— आनंद कुमार —
भारतीय समाजवादी आन्दोलन की लम्बी नेतृत्व श्रृंखला में किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितम्बर 2004) एक अनूठे नायक थे। उनके जीवन में समाजवादी विचारक की तेजस्विता, नि:स्वार्थ समाजसेवक की सात्विकता, सत्याग्रही का नैतिक बल और निडरता का सुंदर संगम था। उनका जीवन भारत में समाजवाद की संभावना की तलाश का पर्यायवाची था। इस लक्ष्य के लिए वह आजीवन सत्ता के राजपथ के बजाय सिद्धांत के जनपथ पर चले। उन्होंने डा. लोहिया द्वारा प्रतिपादित ‘निराशा के कर्तव्य’ को अपना जीवन दर्शन बनाया। इसलिए पचास बरस की सार्वजनिक जिन्दगी में उनके व्यक्तित्व का आकर्षण और विचारों में प्रवाह बना रहा। किशन पटनायक एक ऐसे मार्गदर्शक थे जिन्होंने अपने को संतति और संपत्ति के मोह की आँधी में भी अडिग रखा। उनका अपना एक पैतृक परिवार था। वाणी जी से 1969 में विवाह के बाद एक निजी जीवन भी बना। वैसे वाणी जी ने लिखा है कि‘किशन जी के आदर्शों को ध्यान में रखकर घर चलाना कोई हँसी का खेल नहीं था।’ लेकिन यह सच जानना चाहिए कि किशन जी ने वाणी जी के सहयोग से ही गांधी-लोहिया-जयप्रकाश के बाद की राजनीति में ‘वोटबैंक’ के लिए सिद्धांतों को भुलाने की संसदवादी बीमारी के बीच विचार-प्रचार और राजनीतिक प्रशिक्षण के जरिये नए नेतृत्व के निर्माण की जिम्मेदारी को सँभाला।
यह सुखद सच है कि ओड़िशा और बिहार से लेकर केरल और कर्नाटक में अनगिनत युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन में किशन जी के पारस स्पर्श से अविश्वसनीय बदलाव आया क्योंकि उन्होंने ‘साधनहीन वंचित भारत’ के विभिन्न जन आंदोलनों से लगातार जुड़े रहने की जोखम भरी जिन्दगी अपनायी। अगर ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया!’, ‘भारत शूद्रों का होगा!’, ‘नयी गुलामी’ और गांधी, नेहरू और आम्बेडकर का पुनर्पाठ उनके बौद्धिक योगदान के बहुचर्चित उदाहरण हैं, तो छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी (1975) और समता संगठन (1980) से लेकर समाजवादी जन परिषद (1995) और जन-आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (1997) उनके राजनीतिक साहस के प्रतीकों में गिने जा सकते हैं। ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ से शुरू विचार प्रवाह ‘चौरंगी वार्ता’, ‘सामयिक वार्ता’, ‘भूमिपुत्र’, ‘विकल्प विचार’ जैसी पत्रिकाओं के जरिये बनाये रखना उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का परिणाम थे।
विस्मयकारी उपलब्धियाँ
किशन पटनायक की आधी शताब्दी की विस्तृत जीवनयात्रा में अनेकों विस्मित करनेवाली उपलब्धियाँ रहीं। वह समाजवादी आन्दोलन से सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी, बांकेबिहारी दास और निशामणि खूँटिया के सौजन्य से 1951 में ही जुड़ गए। वह डा. लोहिया के सबसे कम उम्र के बौद्धिक सहयोगी थे जिसे 29 बरस की उम्र में ‘मैनकाइंड’ का (1959) में सम्पादक बना दिया गया। वह 1960 में ओड़िशा लौटे और अखिल भारतीय सोशलिस्ट सत्याग्रह में बरहमपुर में पहली जेलयात्रा हुई।
