स्वतंत्रता प्राप्ति तक के कांग्रेस के आर्थिक कार्यक्रमों और औद्योगिक तथा भूमि संबंधी नीतियों का सिंहावलोकन हमने दिया। यह स्पष्ट है कि 1929 के बाद कांग्रेस के कार्यक्रमों पर धनिक वर्ग का प्रभाव कुछ हद तक कम होने लगा था और किसानों तथा गरीबों के हितों के कार्यक्रमों को कांग्रेस द्वारा स्वीकृति दी गयी थी। कांग्रेस की नीतियों में यह जो जनता-अभिमुख परिवर्तन हुआ, उसका उसे पर्याप्त लाभ भी मिला। 1937 और 1946 में हुए प्रांतीय विधानमंडलों के चुनावों में कांग्रेस ने इतना जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त किया कि उसने लगभग सभी साधारण सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस का सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रम बहुत आकर्षक नहीं बन पाया, न ही उसका प्रसार और फैलाव कारगर ढंग से हो सका। इसके फलस्वरूप उसका प्रभाव मुस्लिम हलकों में (एक सीमाप्रांत का अपवाद छोड़कर) अन्यत्र कहीं नहीं जम पाया। पंजाब और बंगाल में कांग्रेस शोषित वर्गों की जमात के रूप में नहीं उभरी बल्कि महाजन और जोतदारों की ही प्रतिनिधि मानी जाती रही। बढ़ते जनसमर्थन के कारण भारत को स्वतंत्रता तो मिली, लेकिन कांग्रेस का प्रभाव मुसलमानों के बीच उतना न होने और मुस्लिम लीग के साथ उसका समझौता न होने की वजह से यह आजादी, यह स्वतंत्रता खंडित हो गयी। जहाँ कुछ वरिष्ठ वर्गीय लोग कांग्रेस के प्रगतिशील कार्यक्रमों से नाराज हो गए, वहाँ साधारण लोगों में उन कार्यक्रमों से इतनी चेतना आयी कि कांग्रेस की शक्ति में गिरावट के बजाय चढ़ाव ही आया। जनशक्ति और संघर्ष के बिना ब्रिटिश साम्राज्य का सफल मुकाबला संभव भी नहीं था।
राष्ट्रीय आंदोलन की सामाजिक नीति
भारत की अर्थव्यवस्था और विधि व्यवस्था पर अंग्रेजी हुकूमत का असर हमने पीछे देखा। अब दो सभ्यताओं और मूल्य-प्रणालियों के टकराव के जो नतीजे निकले उन पर हमें विचार करना है।
अंग्रेजी विद्या और विज्ञान ने हिंदुस्तान के कुछ विचारकों को अंतर्मुखी बना दिया जिससे वे अपने मुल्क की दुर्गति पर नयी दृष्टि से सोचने लगे। इस चिंतन के फलस्वरूप उनको अपने समाज में कुछ दोष दिखाई दिए जिनके चलते विगत कुछ सदियों में देश की अवनति हुई थी। उऩ्होंने सोचा कि जब तक इन दोषों को निरस्त नहीं किया जाएगा, समाज की कुरीतियों को मिटाया नहीं जाएगा, तब तक हमलोग अपनी खोयी हुई आजादी और प्रतिष्ठा को पुनः हासिल नहीं कर पाएंगे, सिर्फ राजनीतिक अधिकारों की माँग करना ही पर्याप्त नहीं बल्कि सामाजिक ढाँचे में भी सुधार अपेक्षित हैं।
19वीं शताब्दी में बंगाल और बंबई प्रांतों में इस तरह के विचार-आंदोलन का उदय हुआ और आंशिक मात्रा में मद्रास में भी। प्रारंभ में समाज सुधार और राजनीतिक अधिकार प्राप्ति की दोनों धाराएँ एकसाथ चलीं। बंगाल में राजा राममोहन राय और महाराष्ट्र में महात्मा फुले जैसे नेता समाज क्रांति के कार्य में हर अर्थ में अग्रणी थे। उन्होंने सामाजिक असमानता और धार्मिक पाखंड पर तीव्र प्रहार किया। महात्मा फुले को तो इसके लिए घर तक त्यागना पड़ा, अनेक यातनाएँ सहनी पड़ीं, अर्थात राजनीतिक माँगों की बनिस्बत उनकी निगाह में सामाजिक सुधार महत्त्वपूर्ण हैं।
