बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जहाँ कांग्रेस ग्राम-अभिमुख संस्था बनी और उसने खादी तथा हथकरघा उद्योगों को प्रश्रय देना शुरू किया, वहाँ जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने जमीदारों के जुल्म के खिलाफ किसानों के नये आंदोलन को अपना समर्थन दिया। इस आंदोलन में, विशेषकर अवध में, वे सक्रिय हिस्सा लेने लगे। जवाहरलाल की विचारधारा पर इसका स्थायी असर रहा। जमींदारी उन्मूलन कार्यक्रम इसी आंदोलन की देन है। 1926 के पश्चात जवाहरलाल ने जो विदेश यात्रा की उससे समाजवाद के प्रति उनमें एक नया आकर्षण पैदा हुआ, जिसका असर धीरे-धीरे कांग्रेस की आर्थिक नीति पर होने लगा।
1929 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने सामाजिक–आर्थिक परिवर्तन का जो प्रस्ताव पास किया, वह अपने आपमें एक अनोखा प्रस्ताव था। इसमें पहली बार कहा गया कि भारतीय जनता की गरीबी, कंगाली के लिए सिर्फ भारत का विदेशियों द्वारा शोषण जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसका कारण वर्तमान आर्थिक व्यवस्था है। अपने स्वार्थ के लिए विदेशी हुकूमत शोषण के आधारों को जीवित रखना चाहती है। जनता की दरिद्रता और कंगाली दूर करने और जनसाधारण का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिए वर्तमान आर्थिक और सामाजिक ढाँचे में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना पड़ेगा और जो भयंकर विषमताएं अस्तित्व में हैं, उन्हें दूर करना पड़ेगा। इस प्रस्ताव में सीधे मार्क्सवादी मकसद को कबूल नहीं किया गया था, लेकिन इसके पीछे जो भावना थी, वह मोटे तौर पर समाजवादी दर्शन से मिलती-जुलती थी।
इसी वर्ष के अंत में लाहौर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और उसमें पूर्ण स्वराज्य का सिद्धांत कबूल किया गया। अपने अध्यक्षीय भाषण में, हिंदुस्तान की आर्थिक समस्याओं का समाधान समाजवाद में है, ऐसा जवाहरलाल ने कहा था। 1931 में कराची कांग्रेस अधिवेशन में मुख्यतः उनकी प्रेरणा से और गांधीजी के समर्थन में मौलिक अधिकारों और आर्थिक कार्यक्रमों के बारे में एक प्रस्ताव पारित हुआ था। आज हमारे संविधान में जो मौलिक अधिकार गिनाए गए हैं और निर्देशक सिद्धांतों के अध्याय में जिन सिद्धांतों की चर्चा की गयी है, उनके पीछे 1931 के कराची प्रस्ताव की ही पृष्ठभूमि है।
कराची अधिवेशन में किसानों पर लगे लगान को घटाने तथा अलाभकर जोतों पर लगान आवश्यक सीमा तक या संपूर्ण माफ करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया था। इस तरह की छूट देने से छोटे जमींदारों को जो नुकसान होनेवाला था, उसके लिए उनको भी कुछ राहत देने का आश्वासन कराची के प्रस्ताव में दिया गया था। चूंकि 1930 का सत्याग्रह नमक टैक्स के विरोध में हुआ था, इसलिए स्वभावतः ही कराची कांग्रेस अधिवेशन में इस टैक्स को हटाने की माँग की गयी। कराची अधिवेशन ने पूरे समाजवादी कार्यक्रम तो नहीं अपनाए, लेकिन उसने इस उसूल को मान लिया कि महत्त्वपूर्ण बुनियादी उद्योग राज्य के नियंत्रण में लाये जाएंगे। कराची प्रस्ताव में कुछ हेरफेर करके बंबई की अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में इसकी पुष्टि की गयी। बंबई के संशोधित प्रस्ताव में किसानों के कर्ज की बात उठायी गयी थी और महाजनों के शोषण पर लगाम लगाने के मुद्दे को भी स्वीकारा गया था।
