प्रतिरोध का रंगकर्म

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बादल सरकार (15 जुलाई 1925 - 13 मई 2011)


— शैलेन्द्र चौहान —

बादल सरकार उर्फ सुधीन्द्र सरकार का जन्म 15 जुलाई, 1925 को कोलकाता के एक ईसाई परिवार में हुआ। पिता महेन्द्रलाल सरकार ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ में पढ़ाते थे और विदेशियों द्वारा संचालित इस संस्था के वे पहले भारतीय प्रधानाचार्य बने थे। मां, सरलमना सरकार से बादल सरकार को साहित्य की प्रेरणा मिली। 1941 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास करने के बाद वे ‘शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज’ में भर्ती हुए और 1946 में वे सिविल इंजीनियर बने। इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते समय वे मार्क्‍सवादी विचारधारा और राजनीति से सघन रूप से जुड़ गए। कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय रूप से कई वर्षों तक जुड़े रहने के बावजूद, बाद में वे पार्टी राजनीति से अलग हट गए।

बादल सरकार ने 1947 में नागपुर के पास एक निर्माण संस्‍था में पहली नौकरी की। बाद में वे फिर कोलकाता लौट आए जहां उन्होंने जादवपुर और कोलकाता विश्वविद्यालय में इंजीनियर की नौकरी की। वे उन दिनों नौकरी के साथ-साथ शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में सायंकालीन कक्षाओं में ‘टाउन प्‍लानिंग’ डिप्‍लोमा के लिए पढ़ाई करते रहे। 1953 में दोमादर वैली कारपोरेशन की नौकरी लेकर माइथन गए। माइथन में बादल सरकार 1956 तक थे। इसी दौरान नाटक के प्रति उनका रुझान दिखने लगा। दफ्तर के सहकर्मियों के साथ मिलकर एक अभिनव रिहर्सल क्‍लब की शुरुआत की जहां, बादल सरकार के शब्‍दों में ‘रिहर्सल होगा पर नाटक का मंचन कभी नहीं होगा’ जैसा अभिनव नियम लागू किया गया था। पर बाद में सदस्यों के उत्साह से इस नियम को तोड़कर नाटकों के मंचन की शुरुआत हुई।

बचपन से ही बादल सरकार नाटकों के प्रति आकर्षित थे। उन्हें नाटकों में हास्य रस सबसे ज्यादा पसंद था, लिहाजा यह स्वाभाविक ही था कि उनके प्रारंभिक नाटकों में हमें यह तत्त्व ज्यादा मुखर दिखता है। वे इसे ‘सिचुएशन कॉमेडी’ कहते हैं। उनका 1956 में लिखा गया पहला नाटक ‘सॉल्यूशन एक्स’ था। यह नाटक एक विदेशी फिल्म ‘मंकी बिजनेस’ की कहानी पर आधारित एक सिचुएशन कॉमेडी के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1957 से 1958, इन दो वर्षों के दौरान उन्होंने इंग्लैंड में ‘टाउन-प्‍लानिंग’ का कोर्स करने के साथ-साथ नौकरी की। इसी समय उन्‍हें प्रसिद्ध अभिनेताओं का अभिनय देखने का मौक़ा मिला। विवयन ली, चार्ल्स लैटन, माइकल रॉडरेथ, मार्गरेट कॉलिन्‍स आदि के अभिनय और वहां के रंगकर्म से वे बेहद प्रभावित हुए। पर शायद उनके ‘तीसरे रंगमंच’ की नींव की पहली ईंट के रूप में फ्रेंच कवि रॉसिन की कृति ‘फ्रिड्रे’ नाटक को देखने का अनुभव था। 21 फरवरी, 1958 को देखे गए ‘थिएटर-इन-राउंड’ में इस प्रस्तुति के बारे में अपने अनुभवों को डायरी के पन्नों में दर्ज करते हुए उन्होंने लिखा था, ‘आज जो देखा उसे कभी भुला न पाऊंगा।’ मुक्त मंच के इस अनुभव को हम वर्षों बाद उनके तीसरे रंगमंच की अवधारणाओं में विकसित होते देख पाते हैं।