1885 में कांग्रेस की स्थापना होने के कुछ ही वर्षों बाद कांग्रेस ने अपने सालाना अधिवेशनों के साथ-साथ समाज सुधार सम्मेलन भी बुलाए थे। इन सम्मेलनों में बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षण तथा समाज की अन्य बुराइयों पर प्रस्ताव पारित किए जाते थे। लेकिन इसी बीच भारत की प्राचीन परंपरा और धर्म से प्रभावित एक नयी विचारधारा भी सामने आयी। बंगाल में अरविंद घोष और महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक इसके पीछे थे। उन्हें समाज सुधार आंदोलन को राजनैतिक आंदोलन के साथ-साथ चलाने की नीति पसंद नहीं थी। न उन्हें यह मंजूर था कि विदेशी ताकत हिंदुओं के सामाजिक और धार्मिक मामलों में दखलंदाजी करे। बल्कि इनका कहना था कि भारत जिस बीमारी से ग्रस्त है, वह परतंत्रता की बीमारी है और स्वराज्य ही उसका एकमात्र इलाज है। स्वराज्य प्राप्ति के बाद हम लोग सामाजिक और धार्मिक सुधारों की बात सोच सकते हैं।
महिलाओं के उत्थान के प्रश्न पर सुधारवादी पक्ष (रानाडे) का दृष्टिकोण उग्रवादी पक्ष (तिलक) के दृष्टिकोण से भिन्न था। निःसंदेह निर्भयता, त्याग और तपस्या के मामले में लोकमान्य तिलक उस जमाने के राष्ट्रीय नेताओं में अग्रणी थे। स्वराज्य प्राप्ति के लिए उन्होंने तीन बार जेल काटी, किंतु सामाजिक सुधार के प्रश्न पर वे जो राय अभिव्यक्त करते थे, उसको सुधारवादी नहीं कहा जा सकता था, बल्कि वह एक तरह से प्रतिक्रियावादी होती थी। इसके विपरीत सुधारवादी पक्ष पुरुषों की तरह महिलाओं को भी समान शिक्षा और दर्जा दिलाने के पक्ष में था। तिलक जी लड़कों और लड़कियों की समान शिक्षा के विरोधी थे। उनका कहना था कि महिलाओं का कर्तव्य-क्षेत्र पुरुषों के कर्तव्य-क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न है अतः दोनों को एक ही तरह की शिक्षा देना अनुचित होगा। तिलक जी ने आदर्श महिला की जो व्याख्या की थी उसमें पति-परायणता और बच्चों की देखभाल प्रमुख गुण थे। एक तरह से तिलक सुधारवादियों की खिल्ली उड़ाते थे।
इसके विपरीत रानाडे, आगरकर, गोखले आदि नेताओं की राय इस प्रश्न के बारे में कुछ भिन्न थी। उनकी हार्दिक मान्यता थी कि स्त्री-शिक्षा के बिना समाज की उन्नति नहीं हो सकती, न देश स्वराज्य के योग्य बल सकता है।
इसी तरह बाल-विवाह के बारे में भी दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में मतभेद था। सुधारवादी एक अरसे से बाल-विवाह के प्रश्न पर आंदोलन कर रहे थे और माँग कर रहे थे कि सरकार सम्मतिवय (एज ऑफ कंसेंट) के बारे में कानून पास करे। इसके विपरीत तिलक पक्ष का यह कहना था कि हमारे शास्त्रों के मामले में ब्रिटिश सरकार को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। यह हमारा निजी मामला है। जो लोग सरकारी हस्तक्षेप की माँग करते हैं वे हमारी राष्ट्रीय अस्मिता पर कुठाराघात करते हैं, जनता के अंदर हीन भावना पैदा करते हैं। सम्मतिवय के बारे में कोई सीमा निर्धारित करने का अधिकार प्रशासन को नहीं है। न इस तरह की छूट हमारे शास्त्रों ने दी है। इसके उत्तर में रानाडे-तेलंग आदि का कहना था कि प्राचीन हिंदू समाज में बाल-विवाह जैसी कुप्रथा नहीं थी और सम्मतिवय संबंधी सीमा निर्धारण हमारे शास्त्रों के बिल्कुल अनुरूप है। स्वयं रामकृष्ण भण्डारकर जो संस्कृत के प्रकांड पण्डित थे उन्होंने भी उक्त विचार को बिल्कुल उचित ठहराया था और इस प्रकार सुधारवादियों के पक्ष में अपनी राय व्यक्त की थी। हालांकि भंडारकर राजनीति से बिल्कुल अलग रहते थे।
पूना में 1895 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। कांग्रेस के पंडाल का इस्तेमाल सामाजिक सम्मेलन के लिए भी करने का निर्णय किया गया। इस पर तिलक पक्ष के लोगों ने एतराज व्यक्त किया और पंडाल जला डालने की धमकी तक दे डाली। विवाद इस पर कुछ उग्र रूप धारण कर गया, अतः सामाजिक सम्मेलन का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। इस तरह सामाजिक सुधार आंदोलन और राजनैतिक सुधार आंदोलन दो अलग-अलग धाराओं में बँट गया।