किशन पटनायक 1962 के आम चुनाव में जेल से ही कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी के दबंग ज़मींदारों के खिलाफ संबलपुर से चुने गए थे। वह तीसरी लोकसभा के सबसे कम उम्र के सांसद थे और उन्होंने डा. लोहिया, मधु लिमये, रामसेवक यादव, और मनीराम बागड़ी के कुल पाँच सदस्यीय सोशलिस्ट संसदीय दल के सदस्य के रूप में संसद को समाज का दर्पण बनाने में जबरदस्त योगदान किया। यह शोचनीय बात है कि ‘लोकसभा में किशन पटनायक’ का छापना पचपन साल बाद भी बाकी है। हमें अशोक सेकसरिया और संजय भारती द्वारा संपादित संक्षिप्त जीवनकथा (किशन पटनायक – आत्म और कथ्य (2017) में शिवानन्द तिवारी के सौजन्य से उपलब्ध सिर्फ एक बरस (1965-66) के संसदीय कार्यों का विवरण पढ़ने का मौक़ा मिला है और कोई भी उनके सरोकार के विस्तृत दायरे से अभिभूत हो जाएगा।
किशन जी ने ही 1966 में देश के संसदीय इतिहास में पहली बार भूख से मौत के सवाल पर एक ही महीने में दो बार (30 मार्च व 29 अप्रैल, 1966) को ‘आधी-अधूरी बहस’ चलायी और सदन से निष्कासित किये गए। उनके प्रयास का सरकार की तरफ से प्रबल विरोध किया गया। खाद्य और कृषि मंत्री सी.सुब्रह्मण्यम ने यह तो माना कि ओड़िशा सूखे की चपेट में था और बलांगीर, कोरापुट, कालाहांडी और सुंदरगढ़ जिलों में असर हुआ है। संबलपुर, कटक और ढेंकानाल भी सूखे से प्रभावित हैं। लेकिन यह नहीं स्वीकार किया कि ‘भूख से मौत हुई है’! इस पर डा. लोहिया, मधु लिमये, मनीराम बागड़ी और प्रो. एन.जी. रंगा ने किशन जी के स्वर में स्वर मिलाया। एक महीने बाद किशन पटनायक ने कालाहांडी और कई अन्य जिलों की जमीनी हालत को बताने के लिए महुए के फूल, इमली के बीज और बज्रमूली के दानों को सदन के पटल पर रखकर सरकार को शर्मिन्दा किया। इसपर सरकार ने उनको सदन से ही निलंबित करने का प्रस्ताव रखने का दुस्साहस दिखाया।
सांसद के रूप में किशन पटनायक ने एक तरफ कालाहांडी की भुखमरी से लेकर दिल्ली के झुग्गी–झोपड़ी वाले गरीबों के सवाल उठाकर संसद की नींद तोड़ी तो दूसरी तरफ नगालैंड, सिक्किम, सीमा सुरक्षा और भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध सुधार को मुद्दा बनाया। खाद्य समस्या, महँगाई, दवाओं का दाम, अर्थनीति और शिक्षा पर गंभीर बातें रखीं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बारे में ठोस सुझाव रखे। ट्रेन के कोच सहायकों (अटेंडेंट) की दयनीय कार्यदशा, दंडकारण्य में पुनर्वास की समस्या, इस्पात कारखाने और खदान, छोटी पार्टियों को चर्चा में अवसर देने और विदेशी ताकतों द्वारा ‘गैस युद्ध’ की तैयारी तक उनके सरोकार के दायरे में थे।
सरकारी खर्चे से विलासिता का विरोध
किशन पटनायक ने आजादी के बाद विलासिता और व्यक्तिगत खर्च बढ़ने की प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज उठायी। उन्होंने डा. लोहिया की सलाह पर प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू से सीधे 14 अगस्त 1962 को एक पत्र लिखकर जानकारी माँगी कि प्रधानमन्त्री के रख-रखाव पर सरकारी खजाने से रु. 25 हजार रु. रोज का खर्च किया जा रहा है। इसका श्री नेहरू की तरफ से 15 अगस्त को जवाब आया। किशन जी ने 15 अगस्त के पत्र का तुरंत जवाब लिखकर भेजा। इस पत्र का जवाब भी 24 घंटे के अंदर नेहरू जी ने भेज दिया। किशन पटनायक को नेहरू जी की इस तत्परता पर सुखद आश्चर्य हुआ। तब एक लोकसभा सदस्य के पत्र का बहुत महत्त्व था। यह संसदीय प्रथा थी कि किसी संसद सदस्य के पत्र का मंत्री द्वारा जवाब देना आवश्यक होता था।
