नए विषय और नए अंदाज की युवा कविता

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— विमल कुमार —

स घर में शिशु जन्म/ ऐसा शोक है जिसमें यह घर है संतप्त/ यह शिशु है अवांछनीय, अस्वीकृत/ हर दिन यह परिवार कुछ और ढहता है/ देश का अंधा कानून आत्म मुग्ध है/अपने अंधेरे कमरे की फर्श पर बैठी/यह ग्यारह बरस की मां/किसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती है।’ -उपासना झा

हिन्दी कविता में पहली बार चाहे पुरुष रचनाकार हो या स्त्री रचनाकार, बाल विवाह की यंत्रण झेलनेवाली एक अवयस्क लड़की के माँ बनने पर कोई कविता लिखी है। एक ऐसी स्त्री जो 11 वर्ष की उम्र में ही माँ बन गई। हिंदी कहानियों में बाल विवाह को विषय जरूर बनाया गया पर कविता में नहीं। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कई लेखकों का बाल विवाह हुआ लेकिन किसी ने स्त्री के इस दुख को नहीं समझा चाहे मैथिलीशरण गुप्त हों या राहुल जी, लेकिन 21वीं सदी में एक कवयित्री ने इस पीड़ा को अनुभव किया। यह पुरुष लेखक और स्त्री लेखक की संवेदनशीलता का फर्क है। यह संसार को देखने, उसे महसूस करने की दो दृष्टियों का भी फर्क है।

21वीं सदी तक आते-आते हिंदी की समकालीन कविता ही नहीं बल्कि स्त्री कविता का भी परिदृश्य बदला है, विषय-वस्तु भी बदली है। आज हिन्दी की पूरी युवा कविता को समझे जाने, उसको विश्लेषित किये जाने की जरूरत है ताकि पता चल सके कि भूमंडलीकरण और बाजार तथा दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के दौर में कविता अपनी क्या भूमिका निभा रही है। वह क्या कह रही है, क्या रच रही है?

सुपरिचित कवि, संपादक और आलोचक निरंजन श्रोत्रिय ने एक बड़ा ही नेक कार्य शुरू किया है। वह अब तक 8 ‘युवा द्वादश’ निकाल चुके हैं। यह नौवाँ है। यूँ अब तक 144 युवा कवियों को रेखांकित करने का उन्होंने काम किया है। किसी को इन कवियों के चयन पर आपत्ति हो सकती है। कोई यह भी कह सकता है कि इतने सारे कवियों की कविताओं को संकलित करने की क्या जरूरत है? कहीं युवा कविता के नाम पर निरंजन जी ने एक भीड़ तो नहीं खड़ी कर दी है, लेकिन देखते देखते उनकी यह सीरीज़ भविष्य में हिन्दी की युवा कविता का एक संदर्भ दस्तावेज जरूर बन गयी है। इस बात पर सबकी सर्वानुमति जरूर होगी।

इन 144 कवियों में कम से कम एक चैथाई से अधिक कवयित्रियां हैं। यह इस बात का द्योतक है कि समकालीन युवा कविता में अब स्त्री कविता एक प्रमुख और निर्णयकारी स्वर है। उसे अब हाशिये पर और अधिक दिनों तक नहीं धकेला जा सकता। ये स्त्रियां अपनी प्रतिभा के बल पर हिंदी कविता की मुख्यधारा में शामिल हो गयी हैं, या यूं कहा जाए कि वे ही मुख्य धारा का निर्माण कर रही हैं क्योंकि उन्होंने हिंदी कविता के पूरे परिदृश्य को ही बदल दिया है। ये स्त्रियाँ हिन्दी कविता में अपना एजेंडा ही नहीं, साहित्य का भी नया एजेंडा रख रही हैं। उपासना झा की जिन काव्य-पंक्तियों को ऊपर उद्धृत किया गया है, वह उसका एक ताजा सबूत है। इस संग्रह में पांच कवयित्रियां हैं और अब हिन्दी साहित्य में उनकी पहचान पुख्ता बन गयी हैं। निरंजन जी ने उपासना झा के अलावा सोनी पाण्डेय, आभा बोधिसत्व, अनामिका चक्रवर्ती और आरती की कविताओं को भी शामिल किया है। शेष कवियों में युनूस ख़ान, विवेक चतुर्वेदी, विहाग वैभव, गणेश गनी, प्रदीप सैनी, ओम नागर और देवेश पथ सारिया भी शामिल हैं। युवा कवियों पर बातचीत करने से पहले हम जरा युवा कवयित्रियों के संसार को पहले जांच-परख लें। उनका यह संसार पुरुष कवियों से कितना भिन्न है? उनकी दृष्टि और सरोकार कितने भिन्न? उनके विषय कितने अलग हैं?

