प्पा सभ्यता से मिले पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अध्ययन से पता चला है कि वैदिक सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता की सांस्कृतिक संरचना बिल्कुल भिन्न थी।

वेदों से, यह पता चलता है कि वैदिक सभ्यता के लोगों की जीवन शैली ग्रामीण और मुख्यतः चरवाहा जीवन शैली थी जबकि हड़प्पा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। अब यह अवधारणा भी टूट गयी कि हड़प्पा सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत, वैदिक सभ्यता का निर्माण करनेवाले आर्यों के साथ हुई थी, क्योंकि इन दोनों सभ्यताओं में कोई निरंतरता नहीं दिखाई देती।

पुरातात्त्विक और भाषाई स्रोत यह बताते हैं कि वैदिक सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता, दो बिल्कुल भिन्न सभ्यताएँ थीं। आर्यों के देवता जिनका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है जैसे इंद्र, अग्नि, वरुण और अश्विन, हड़प्पा सभ्यता में मिली मुहरों पर अंकित छवियों से किसी भी तरह से मेल नहीं खाते हैं। इसी प्रकार से, हड़प्पा की लिपि तथा मुअनजोदड़ो के स्नानागारों व हड़प्पा की मुहरों पर अंकित मिथकीय यूनिकॉर्न (एक सींग वाले जानवर) की व्याख्या करने में ऋग्वेद से कोई मदद नहीं मिलती है। ऋग्वेद में शिश्न देव (लिंग देव) और उनकी पूजा की तीव्र निंदा की गयी है जबकि हड़प्पा के अवशेष यह बताते हैं कि लिंग-पूजा हड़प्पा संस्कृति का विशेष हिस्सा थी।

मेसोपोटामिया और हड़प्पा सभ्यता के बीच आर्थिक रिश्ते थे। हड़प्पा के लोग मेसोपोटामिया के साथ व्यापार करते थे लेकिन ये संबंध ऋग्वेद में नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार से हड़प्पा सभ्यता में घोड़ा कहीं भी नहीं मिलता है, न वह कंकालावशेष के रूप में मिलता है, न मुहरों और शिल्पों पर अंकित छवियों के रूप में, जबकि ऋग्वेद में घोड़ा बहुत प्रमुख और सर्वव्यापी है। ऋग्वेद में घोड़े की उपस्थिति इतनी प्रमुख है कि कोई भी दूसरा जानवर उसके पासंग नहीं ठहरता। कोई भी त्योहार, कर्मकांड घोड़े के बगैर संपन्न नहीं होता था। परंतु इधर हड़प्पा की हजारों मुहरों और मुद्रांकनों में मिथकीय यूनिकॉर्न (एक सींग वाला जानवर) से लेकर वृषभ, भैंस, मोर, हाथी, बाघ और गैंडे तक हर चीज चित्रित है, लेकिन एकमात्र घोड़ा ही अनुपस्थित है।

हड़प्पा सभ्यता और वैदिक काल की भाषा में साम्य नहीं

भाषाविदों का मानना है कि हड़प्पा में बोली जानेवाली भाषा का यदि संस्कृत से कोई दूर का संबंध भी होता तो उस भाषा को अब तक पढ़ लिया गया होता। जब भाषाविदों ने संस्कृत भाषा के उद्गम के विषय में अध्ययन किया तो संस्कृत के यूरोपीय विद्वानों को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि संस्कृत भाषा का लिखावट, उच्चारण व व्याकरण की दृष्टि से ग्रीक और लैटिन भाषा में घनिष्ठ संबंध है। अध्ययन से पता चला है कि संस्कृत भाषा बोलनेवाले और खुद को आर्य कहनेवाले लोगों का भाषागत संबंध हड़प्पा के उन लोगों के साथ नहीं है, जो उसी क्षेत्र के आसपास लगभग एक हजार साल पहले से रह रहे थे, बल्कि मध्य एशिया के उन लोगों के साथ है जिनके भाषागत पदचिह्न यूरोप से भारत तक फैले हुए हैं।

अध्ययन के क्रम में ज्ञात हुआ कि ईरान की धार्मिक पुस्तक अवेस्ता और वैदिक काल के प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में बहुत सी समानताएँ हैं। इन दोनों पुस्तकों की भाषा और लेखन का काल लगभग एक ही है।