किशन जी ने इस प्रसंग को याद करते हुए यह बताया है कि, ‘मैंने नेहरू को चार पत्र लिखे। अंतिम पत्र में मैंने लिखा कि वह पत्रों का जवाब ठीक से नहीं दे रहे हैं और यह भी कह रहे हैं कि उनके पास मेरे साथ, लम्बा पत्र-व्यवहार करने का समय और धैर्य नहीं है। ऐसी स्थिति में मैं उनके साथ हुए पत्र-व्यवहार को प्रकाशित करने जा रहा हूँ…लोहिया ने एक प्रेस सम्मलेन बुलाया जिसमें वे स्वयं उपस्थित थे, लेकिन संवाददाताओं के प्रश्नों का मुझे जवाब देना पड़ा। मैंने जवाब देने के साथ पत्रों की कापी संवाददाताओं को दे दी। सारे अखबारों ने इसे बड़ी खबर के रूप में छापा।’ (किशन पटनायक : आत्म और कथ्य; पृष्ठ 60)
समाजवादी युवजन शक्ति का निर्माण
किशन जी 36 बरस की उम्र में 1966 में समाजवादी युवजन सभा के अध्यक्ष बनाए गए और अगले 4 बरस में विद्यार्थी–युवा मोर्चों पर समाजवादी नौजवानों की कश्मीर से लेकर केरल तक एक लम्बी कतार तैयार हो गयी। जनेश्वर जी उनके साथ महामंत्री थे। 1966 के एडवोकेट्स एक्ट का विरोध और 1968 के अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन से लेकर 1969 के ‘राष्ट्रीय युवजन मार्च’ तक उन्होंने कई यादगार अभियानों का संचालन किया। अनेकों प्रशिक्षण शिविर संपन्न किये गए।
उनके कार्यकाल में समाजवादी युवजन सभा की तरफ से एक पाँच-सूत्री युवजन माँगपत्र तैयार किया गया जिसे शीघ्र ही राष्ट्रीय माँगपत्र जैसा महत्त्व मिला। इसमें सभी को उच्च शिक्षा के अवसर का आह्वान था और उच्च शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम और हाजिरी की अनिवार्यता हटाने का सुझाव था। 18 बरस के युवक-युवतियों को रोजगार और वोट का अधिकार देने को जरूरी बताया गया। सभी कालेजों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य सदस्यता और प्रत्यक्ष चुनाव के जरिये छात्रसंघों की स्थापना की माँग की गयी। इसी माँगपत्र से कई नारे पैदा हुए थे– ‘देशी भाषा में पढ़ने दो, हमको आगे बढ़ने दो!’, ‘अँगरेज़ गए अंग्रेजी जाए, देशी भाषा राज चलाए!”, ‘खुला दाखिला – सस्ती शिक्षा, लोकतंत्र की यही परीक्षा!’, ‘18 बरस से दो अधिकार – रोज़गार और मताधिकार’…
‘जन’ और अन्य पत्रिकाओं में शिक्षा, बेरोजगारी और विद्यार्थी असंतोष पर लेख और समाचारों को महत्त्व दिया गया। स्वयं डा. लोहिया ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उद्घाटन से लौटने पर अध्यक्ष ब्रजभूषण को एक लम्बा पत्र लिखा जो ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक पुस्तिका के रूप में समाजवादी युवजनों का जरूरी दस्तावेज बन गया। 1966 में एक ‘विद्यार्थी मार्च’ की चेष्टा में डा. लोहिया समेत सभी समाजवादी गिरफ्तार किये गए और सरकार ने दमन के बल पर विद्यार्थी प्रदर्शन को विफल करा दिया। लेकिन तीन बरस बाद इसके प्रति-उत्तर में किशन पटनायक के नेतृत्व में हजारों युवजन दिल्ली प्रदर्शन के लिए देश भर से पहुँच गए। इस बीच देश भर में समाजवादी युवजन सभा और अन्य युवा संगठनों ने अनेकों कालेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के गठन का अभियान चलाया। इसीलिए 1967 और 1989 में लोकसभा के चुनावों में हार के बावजूद उनका समाजवादी युवजनों और गाँधी-लोहिया-जयप्रकाश परम्परा के लोगों में प्रभाव बना रहा। मार्क्स और आम्बेडकर को माननेवालों के बीच भी उनकी स्वीकार्यता थी।