इस संग्रह में उपासना की दस कविताएं हैं। इनमें ‘उदास स्त्री’ कविता तीन भागों में है। इनमें अधिकतर कविताएं स्त्री के संघर्ष और दुख को ही व्यक्त करती हैं। उसकी विडम्बना को चित्रित करती हैं। उपासना स्त्री के सेलीब्रेशन की कविता नहीं लिखती हैं जैसा कि उनके दौर की कुछ कवयित्रियां लिखती हैं। वह कविता में बिम्बों और भाव का घटाटोप या चमत्कार पैदा नहीं करतीं और न ही उक्ति वैचित्र्य पैदा करती हैं, जैसा कुछ युवा कवि करते रहते हैं।

उपासना की एक और उल्लेखनीय कविता है- ‘चरित्रहीन स्त्रियां’। यह कविता पुरुष के चरित्र को बखूबी उजागर करती है और पितृसत्तात्मक सोच को दो टूक शब्दों में चुनौती भी देती है। इस कविता में कवयित्री की बेबाकी, साहस और दृढ़ता काबिले-तारीफ है। उनकी कविता की इन पंक्तियों को पढ़िए, जिसमें उन्होंने पुरुष समाज के पाखंड का पर्दाफाश किया है-
‘‘उनको पा लेने की इच्छाएं लिए पुरुष/ जाति-धर्म, गति, वर्ग से च्युत होकर/ सभी संकीर्ण बंधनों से मुक्त होकर/ सृष्टि से श्रेष्ठतम के मोह में आत्ममुग्ध/ आते थे सहज ही उधर , होकर कामदग्ध/ अपने नियमों पर धरा को भोगते थे हवा को, दिशा को, मेघ को टोहते थे/ अपने बनाए सिक्को की खनखन से
स्त्री को, जीवन को, यौवन को तौलते थे/ उस नगर के वही थे पालक और दाता/ स्त्रियां थीं पतित पुरुष थे त्राता/ उस नगर की स्त्रियां प्रेम से विहीन थीं/ उस नगर की सभी स्त्रियां चरित्रहीन थीं।’’

इस संचयन में उपासना की ‘निस्पंद’, ‘लौटना’, ‘जिंदा रहने की निशानी’, ‘दुख’, ‘अनिद्रा’, ‘भीड़ तंत्र’, ‘राग-अनुराग’, ‘उदास औरतें’, और ‘अंत का एकांत’ कविता शामिल है। उनकी हर कविता में जीवन संघर्ष में जिजीविषा दिखाई देती है और उनका एकांत कोई रूपवादी या आध्यात्मिक एकांत नहीं है। उसमें एक प्रेम का मानवीय स्पर्श है। उनके लिए सांस लेना बंद हो जाना, मर जाना नहीं होता।