इंग्लैंड प्रवास के दिनों में ही उन्होंने ‘बोड़ो पीशी मां’ (बड़ी बुआजी) लिखा। इसी समय उन्‍होंने एक छोटा नाटक ‘शनिवार’ लिखा। यह नाटक जी.बी. प्रिस्‍टले के नाटक ‘एन इन्स्पेक्टर कॉल्स’ पर आधारित था। 1959 में वे इंग्लैंड से कोलकाता लौट आए और आते ही अपने उत्साही मित्रों के साथ ‘चक्रगोष्ठी’ नाम से एक ‘नाट्य संस्था’ की नींव रखी। हर शनिवार को इस गोष्ठी में नाटक के साथ-साथ संगीत, साहित्‍य, विज्ञान आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा होती थी। इसी ‘चक्रगोष्ठी’ के प्रयास से उनके कई आरंभिक नाटकों से दर्शक परिचित हुए। ‘बोड़ो पीशीमां’, ‘शोनिबार’, ‘समावृत’, ‘रामश्यामजदु’ आदि जिनमें प्रमुख हैं। इसके बाद बादल सरकार फ्रांस सरकार के आर्थिक अनुदान पर वहां गए और फिर तीन वर्षों तक नाइजीरिया में नौकरी की।

इस विदेश प्रवास के दौरान उन्होंने ‘एबों इन्द्रजित’, ‘सारा रात्तिर’, ‘बल्लभपुरेर रूपकथा’, ‘जोदी आर एकबार’, ‘त्रिंश शताब्दी’, ‘पागला घोड़ा’, ‘प्रलाप’, ‘पोरे कोनोदिन’ जैसे महत्त्वपूर्ण नाटक लिखे। भारत वापस लौटने के पहले ही ‘एबों इन्द्रजित’ बहुरूपी नाट्य पत्रिका में (अंक : 22 जुलाई, 1965) प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाशन के साथ ही बादल सरकार की ख्याति चारों ओर फैल गई। इसका पहला मंचन ‘शौभनिक’ नाट्यसंस्था ने 16 दिसंबर, 1965 को किया। नाटक के प्रकाशन और मंचन ने नाट्य जगत् में मानो धूम मचा दी। 1968 में उन्हें इस नाटक के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला।

नाइजीरिया से भारत लौटने के तुरंत बाद उन्होंने ‘बाकी इतिहास’ लिखा। उन दिनों शंभु मित्र रंगमंच के शीर्षस्थ व्यक्तियों में थे। उनकी नाट्य संस्था ‘बहुरूपी’ ने ‘बाकी इतिहास’ का सफल मंचन किया। ये दोनों नाटक उनके ‘सिचुएशनल कॉमेडी’ वाले नाटकों से बिल्कुल भिन्न थे, जो भारतीय रंगमंच में एक नए युग का संकेत था। 1967 में उन्होंने अपने साथियों के साथ ‘शताब्दी’ नाट्य संस्था की स्थापना की। 18 मार्च, 1967 को ‘रवीन्द्र सरोवर मंच’ से ‘शताब्दी’ ने अपनी रंगयात्रा शुरू की। 1956 से लेकर 1967 तक के सभी नाटक बादल सरकार ने ‘प्रोसेनियम मंच’ के लिए लिखे थे। लिहाजा ‘शताब्दी’ की आरंभिक प्रस्तुतियां ‘प्रोसेनियम’ ही थीं।

1971 से रंगमंच को लेकर बादल सरकार की अवधारणाएं तेजी से बदलने लगी थीं और वे निरंतर प्रयोग कर रहे थे। प्रयोगों के इस दौर से गुजरते हुए वे ‘तीसरे रंगमंच’ तक जल्द ही पहुंच सके। वे मानने लगे थे कि ‘नाटक एक जीवंत कला माध्यम है। लोगों का दो समूह – एक ही वक्‍त, एक ही स्‍थान पर इकट्ठे होकर एक कला माध्‍यम के साथ जुड़ रहे हैं – अभिनेताओं और दर्शकों के दो समूह के रूप में। यह एक मानवीय क्रिया है – मनुष्‍य का मनुष्‍य के साथ जुड़ाव। सिनेमा हमें ऐसे प्रत्‍यक्ष जुड़ाव का मौका नहीं देता।’ ऐसे ही विचारों से रंगमंच पर प्रयोग करते हुए, उन्‍होंने अन्‍तत: रंगमंच को सार्थक कला माध्‍यम के रूप में स्‍थापित करने के उद्देश्‍य से, प्रोसेनियम रंगमंच को त्याग, तीसरे रंगमंच को आम जनता तक एक ‘फ्री-थिएटर’ के रूप में ले जाने में कामयाबी हासिल की।

