प्रशासनिक सुधार की चुनौती

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

स विषय पर लिखते हुए मुझे कुछ पीड़ा होती है। लोकतंत्र को आम आदमी के लिए अर्थवान बनाने की दृष्टि से, भ्रष्टाचार को मिटाने की सार्थक दृष्टि से तथा जनता के अधिकारों को व्यवहार में लाने के लिए भारत जैसे पूर्व उपनिवेशों के प्रशासनिक ढाँचे में सुधार सर्वाधिक महत्त्व का काम है, क्योंकि इन देशों में एक औपनिवेशिक शासन-तंत्र प्रचलित था। परंतु इसे अभी तक राजनीति का प्रमुख मुद्दा नहीं माना गया है। आश्चर्य की बात है कि राजनीति में जो लोग सचमुच जनाभिमुखी हैं, वे भी इसको जनहित की एक शर्त के रूप में नहीं देख रहे हैं।

चुनाव प्रणाली में सुधार की बात सब कोई करते हैं, प्रशासन-प्रणाली में सुधार की बात जोर देकर कोई नहीं करता है। व्यक्तिगत पीड़ा यह है कि इस सवाल को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए मैंने जो भी प्रयास किये हैं, मेरे निकटतम समूहों में भी उनका कोई प्रभाव नहीं हो पाया है। मैं मानता हूँ कि चुनाव प्रणाली में सुधार के बिना चुनाव न्यायपूर्ण नहीं होगा, लेकिन मौजूदा प्रशासन तंत्र को बदले बिना आम आदमी की स्थिति में कोई गुणात्मक फर्क नहीं होनेवाला है।

भोले लोग समझते हैं कि अगर आम नागरिकों का संपर्क विधायकों-सांसदों से घनिष्ठ होता है तो प्रजा की स्थिति बेहतर हो जाएगी। इससे प्रजा को जो भी लाभ मिलेगा वह परोक्ष ही होगा। क्योंकि प्रजा को दैनंदिन जरूरत और काम प्रशासन से पड़ता है, विधायकों से नहीं। आम आदमी का काम कलेक्टर जैसे अधिकारियों से रहता है जिन तक वह पहुँच नहीं पाता है। एक बार बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) कर्पूरी ठाकुर ने साथी राम एकबाल से कहा था, रोज सैकड़ों लोग मेरे बँगले पर पहुँच जाते हैं। राम एकबाल ने सटीक प्रतिक्रिया की- इसका मतलब है कि आपका प्रशासन बिलकुल काम नहीं कर रहा है।

स्वाधीनता पूर्व की राजनीति में गांधीजी के कारण कांग्रेस का एक बड़ा नारा और मुद्दा था कि औपनिवेशिक प्रशासन तंत्र को बदला जाएगा। स्वाधीनता आते ही नेहरू और पटेल आईसीएस अफसरों से चिपक गए। गांधीजी की मृत्यु के पहले ही सरदार पटेल ने एक बार सार्वजनिक तौर पर इंडियन सिविल सर्विस की तारीफ की। गांधीजी हैरान रह गए थे। अब ग्लोबीकरण ने इस मुद्दे को फिर उभारा है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में इससे संबंधित एक पैरा है। कहा गया है कि प्रशासन में सुधार के उद्देश्य से एक आयोग गठित किया जाएगा। अगर इस आयोग के फलस्वरूप प्रशासन का सुधार आम आदमी की सुविधा तथा अधिकारों के मद्देनजर रखकर हो जाता है, तो मैं इस सरकार की बहुत तारीफ करूँगा। मेरी अपनी पीड़ा दूर हो जाएगी।

वैसे, प्रशासन को सुधारना कोई क्रांतिकारी या वामपंथी कदम नहीं है। यह पूँजीवाद पर हमला नहीं है। यह दक्षिणपंथ तथा वामपंथ दोनों के लिए जरूरी है, क्योंकि यह कदम राज्य को विश्वसनीय बनाता है। इससे कानून का बेहतर ढंग से पालन होगा। अगर सड़क पर कोई दुर्घटना हो जाती है और उसे देखनेवाला कोई सामान्य आदमी पुलिस थाने जाकर उसकी सूचना दे पाता है तो निश्चय ही इससे कानून-व्यवस्था कायम करने में मदद होगी। इसी पूँजीवाद के रहते अगर सरकारी दफ्तरों में लोगों के वैध काम सहज ढंग से और अविलंब हो जाया करेंगे, तो लोग इतना खुश होंगे कि एक अरसे तक पूँजीवाद के समर्थक हो जाएंगे।