इस संग्रह की दूसरी कवयित्री सोनी पाण्डेय हैं। वह कवयित्री के अलावा कहानीकार भी हैं। ‘बलमाजी का स्टूडियो’ से चर्चित होनेवाली सोनी पाण्डेय भी अपनी रचनाओं में स्त्री के दुख-दर्द और उसकी आंकाक्षा को व्यक्त करती हैं। उनकी रचनाओं में एक तरह का भदेसपन और ग्रामीण संवेदना व्यक्त होती है। उनकी ‘स्त्री’ जमीनी स्तर पर संघर्ष करती है और वह सवाल करती है। ‘तीसरी बेटा का हलफनामा’ उनकी ऐसी ही कविता है जिसमें लड़की अपने पिता को ही कठघरे में खड़ा कर उनसे प्रश्न पूछती है और बड़े साहस के साथ अपनी बात कहती है। सोनी ‘पितृसत्ता’ को घर में ही चुनौती देती हैं। हिन्दी में पिता को बेटी द्वारा चुनौती देनेवाली शायद ही कोई कवयित्री है। यह एक नयी स्त्री है जो किसी से डरती नहीं है और मानती है कि पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई पहले अपने घर से शुरू होनी चाहिए। सोनी किताबी स्त्री विमर्श में यकीन नहीं करती। समकालीन हिन्दी कविता में कवयित्रियां पारम्परिक स्त्री की छवि को तोड़कर नयी स्त्री गढ़ रही हैं। ‘ताला’ कविता में भी वह स्त्री को तमाम तरह के बंधनों से मुक्त करने की बात कहती हैं। ‘ताला’ घर की सुरक्षा का नहीं, बल्कि स्त्री की परतंत्रता का प्रतीक है। ‘उनके पास लड़कों के लिए/ आज पूरी कायनात है/पर लड़कियों के लिए केवल ताले…../एक ताला जबान पर लगा कर कहा…./ हंसना पर दांत न दिखे/ एक ताला हाथ में लगाते हुए कहा/ लिखना पर दर्द न दिखे….।

तीसरी कवयित्री आरती हैं। उनकी कविता ‘मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान’ बड़े ही सूक्ष्म ढंग से स्त्री की वेदना को व्यक्त करती है। यहां स्त्री कृष्णा सोबती के ‘एक लड़की’ की मां की तरह मृत्यु शैया पर नहीं लेटी हैं और एकालाप नहीं कर रही है। वह मृत्यु शैय्या पर रहते हुए जीवन मृत्यु के संघर्ष के माध्यम से कर्मकांड और स्वर्ग-नर्क की अवधारणा पर भी चोट करती हैं- ‘लो पकड़ लो कसकर मेरा हाथ/ जल्दी ले चलो कहीं भी/ हां ! मुझे स्वर्ग के देवताओं के जिक्र से भी घृणा है।’

वे अंत में यह भी कहती हैं- मेरी इच्छाओं का भी दान चल रहा है/ वे पलों-क्षणों को भी वापस कर रहे हैं/ तिल-तिल चावल/ जो भी घी दूध/ सब वापस/ सब स्वाहा/ उनकी किताबों में भी यही लिखा है।’’

आरती का मानना है कि इस दुनिया में सारे विधि-विधान पुरुषों ने बनाए हैं और ज्ञान तथा सूचना को भी अपने हाथों में नियंत्रित किया है और उसे ‘पितृसत्ता’ के अनुरुप ढाला है। आरती की राजनीतिक चेतना को उसकी कविता ‘मायालोक से बाहर’ में भी देखा जा सकता है। वह धार्मिक सत्ता और राजनीतिक सत्ता के गठजोड़ पर सीधा प्रहार करती हैं।