इसके बाद 1970 से 1993 तक बादल सरकार के सभी नाटक तीसरे या विकल्प के रंगमंच को ध्यान में रखकर लिखे गए। ‘शताब्दी’ के अलावा पूरे देश में इन नाटकों को विभिन्न भाषाओं में, छोटे-बडे़ शहरों-कस्‍बों में विभिन्‍न नाट्य संस्‍थाओं द्वारा खेला गया। बादल सरकार के तीसरे रंगमंच ने भारत की भाषाई, प्रांतीय और सांस्कृतिक दूरियों को खत्म कर पहली बार एक सार्थक भारतीय रंगमंच विकसित करने की दिशा में एक सफल प्रयास किया। मराठी, हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, मलयाली, कन्नड़, ओड़िया आदि भारतीय भाषाओं में उनके नाटक मंचित हुए और किसी न किसी रूप में देश के सभी प्रांतों के रंगकर्मियों को तीसरे रंगमंच ने अपनी ओर आकर्षित किया।

प्रसिद्ध कला और साहित्य समीक्षक चिन्मय गुहा ने बादल सरकार के जीवन और कृतित्व पर चर्चा करते हुए ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में लिखा है, जो बेहद गौरतलब है – ‘आज से सौ वर्ष बाद शायद इस बात पर बहस हो कि क्या बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधि काल में एक ही साथ तीन-तीन बादल सरकार हुए थे जिनमें से एक ने सरस पर बौद्धिक रूप से प्रखर संवादों से भरे, कॉमिक स्थितियों की बारीकियों पर अपनी पैनी नजर साधे, बेहद प्रभावशाली हास्य नाटक लिखे थे। दूसरे, जिन्होंने समाज में हिंसा के, विश्व राजनीतिक खींचातानी के चलते युद्ध की काली परछाईं के, परमाणु अस्त्रों के, आतंक के और समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता के खिलाफ अपनी आवाज को अपने नाटकों में दर्ज किया था, और तीसरे, जिन्होंने प्रेक्षागृहों के अंदर कैद मनोरंजन प्रधान रंगमंच को एक मुक्ताकाश के नीचे आम जनता तक पहुंचाने का सपना देखा था।’

आज से कुछ दशकों के बाद के पाठकों को शायद इन तीनों बादल सरकार को एक ही व्यक्तित्व के रूप में चिह्नित करने में कठिनाई होगी। लेकिन राहत की बात कि भारतीय जनता के सुख-दुख, उनकी चिंताओं, उनकी समस्याओं और सत्ता द्वारा उनके शोषण की समानता के चलते उनकी जो एक विशिष्ट पहचान बनी थी भाषा, प्रांत और संस्कृति के बीच की दीवारों को तोड़कर बनी थी। इसी विशिष्ट पहचान को आधार मानकर भारतीय रंगमंच का विकास संभव हुआ था।

सन 1961 में उनका तीसरा नाटक ‘राम श्याम जोदू’ आया जो एक विदेशी कहानी पर आधारित था। इस नाटक की सफलता ने उन्हें एक अलग किस्म के थिएटर का जनक बनाया, जिसे भारत में ‘थर्ड थिएटर’ और ‘साइको फिजिकल थिएटर’ (मनो-शारीरिक रंगमंच) के नामों से जाना गया। सन् 1963 में उन्होंने दो नाटकों का निर्देशन किया। ये नाटक थे – एवम् इंद्रजीत और वल्लभपुर की रूपकथा । इन नाटकों के साथ ही बादल सरकार का नाम हर रंगकर्मी की जुबान पर छा गया। सिनेमा-टेलीविजन और तमाम अन्य मनोरंजन के साधनों के जरिए जहां सत्ता की संस्कृति जन संस्‍कृति के खिलाफ व्यापक रूप से सक्रिय हो रही थी और जनता के सरोकारों और सवालों से उन्हें भ्रमित करने में लगी थी, तब समाज परिवर्तन के उद्देश्य से न सही, महज एक देशव्यापी प्रतिरोध की संस्कृति को जिंदा रखने के लिए, तीसरे रंगमंच ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