इतिहासकारों के अनुसार अवेस्ता के लेखन का काल ईसापूर्व 1320 के आसपास का था तथा इसकी भाषा ऋग्वेद की भाषा की ही प्राचीन भाषा, यानी प्राचीन संस्कृत है जो कि प्राचीन ईरानी भाषा की सहोदरा है। इसके अलावा मित्र और वरुण अवेस्ता में भी महत्त्वपूर्ण देवताओं के रूप में वर्णित किए गए हैं; ऋग्वेद में भी मित्र और वरुण दो महत्त्वपूर्ण देवता हैं। इन देवताओं के बाद इंद्र और  ‘अग्नि देवता का भी जिक्र दोनों ग्रंथों में पाया जाता है। इसी प्रकार से ऋग्वेद में वर्णित आर्य शब्द को अवेस्ता में  ‘आरिया के रूप में वर्णित किया गया है तथा ऋग्वेद में वर्णित दास शब्द को दाह के रूप में वर्णित किया गया है। दोनों भाषाओं में अंतर यह है कि अवेस्ता में एस का उच्चारण  ‘एच किया गया है, हिंदी में कहें तो का उच्चारण में किया गया है।

ऋग्वेद और अवेस्ता में पायी गयी समानता, दोनों की समीपता को दर्शाती है, कि दोनों ही समाज पशुपालक और कृषि प्रधान समाज थे। दोनों ही जगहों पर व्यापारिक उत्पादन के प्रमाण बहुत ही कम मिलते हैं। शहरी केंद्रों में पायी जानेवाली वास्तुकला के साक्ष्य भी बहुत कम दिखाई देते हैं। उनकी संपत्ति के प्रतीक घोड़े और गाय ही थे, धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर पशुओं का मांस खाने का रिवाज था जो कि पशुपालक समाज की एक प्रमुख विशेषता है।

इतना ही नहीं, हम कह सकते हैं ईरानी समाज और उत्तर भारतीय समाज में काफी कुछ समानताएँ हैं, जैसे धार्मिक कर्मकांडों, विवाह, अतिथि पूजा, घोड़ों की बलि, आदि कई ऐसे अनुष्ठान हैं जिन्हें इंडो यूरोपीयनों द्वारा भारत और ईरान में लाया गया है। शहद से निर्मित एक विशेष पेय जिसे ऋग्वेद में सोम और अवेस्ता में होम कहा गया है उसे भी इंडो यूरोपीयनों द्वारा ही लाया गया है। लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता के साथ आर्य सभ्यता की समानता दिखाने वाले साक्ष्य अभी तक भी उपलब्ध नहीं हो पाये हैं।

वर्तमान समय में हम अपने आसपास जो भाषाएँ देखते हैं जैसे संस्कृत, हिंदी, गुजराती, बांग्ला, पंजाबी, मराठी, या विश्व के अन्य हिस्सों में बोली जानेवाली कुछ भाषाएँ जैसे अंग्रेजी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, ईरानी आदि, इन सभी भाषाओं के उद्भव का अध्ययन करने से ज्ञात हुआ है कि ये सभी भाषाएँ एक ही भाषा परिवार से संबंधित हैं जिसे इंडोयूरोपियन भाषा परिवार का नाम दिया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गयी है कि आर्य भाषा-भाषी जातियों के पूर्वजों यानी इंडोयूरोपियनों द्वारा मूल रूप से एक ही भाषा बोली जाती थी। अर्थात् अंग्रेजी, ग्रीक, ईरानी भाषा बोलनेवाले लोगों के पूर्वज और संस्कृत बोलनेवालों के पूर्वज एक ही थे।

तमाम भाषागत साक्ष्यों के अध्ययन से यही पता चलता है कि इंडोयूरोपियन भाषा बोलनेवाले लोगों का मूल स्थान कैस्पियन सागर के प्रदेश तथा दक्षिणी रूस के मैदान थे, जहाँ से वे धीरे-धीरे बहुत से कबीलों में बँट गए और नए चरागाहों की खोज में तथा जिस भी क्षेत्र से गुजरे वहाँ से अपने भाषाई भंडार में शब्दों को जोड़ते हुए यूनान, एशिया माइनर, ईरान तथा भारत में फैल गए। इस समय तक वे आर्य कहलाने लगे थे, जिन्होंने ईरान में जाकर   अवेस्ताकी रचना की और भारत में आकर वेदों की रचना की थी।

(साप्ताहिकी में अगली बार पढ़िए आर्यों के आगमन या प्रस्थान के विषय में आधुनिक जेनेटिक साइंस क्या कहता है)

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