अनामिका चक्रवती हाल के वर्षों में अपनी पहचान तेजी से बनाती नजर आ रही हैं। वे अभी अपनी कविताओं की खोज में है और एक नये मुहावरे तलाश में हैं। उनके यहां भी स्त्रियों की हालत को लेकर चिन्ताएं विद्यमान हैं, चाहें ‘दीदी’ कविता में हो या ‘जूड़े में खट्टी गंध की तरह’ कविता में। निरंजन श्रोत्रिय ने अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि उनकी कविताओं में एक तरह की मासूमियत है लेकिन हमारा समय और यथार्थ जिस तरह क्रूर होता जा रहा है, उसमें एक मासूम मन से लड़ाई लड़ी नहीं जा सकती। लेकिन वह किसी कविता में अचानक एक ऐसी पंक्ति रचती हैं जिसमें बहुत बड़ी बात कौंध जाती है जैसे ‘पृथ्वी और रोटी’ कविता में। ‘‘सुबह से रात तक/ आकाश बदलता है कई रंग/ मौसम भी बदलता है अपने रंग/ धरती की देह भी बदलती है/ नहीं बदलती हैं तो वे हैं/ रोटी और मिट्टी।’’
अनामिका ने हमारा ध्यान इस बात की ओर दिलाया है। वाकई रोटी और मिट्टी का एक अटूट और अदृश्य रिश्ता है। मिट्टी से ही अनाज पैदा होता है। इसलिए मिट्टी में एक जीवन है और इस तरह हमारा जीवन ऊपर से भले बदल जाए पर अन्तस में सबके जीवन का मूल स्वरूप एक ही है। जैसे मिट्टी और रोटी का मूल स्वरूप एक है।

आभा बोधिसत्व पहले से लिख रही हैं, और उनकी कविता ‘सीता नहीं मैं’ काफी चर्चा में रही है। वह सीता को आधुनिक संदर्भ में देखती हैं और उसका नया ‘रूप’ गढ़ती हैं। वह ‘विद्रोहिणी’ सीता है। राम की अनुचर नहीं। एक समर्पित स्त्री नहीं, बल्कि राम से प्रश्न करती हुई सीता है।
‘‘तुम्हारे साथ वन-वन भटकूंगी/ कंद मूल खाऊंगी/ सहूंगी वर्षा आतप सुख-दुख/ तुम्हारी कहलाऊंगी/ पर सीता नहीं मैं/ अब धरती में नहीं समाऊंगी।’’ नयी सीता ने अब बोलना सीख लिया है। वह दो टूक शब्दों में कहती हैं- ‘‘जितना झुलसी नहीं मैं/ अग्नि परीक्षा की आंच से/ उससे ज्यादा राख हुई/ अग्नि परीक्षा की तुुम्हारी इच्छा से।’’

दरअसल आभा अब स्त्री को चुप रहते नहीं देखना चाहती है। ‘मरना’ कविता में वह कहती हैं-‘शब्द मुझसे टूट होने के बाद मर जाएंगे/ तो क्या रहूं चुप!/ जानती हूं/ चुप रहने से पर जाते हैं सपने।’’ आभा अपनी कई छोटी कविताओं में …बड़ी बात कह जाती हैं। ‘पहचानो’ कविता में वह पुरुषों को चुनौती देते हुए कहती हैं- ‘स्त्री हंसती नहीं/ स्त्री रोती नहीं/ स्त्री बोलती नहीं/ और इस पर जब कोई बोलता है बोलो कुछ तो हां या न।’ स्त्री केवल इतना ही बोलती है- ‘पहले स्त्री से बोलना सीखो….।’

इस संचयन में स्त्री-कविता और पुरुष कविता के भिन्न संसार को भी देखा जा सकता है। युनूस ख़ान, विवेक चतुर्वेदी, विहाग वैभव, गणेश गनी, ओम नागर, प्रदीप सैनी, देवेश पथ सारिया की कविताएं इसका प्रमाण हैं। युनूस ख़ान की नौ कविताएं इस संग्रह में शामिल की गई हैं। पहली कविता ‘साइकिल सीखती लड़की’ है। इस कविता को पढ़ते हुए 1980 के आसपास शशांक की मशहूर कहानी ‘घंटी’ और कात्यायनी की ‘हाॅकी खेलती लड़कियां’ की याद आना स्वाभाविक है पर युनूस की कविता थोड़ी भिन्न भी है। वह कविता अपने भीतर एक समानान्तर कथा भी कहती है। एक तरफ सायकिल सीखती लड़कियां हैं तो दूसरी तरफ एक कवि का सृजन कर्म भी है। रचनाकार लड़कियों के सायकिल चलाने के कर्म को काव्य-सृजन कर्म से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। हालांकि वह कविता के अंत में एक प्रश्न भी छोड़ता है और कहता है कि देखना है कि कविताएं आगे निकलती हैं या लड़की पछाड़ देती है कविताओं को।