बादल सरकार और उनके ‘तीसरा रंगमंच’ को आनेवाले कल के पाठक उसी तरह से अपने करीब पाएंगे- जितने करीब और आत्‍मीय सरकार आज हमारे हैं। बादल सरकार ने अपने साथियों के साथ ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम के साथ बंगाल के अनेक जिलों में गांव-गांव जाकर नाटक किए और बंगाल के ग्रामीण जनों से सीधा रंग सम्पर्क बनाया। नादिया, 24 परगना आदि जिलों में भी गांव-गांव घूम कर बादल सरकार ने रंगकर्म का संदेश देकर अभिजात्य नाट्य जगत को चुनौती दी। उनके नाटकों में कलाकारों और दर्शकों के बीच कोई फर्क नहीं होता है। बादल सरकार ने आंगन, छत, नुक्कड़ और गांवों में नाटकों को पहुंचाकर नाटक को व्यापक बनाया। उन्होंने कई बार नाटकों में महिला पात्र का काम किया, हालांकि उनके माता-पिता को यह बिल्कुल पसंद नहीं था। ‘नुक्कड़ नाटक’ के उनके मुहावरे को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तक में सम्मान मिला।

बादल सरकार का रंगकर्म व्यवस्था के विरुद्ध उदघोष है। उनकी ऊर्जा हर युवा को आकर्षित करती है, इसलिए बादल सरकार के नाटक पूरे देश में हर नाट्य दल द्वारा बार-बार खेले गए। बादल सरकार अभिनेता थे, नाटककार थे, निर्देशक थे और इन सबके अतिरिक्त रंगमंच के सिद्धांतकार थे। उन्होंने तीसरा रंगमंच का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया, और उसे मंच पर भी उतारा।

बादल सरकार के अनुसार शहरी रंगमंच पश्चिम से प्रभावित है और ग्रामीण रंगमंच पारंपरिक शैलियों से, और दोनों में ही अंतर्वस्तु की कमी है। शहरी रंगमंच अपने प्रोसिनियम दायरे में बंधा है और ग्रामीण या पारंपरिक रंगमंच अपनी पुरानी शैलियों में, जिसमें प्रखर राजनीतिक चेतना का अभाव है। बादल सरकार आधुनिक रंगमंच को प्रोसिनिमय दायरे से निकाल कर लोगों के बीच ले गए। गांवों और कस्बों में ले गए। आम लोगों के बीच ले गए। रंगमंच को उन्होंने राजनीतिक चेतना से लैस किया। बादल सरकार के नाटक जुलूस (बांग्ला में मिछिल) ने अखिल भारतीय स्तर पर 1974-75 के दौर में (जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुए छात्र आंदोलन का दौर) रंगकर्मिंयों और नाट्य प्रेमियों की कल्पनाशीलता को बेहद प्रभावित किया। नुक्कड़ नाटकों को लोकप्रिय बनाने, उसे रंगमंच की समकालीन बहस के बीच लाने में सबसे बड़ा योगदान बादल सरकार का ही है। बादल सरकार को वर्ष 1968 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, वर्ष 1972 में पद्मश्री, वर्ष 1997 में संगीत नाटक अकादेमी-रत्न सदस्य का पुरस्कार मिला। वर्ष 2010 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म-भूषण सम्मान दिया गया जोकि उन्होंने लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि एक लेखक का सबसे बड़ा सम्मान साहित्य अकादेमी पुरस्कार वह पहले ही पा चुके हैं।

तीसरा रंगमंच के संस्थापक और भारतीय ग्रामीण पारंपरिक रंगमंच के पुरोधा बादल सरकार का पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में 13 मई 2011 को निधन हो गया। बादल दा के नाटक समाज और राजनीति के विद्रूप पर गहरी चोट करते हैं। इस कारण से उनके नाटक और वे स्वयं भी देश के रंगकर्मियों के चहेते बने रहे हैं।

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