कांग्रेस में बढ़नेवाली समाजवादी प्रवृत्तियों के चलते तथा वर्ग शोषण एवं वर्ग संघर्ष की चर्चा के कारण निहित स्वार्थ वाले तत्त्वों में घबराहट पैदा हो गयी। जमीदार वर्ग में से कुछ लोग कांग्रेस के समर्थक थे। अब उनके द्वारा कांग्रेस नेतृत्व पर दबाव पड़ने लगा। यूपी लगान रोको आंदोलन से वे विशेषकर भयभीत थे। उनके प्रभाव में आकर कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पास करके जमींदारों को आश्वासन दिया कि लगानबंदी कार्यक्रम का यह मतलब नहीं है कि कांग्रेस वर्गयुद्ध चाहती है। प्रस्ताव में वर्गयुद्ध तथा बिना मुआवजा जायदाद जब्त करने की बात को गैर-जिम्मेदाराना ठहराया गया। लगानबंदी के कार्यक्रम के बारे में यह सफाई दी गयी कि यह जमीदारों के विरोध में न होकर आर्थिक मंदी की वजह से पीड़ित किसानों को राहत पहुँचाने की दृष्टि से एक उपाय है। प्रस्ताव में स्पष्ट किया गया कि किसी भी न्यायोचित हित को, जिसका राष्ट्रीय कल्याण से टकराव नहीं है, ठेस पहुँचाने की कांग्रेस की मंशा नहीं है। अतः कांग्रेस सभी जमींदारों और धनिक वर्ग से अपील करती है कि वे स्वतंत्रता आंदोलन के कार्य में कांग्रेस की मदद करें।
1934 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी द्वारा एक और प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि जहाँ कांग्रेस विभिन्न विचारधाराओं और गुटों का स्वागत करती है, वहाँ निजी जायदाद जब्त करने और वर्ग युद्ध भड़काने जैसी गैर-जिम्मेदाराना बातों की भी निंदा करती है। वर्किंग कमेटी कांग्रेस जनों को आगाह करती है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने बंबई बैठक में जो अपनी नीति निर्धारित की उसमें न बिना मुआवजा निजी संपत्ति जब्त करने की बात है, न ही वर्गयुद्ध चलाने की बात है। वर्किंग कमेटी की यह मान्यता है कि संपत्ति को जब्त करने की बात या वर्गसंघर्ष की बात कांग्रेस के अहिंसा के उद्देश्य के विपरीत है। साथ ही साथ कांग्रेस यह कहना चाहती है कि वह निजी संपत्ति का इस्तेमाल सही तरीके से करवाना चाहती है जिससे कि खेतिहर मजदूरों और किसानों का शोषण न हो सके और पूँजी तथा श्रम के बीच स्वस्थ एवं सहयोगपूर्ण संबंध स्थापित हों।
इसमें संदेह नहीं कि उपरोक्त दोनों प्रस्ताव स्वतंत्रता आंदोलन की आर्थिक और सामाजिक क्रांति अभिमुख गति में ब्रेक लगानेवाले थे। इससे न सिर्फ नयी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ बल्कि जवाहरलाल नेहरू भी इस पर बहुत नाराज हुए। उन्होंने गुस्से में गांधीजी को चिट्ठियाँ लिखीं। समाजवादियों ने भी इस प्रस्ताव के बारे में गांधीजी से विस्तार से बात की। जवाहरलाल को खुश करने और कांग्रेसी समाजवादियों के ‘तुष्टिकरण’ के लिए वर्किंग कमेटी ने एक स्पष्टीकरण का प्रस्ताव पास किया जिसमें कहा गया कि जून के प्रस्ताव का मतलब किसी गुट या दल की आलोचना करना नहीं था, न ही यह कांग्रेसी समाजवादी पार्टी और उसके प्रस्तावों की निंदा थी। इस प्रस्ताव का मतलब सिर्फ गैर-जिम्मेदाराना बकवास पर रोक लगाना था।