शशांक और कात्यायनी की रचनाओं में इस तरह के प्रश्न नहीं थे। अगर आपने केदारनाथ सिंह की ‘नूर मियां’ कविता पढ़ी है तो आपको युनूस की ‘मंसूरी साहब’ पढ़ते हुए वह कविता जरूर याद आएगी। हालांकि नूर-मियां और मंसूरी साहब के चरित्र में भी फर्क है और गंवई तथा कस्बाई चरित्र के अंतर को समझा जा सकता है। लेकिन युनूस इस कविता में ‘नूर मियां’ से अलग कुछ बातें कहना चाहते हैं। वह शायद यह बताना चाहते हैं कि पहले अर्थशास्त्र की भी एक नैतिकता होती थी लेकिन बाजार संस्कृति और क्रोनी कैपटलिज्म ने इस नैतिकता को तिलांजलि दे दी है। उसकी जगह व्यावहारिकता, सांसारिकता और उपयोगितावाद ने ले ली है और उसने सत्ता के साथ एक नापाक गठजोड़ कर लिया है। उनकी यह कविता शिक्षाव्यवस्था की खामियों पर भी चोट करती है। यूनूस की कविता भारत के बदलते कस्बों की भी कविता है।

विवेक चतुर्वेदी की 11 कविताएं इस संग्रह में शामिल की गयी हैं। उम्र के हिसाब से विवेक अब युवा कवि भी नहीं हैं। उनसे पूर्व हिन्दी में नवें दशक और उसके बाद की कविता का एक पूरा दृश्य सामने आ चुका है। हर नए कवि को कविता के क्षेत्र में उतरने से पहले अपने पूर्ववर्ती परिदृश्य को जानना जरूरी होता है। कवि को पूरी तैयारी के साथ उतरना होता है। नया कवि जब कविता की दुनिया में आता है तो वह भाषा और शिल्प को किस तरह संजोता है, यह महत्वपूर्ण बात है। इस निकष पर कवियों को जानना परखना चाहिए। यह अलग बात है कि इस संग्रह के कई कवि इस निकष पर कम खरे उतरे हैं और उन्हें अधिक काव्याभास की जरूरत और खुद को तराशने की तथा मांजने की आवश्यकता है।

विवेक ने ‘डोरी पर घर’ जैसी एक बिल्कुल नयी कविता लिखी है, जो स्त्री की दृष्टि से लिखी गई है। हालांकि अब नयी स्त्रियों को अपने अंतःवस्त्र सरेआम सुखाने में हिचक नहीं होती पर कस्बाई जीवन में यह आम दृश्य नहीं है। उनकी एक छोटी कविता है ‘मां के खत’। यह खत बहुत ही काव्यात्मक है। पांच-छह पंक्तियों का कवितानुमा खत बड़ी सार्थक और मार्मिक बात कह देता है। उनकी एक और छोटी कविता है ‘प्रार्थना की साँझ’। सात पंक्तियों की इस कविता में मां की एक अलग ही तस्वीर खींच दी गई है। हिन्दी में मां पर अनेक कविताएं लिखी गई हैं पर इन दो छोटी छोटी कविताओं में मां को नए रूप में पेश किया गया है।