लोहिया विचार की धारावाहिकता
डा. लोहिया अपने जीवन के अंतिम वर्षों में किशन पटनायक-ओमप्रकाश दीपक-कृष्णनाथ की त्रिमूर्ति को अपने सलाहकारों की भूमिका में रखते थे। इससे पहले इन तीनों को 1956 में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद हैदराबाद बुलाकर समाजवादी पत्रिकाओं के सम्पादन में सहयोगी बनाया था। तीनों में एक दूसरे के प्रति अपनत्व भी था। ओमप्रकाश दीपक का 1975 में कम आयु में देहांत हो गया। कृष्णनाथ समाजवादी आन्दोलन के विवादों से अलग होकर अच्युत पटवर्धन के प्रोत्साहन से 1974 से बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन, जे. कृष्णमूर्ति और दलाई लामा की चिंतन परम्परा से जुड़ गए। इस प्रकार क्रमश: किशन जी की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी।
डा. लोहिया के निधन के बाद के समाजवादी बिखराव ने किशन जी को‘एकदम अकेला’ बना दिया। दो गुट बन गए थे– एक मधु लिमये और जार्ज फर्नांडीज का, और दूसरा, राजनारायण – कर्पूरी ठाकुर का। यह दुविधा-भरी स्थिति थी क्योंकि वह कहते थे कि दोनों गुटों के मतभेद न रहें। इस खींचतान ने पार्टी से मोहभंग पैदा किया। फिर भी ‘सोशलिस्ट विचारों से प्रतिबद्धता अलबत्ता और बढ़ गयी.’.. इसी के बाद किशन पटनायक नि:संकोच ओमप्रकाश दीपक, रमा मित्रा, दिनेश दासगुप्ता, इंदुमति केलकर, केशवराव जाधव और राम इकबाल के साथ ‘लोहिया विचार मंच’ के संस्थापक बने। इससे समाजवादी आन्दोलन के कई वरिष्ठ नेताओं को नाराजगी हुई। फिर भी 1974-77 के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का ओमप्रकाश दीपक और किशन पटनायक को भरपूर विश्वास मिला। किशन पटनायक की सर्वोदय के सत्याग्रही पक्ष से निकटता हुई और गांधी-लोहिया-जयप्रकाश की धारा की पहचान बनी। जे.पी. ने किशन पटनायक से ही‘सामयिक वार्ता’ के लिए एक ख़ास बातचीत में अपनी सम्पूर्ण क्रांति और लोहिया की सप्तक्रांति को पर्यायवाची बताया था। इसके साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विसर्जन का भी सुझाव दिया था। इसी सुझाव के प्रतिक्रिया स्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सर्वोच्च नेतृत्व जयप्रकाश नारायण से मिलने पटना पहुँचा और आर.एस.एस. की तरफ से मुसलमानों के लिए रुख परिवर्तन की जे.पी. की सलाह के बारे में अखबारों में स्पष्टीकरण जारी हुआ।
1979 में जे.पी. के देहांत के बाद किशन जी 2004 तक अशोक सेकसरिया और सच्चिदानंद सिन्हा जैसे सहयात्रियों के साथ नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत बने रहे। प्रो. नन्जुद्स्वामी के साथ कर्नाटक रैयत संघ, देवनूर महादेवन और डी.आर. नागराज के साथ दलित संघर्ष समिति, मेधा पाटकर के साथ नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बनवारीलाल शर्मा के साथ आजादी बचाओ आन्दोलन, ब्रह्मदेव शर्मा के साथ भारत जन आन्दोलन, उत्तर बंगाल तपसीली जाति ओ आदिवासी संगठन, असम आन्दोलन, पंजाब में प्रतिरोध, महाराष्ट्र में एनरान विरोधी आन्दोलन और तवा बाँध विस्थापित आदिवासी आन्दोलन को बल दिया। ओड़िशा में गंधमार्दन आन्दोलन, काशीपुर आन्दोलन, गोपालपुर विस्थापन विरोध, चिल्का झील बचाओ आदि को प्रेरित किया।