ब्रिटिश साम्राज्य का दिया हुआ शब्द है प्रशासन (अँग्रेजी में एडमिनिस्ट्रेशन)। वाशिंगटन यानी अमरीका का शब्द है गवर्नेन्स। विश्व बैंक के दस्तावेजों में बार-बार विकासशील देशों से आग्रह किया जाता है कि गवर्नेन्स को जल्दी बेहतर किया जाए ताकि विकास के जो कार्य निर्धारित हुए हैं, जिनके लिए कर्ज मिल रहा है और पूँजी निवेश हो रहा है, उनके कार्यान्वयन के रास्ते में प्रशासनिक बाधाएँ न आएँ। विदेशी सलाहकारों तथा निवेशकों को जरूरी सूचनाएँ, अनुमित-पत्र, अधिकार-पत्र आदि बिना विलंब के प्राप्त हो जाने चाहिए।

सूचना का अधिकार उसी गवर्नेन्स का ही हिस्सा है, अरुणा राय ने इसका स्तर बदल दिया। उन्होंने इसी अस्त्र का राजस्थान के गरीब देहातों में ले जाकर भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन के लिए इस्तेमाल किया। सूचना का अधिकार आम आदमी को मिले ताकि वह भ्रष्टाचार पर निगरानी रख सके और उससे लड़ सके।

हमें उम्मीद है कि यह आंदोलन देश के अनेक भागों में चलेगा, और इसके अनुभव से यह सीख मिलेगी कि प्रशासन का ढाँचा इतना गलत है कि सूचना के अधिकार का प्रयोग आम आदमी नहीं कर सकता है। इसके लिए प्रशासन के ढाँचे में मौलिक परिवर्तन की माँग करनी होगी। राजनीति में यह माँग व्यापक हो जाएगी तो प्रशासन में सुधार करना पड़ेगा, और साझा न्यूनतम कार्यक्रम के द्वारा नियुक्त आयोग को सोचना पड़ेगा कि अच्छा गवर्नेन्सबहुराष्ट्रीय कंपनियों तक सीमित नहीं हो सकता है। गत 24 अगस्त को व्यापारिक संघ एसोचेम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इंस्पेक्टर राज को खत्म करने का जो आश्वासन दिया है, उससे लगता है कि गवर्नेन्स में सुधार की बात उनके दिमाग में है, लेकिन इस सुधार का कोई सरोकार आम आदमी से नहीं है।

भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ा हुआ शिक्षित व्यक्ति सोचता है कि दुनिया में सर्वत्र प्रशासन का ढाँचा ऐसा ही होता है, क्योंकि नौकरशाही सब जगह है। उसको समझाना होगा कि नौकरशाही सब जगह आम आदमी के प्रति संवेदनशून्य तो होती है लेकिन प्रशासन का ढाँचा सब जगह एक जैसा नहीं है। अधिकतर विकसित देशों में प्रशासन-तंत्र सामान्य आदमी के दैनंदिन कामों में बाधक नहीं है।

फ्रांस या ब्रिटेन में सेवानिवृत्त कर्मचारी को पेंशन के लिए सालों इंतजार नहीं करना पड़ता बल्कि महीनों का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है। ब्रिटेन का पुलिसकर्मी साधारण आदमी से किस तरह बरताव करता है इसका पाठ भारत की स्कूली किताबों में अवश्य होना चाहिए- यह बताते हुए कि भारत की पुलिस-व्यवस्था ब्रिटेन की दी हुई है। भारत का शिक्षित व्यक्ति यह भी कहता है कि प्रशासन इसलिए खराब है क्योंकि यहाँ भ्रष्टाचार ज्यादा है। सत्य यह है कि प्रशासन का ढाँचा ही गलत है, इसलिए घूसखोरी ज्यादा होती है। खासकर घूसखोरी जा जो दैनंदिन अनुभव सामान्य नागरिक को होता है, वह प्रशासन की गलत व्यवस्था के कारण है। सुनवाई और विलंब- इन दो समस्याओं का समाधान हो जाए तो आम जनता और निम्न मध्यवर्ग के हिस्से का भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा।

(बाकी हिस्सा कल)

(यह लेख पहली बार सितंबर 2004 में प्रकाशित हुआ था और संभवतः यह किशन जी का अंतिम लेख है।)

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