विहाग वैभव इधर के कवियों में तेजस्वी कवि हैं और उनके पास एक प्रखर काव्य दृष्टि है। वे अपनी कविताओं में विडम्बनाबोध और प्रतिरोध के लिए जाने जाते हैं। इस संग्रह में उनकी 12 कविताएं हैं। पहली कविता ‘खुल रहे ग्रहों के दरवाजे’ समाज में व्याप्त विद्रूपताओं और विडम्बनाओं को व्यक्त करनेवाली एक मारक कविता है। उसकी अंतिम पंक्ति ‘मैंने जिस भी शब्द को चुना/ किसी से लड़ने के लिए वही जुड़े हाथ भी कहने लगे/ क्षमा ! क्षमा ! क्षमा!’ शब्दों की विश्वसनीयता पर आए संकट को यह कविता प्रतिबिंबित करती है। देश के राजनीतिक पतन ने हालात ऐसे पैदा कर दिए हैं जिससे यह विडम्बना पैदा हुई है। विहाग अपनी लड़ाई को लेकर गहरे रूप से प्रतिबद्ध हैं और उनकी दृष्टि सुलझी हुई है। उनमें एक साफगोई भी है। वे कहते हैं- ‘जब घर में लगी हो भीषण आग/ आग की जद में हों बहनें और बेटियां/ तो आग के सीने पर पांव रखकर/ बढ़कर आगे उन्हें बचा लेने के लिए/ नहीं चाहिए कोई दर्शन या कोई महान विचार/ …… बहुत समझदार ओर सुलझे लोग/ नहीं लड़ सकते कोई लड़ाई।’

हाल के वर्षों में सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों से इस देश में हुए बदलाव को भी विहाग बखूबी रेखांकित करते हैं। ‘इस देश की नागरिकता की नई अर्हताएं’ कविता हमारी आपकी नागरिकता पर आसन्न संकट की तरफ इशारा करती है। विहाग अपनी कविता से अपने समय में लगातार हस्तक्षेप करते हैं और एक प्रतिबद्ध कवि की तरह अपना रुख स्पष्ट करते हैं। इधर ईश्वर को लेकर कई कवियों ने कविताएं लिखी हैं लेकिन विहाग ईश्वर की एक नयी कल्पना करते हैं। वे कहते हैं ‘ईश्वर को किसान होना चाहिए।’ क्योंकि अब तक ईश्वर के रूप सेनानायकों, न्यायाधीशों, राजाओं के रूप में आए हैं। विहाग बिल्कुल नए तरीके से सोचते हैं और उनकी कविताओं का विषय भी अलग होता है। उनकी कविताओं में देश की चिंता प्रमुखता से उभरती है। उनकी एक कविता है ‘देश के बारे में शुभ शुभ सोचते हुए’। उनकी कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे उम्मीद और स्वप्न के भी कवि हैं।

इस संग्रह के बिल्कुल नए कवि देवेश पथ सारिया हैं। उनकी कुल 12 कविताएं इस संग्रह में हैं। पहली कविता ‘वोदका के तीन जाम’ है। हिन्दी में पहली बार किसी कवि ने वोदका पर कविता लिखी है। यह सच है कि हिन्दी कविता में आजकल नए नए विषयों पर कविताएं लिखी जा रही हैं। सारिया की एक कविता तुर्की के व्यापारी पर भी है तो एक कविता मास्को की लड़की है। उनकी एक कविता ताइवान पर भी है। ये ऐसे विषय हैं जिन पर आज तक हिन्दी में कविता नहीं लिखी गयी। इस दृष्टि से सारिया की कविताएं हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।

हिन्दी में पिता पर अनेक कविताएं लिखी गयी हैं। पिता को एक खलनायक के रूप में पेश किया गया है। ज्ञानरंजन की कहानी ‘पिता’ को याद कीजिए लेकिन ओम नागर की ‘पिता की वर्णमाला’ ऐसी पहली कविता है जिसमें उन्होंने एक निरक्षर पिता की विडम्बना और लाचारी को व्यक्त किया है पर उन्होंने यह पंक्तियां भी लिखी हैं- ‘पिता बचपन से बोते आ रहे हैं/ हल चलाते हुए/ स्याह धरती की कोख में शब्द बीज।’ उन्होंने एक किसान पिता की सादगी की महिमा भी लिखी है- ‘मेरी सारी कविताओं के शब्दयुग्म/ नहीं बांध सकते पिता की सादगी’। किसान जीवन पर ओम नागर ने एक और कविता ‘जमीन और जमनालाल’ भी लिखी है। देश में कृषि संकट को देखते हुए कवि ने कहा है- ‘जो दे रहे हैं बख्शीश समझकर, रख लो जमनालाल/ वरना तुम्हारी कौम आत्महत्याओं के अलावा कर भी क्या रही है आजकल।’ किसानी चेतना के कवि नार्गाजुन के सामने भी किसानों का संकट इतना भयावह नहीं था।