सिद्धांत निष्ठा के खतरे
किशन पटनायक बेहद संकोची और विनम्र व्यक्ति थे। शिष्टाचार निभाते थे। व्यक्तिगत कटुता और आलोचना से परहेज रखते थे। अपने समाजवादी अग्रजों के प्रति आदरभाव रखते थे। उन्होंने मधु लिमये की श्रद्धांजलि में लिखा है कि, ‘उम्र में मधु जी मामूली बड़े थे लेकिन मेरे बहुत पहले से समाजवादी आन्दोलन में सक्रिय थे। जब मैं दल की एक राज्य इकाई का कार्यालय सचिव था, मधु जी राष्ट्रीय संयुक्त मंत्री थे और एक किताब लिख चुके थे। एक व्यक्ति के तौर पर और एक राजनीतिक नेता के रूप में मधु जी जितने ऊँचे, मँजे हुए और व्यवस्थित थे, उतना मैं कभी नहीं हो पाया। संसद और राजनीति को मधु जी ने जिस हद तक प्रभावित किया, वहाँ मैं कभी भी नहीं पहुँच पाऊँगा।’ इसी प्रकार ओमप्रकाश दीपक को याद करते हुए बताया है कि ‘दीपक जी में बहुमुखी प्रतिभा थी। वे एक अच्छे लेखक थे। जल्दी अनुवाद कर लेते थे। किसी भी प्रस्ताव का तुरंत मसविदा तैयार कर देते। मेरे में यह योग्यता नहीं थी।’
लेकिन उनका मानना था कि डा. लोहिया के देहांत के बाद हमें एक ऐसा प्रतिष्ठित व्यक्ति चाहिए था जो समाजवादी आन्दोलन को संचालित कर सके। एस.एम. जोशी, राजनारायण और मधु लिमये – ये तीन प्रतिष्ठित नेता हमारे बीच थे। लेकिन इन्होंने कई कारणों से हमारी अपेक्षा पूरी नहीं की। इसलिए अपने सिद्धांत-निर्वाह के लिए अलग रास्ता अपनाना पड़ा। इस सन्दर्भ में यह प्रशंसनीय रहा कि किशन जी ने समाजवादी विचार-प्रवाह बनाए रखने के लिए साधन विहीनता के बावजूद हिंदी और ओड़िया में पत्रिकाओं और पुस्तिकाओं का क्रम बनाये रखा। इससे उनका नयी पीढ़ी से जुड़ाव सघन हुआ।
यह दुर्भाग्य की बात हुई कि किशन पटनायक के निकट युवा सहयोगी उनके द्वारा कौशल संपन्न होने के बाद अलग अलग ठिकानों पर चले गए। ‘सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली’ के सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन के अनुसार, ‘समता संगठन’ (बंगलूरु;1980) बनाते समय जो उत्साह बना था उसे ‘एक तितरफे हमले’ ने तोड़ दिया। कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े वर्ग के प्रतिभावान युवजनों को टिकट देकर अपने साथ जोड़ लिया। सत्येन्द्र नारायण सिंह ने अगड़े वर्ग के लड़कों को। बाकी बचे कार्यकर्ताओं में से कई को विदेशी मदद से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं ने तोड़ लिया। ‘वार्ता’ चलाने और समता प्रकाशन खड़ा करने की योजना धरी रह गयी। अपने कार्यकर्ताओं को उनकी जरूरत का न्यूनतम खर्च भी न दे सकनेवाले किशन पटनायक के लिए यह सबसे जादा दुख का वक्त था। तभी उन्होंने विदेशी फंड से सामाजिक काम करने के बारे एक बड़ी बहस चलायी। गरीब और पिछड़े वर्गों से निकलने वाले अपने ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को फिसलते देखना उन्हें सबसे जादा कष्ट देता था। अगर किशन जी की अपनी तैयार की गयी फौज उनके साथ बनी रहती तो मुल्क की राजनीति का बहुत बेहतर रूप होता (किशन पटनायक : आत्म और कथ्य (2017) पृष्ठ 183-184)।
आनंद जी ने किशनजी के राजनीतिक/वैचारिक सफर को अच्छी तरह से सामने रखा है। उनका यह लेख नए युवा पाठकों के लिए बड़े महत्व का है।