‘गांव इन दिनों’ और ‘समय के साथ’ कविता भी किसान जीवन पर है। ‘मनरेगा की मस्टररोल में नाम तलाशते युवाओं की लंबी कतार’ हिन्दी कविता में ‘मनरेगा’ पर पहली कविता है। ऐसा विषयगत प्रयोग पहली बार किसी कवि ने किया है। ‘फूल सी कविताएं’ में भी कवि ने किसानों के दर्द को ही उकेरा है और ‘युद्धरत दुनिया में लिख रहा हूं फूल-सी कविताएँ’ एक तंज भी किया है।

हिन्दी कविता में अब नई प्रौद्योगिकी ने भी प्रवेश कर लिया है। ई-मेल, चॅट, ईयरफोन, फेसबुक जैसे शब्द भी अब कविता में दिखने लगे हैं। प्रदीप सैनी की कविता ‘सायबर कैफे में तिब्बती लड़की’ जैसी कविता पहले संभव नहीं थी। इस तरह हिंदी कविता समाज में हो रहे बदलावों को भी दर्ज कर रही है। प्रदीप सैनी ने रिमिक्स पर भी एक कविता लिखी है- ‘हम सिर्फ रिमिक्स सुनते हैं’ यह भी एक नया विषय है हिंदी कविता में। प्रदीप सैनी ‘वाद्य यंत्र’ और चूमना कविता के अंत में विलक्षण पंक्तियां भी लिख देते हैं। ‘चूमने में शामिल सिर्फ देह ही नहीं होती’ और ‘प्रेम आपको एक वाद्ययंत्र में तब्दील कर देता है।’ ये पंक्तियां एक नया अर्थ विस्तार देती हैं।

प्रदीप सैनी ‘रंग’ और ‘भाई जागो’ कविता में भारतीय समाज में दक्षिणपंथी राजनीति के बढ़ते असर को भी दर्ज करते हैं और लोगों को अगाह भी करते हैं। वह लिखते हैं– ‘भाई जागो/ तुम्हारे शहर का नाम बदल गया है।’ इन दिनों शहरों के नाम बदलना भारतीय राजनीति में एक मध्ययुगीन बदलाव का भी सूचक है। ‘रंग’ कविता में वह लिखते हैं- ‘भगवा हो या हरा/ रंग बहकाते हैं/ भटकाते हैं/ सच के ठीक उपर पोते जाते हैं।’

हिन्दी में परछाईं पर अनेक कविताएं लिखी गई हैं पर गणेश गनी तो दो परछाइयों के एकाकार होने की कविता लिखते हैं और एक परछाईं के नहीं रहने पर दूसरी परछाईं के अस्तित्व पर प्रश्न उठाते हैं। दूसरी परछाईं तो कैद से मुक्त हो जाती है पर क्या एक परछाईं के बिना उसका जीवन संभव है। यह हिन्दी में परछाइंयों पर लिखी गई कविता से नितान्त भिन्न है और एक नया अंदाज है। उनकी कविता ‘एक आदमी जश्न मना रहा है’ वर्तमान समय में कारपोरेट पूंजी और सत्ता के गठबंधन की तरफ इशारा करती है, जिस तरह देश में अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर सब कुछ खरीदा और बेचा जा रहा है। वह अच्छे दिन आएंगे के पाखंड को भी उजागर करते हैं। गणेश गनी भी समाज में आए बदलावों से जीवन की स्मृतियों के विलोप की भी कथा कहते हैं। ‘गूगल पर खोजबीन’ उनकी ऐसी ही कविता है, किस तरह हम सब कुछ गूगल में खोज रहे हैं और क्या गूगल की यह खोज जीवन का स्थानापन्न है। क्या गूगल पर चांद को देखकर ‘चंद्रमा’ का अहसास किया जा सकता है?
‘कई दिनों से बच्चों ने चंदामामा नहीं कहा/ पिता कविता सुनाना भूल गए/ और मां लोरी सुनाना।’

गणेश गनी बाजार द्वारा छीनी जा रही हमारी खुशियों और आर्थिक स्थिति का भी जिक्र इस तरह करते हैं- ‘लूट के तरीके बदल चुके/ बाजार सेंध लगाकर हो चुका है दाखिल घर में/ उसकी नज़र पहुंच चुकी है/ बच्चे की गुल्लक तक/ अलाव तापता एक बूढ़ा/ बच्चों को सुना रहा है कथा/ राक्षस और देवता की।’

इस तरह अब कथाओं के स्वरूप और अर्थ भी बदलते जा रहे हैं पर वह यह भी कहते हैं- ‘मैं सोचता हूं / जितना बोलना था/ बोला कहीं उससे भी अधिक जितना सुनना था/ सुना कहीं उससे कम गया।’

इस संग्रह के अनेक कवि भले ही उम्र से अब उतने युवा नहीं रहे क्योंकि ‘रेखांकित’ स्तम्भ में प्रकाशित होने और द्वादश के प्रकाशन में एक अंतराल है लेकिन उनकी काव्य चेतना आज के युवा कवि जैसी ही है। पर कई बार कवियों की कविता पढ़कर लगता है कि उन्हें भाषा और शिल्प पर अधिक काम करने की जरूरत है। कविता को अधिक संपादित करने की आवश्यकता है। सनद रहे कि एक अच्छा कवि अपनी कविता का पहला आलोचक और संपादक भी होता है। इधर लिखी जा रही कविता में संपादन पर ध्यान कम दिया जा रहा है जो एक अच्छी कविता के लिए बहुत अनिवार्य तत्व है।

दरअसल आज हिन्दी कविता में आपसी संवाद कम रह गया है और हम एक दूसरे से सीखते नहीं है और पीढि़यों का यह अंतराल काफी बढ़ गया है। शायद यही कारण है कि हिन्दी कविता का पूरा दृश्य असंतुलित और एकांगी दिखता है जिसका विश्लेषण और मूल्याकंन होना अभी बाकी है। निरंजन श्रोत्रिय ने ‘युवा द्वादश’ निकालकर आलोचकों के लिए एक आधार भूमि तैयार कर दी है और आधारभूत सामग्री एकत्रित कर दी है जिसके सहारे अब हिंदी की नई युवा कविता को विश्लेषित करने का प्रयास किया जा सकता है।

निरंजन श्रोत्रिय ने अब तक इन सभी युवा द्वादश में युवा कवियों पर अलग-अलग टिप्पणियां लिखकर इन कविताओं को लेकर एक आलोचकीय रास्ता भी दिखा दिया है। उम्मीद है कि भविष्य में जब कभी 21वीं सदी की कविता का विश्लेषण और मूल्याकंन होगा निरंजन श्रोत्रिय की ये टिप्पणियां संदर्भसूत्र के रूप में याद की जाएंगी। लेकिन यह भी प्रश्न किया जाएगा कि इन कवियों के चयन का आधार क्या था।

नवॉं युवा द्वादश (चयन); सं. निरंजन श्रोत्रिय; बोधि प्रकाशन, 46 (बेसमेंट) सी, इंडस्ट्रियल एरिया, सुदर्शनपुरा, बैस गोदाम, जयपुर-302006. मूल्य : 250 रु.।

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