दिल्ली एम्स में एससी/एसटी डॉक्टरों के साथ भेदभाव, योग्यता होने के बावजूद नहीं किया गया चयनित

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28 जुलाई। दिल्ली एम्स में अनुसूचित जाति/ जनजाति (एससी/एसटी) के डॉक्टरों की रेगुलर नियुक्ति में भेदभाव को लेकर संसद की एक समिति ने सवाल उठाया है। समिति ने साफ तौर पर कहा है, कि दिल्ली एम्स जैसे संस्थानों में भी नौकरी देने में एससी-एसटी वर्ग के लोगों के साथ भेदभाव बरता गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एम्स में एडहॉक आधार पर कई सालों तक काम करने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति के जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों को रेगुलर पोस्ट भरने के समय नहीं चुना गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया, कि रेगुलर नियुक्ति के समय कहा गया कि कोई भी उम्मीदवार प्रवेश के लिए योग्य नहीं पाया गया था। समिति ने इस बात पर चिंता जताई है, कि एम्स जैसे संस्थान में वंचित तबके के डॉक्टरों के साथ ऐसा बर्ताव होता है।

संसदीय समिति का यह आकलन और ये सिफारिशें अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास में केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, आईआईएम, आईआईटी, चिकित्सा संस्थानों, नवोदय विद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों की भूमिका पर एक रिपोर्ट का हिस्सा हैं। इसमें एम्स में आरक्षण नीति के कार्यान्वयन का खासतौर पर जिक्र किया गया है। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है, कि कुल 1111 संकाय पदों में से एम्स में 275 सहायक प्रोफेसर और 92 प्रोफेसर के पद रिक्त हैं। संसदीय पैनल ने अपनी रिपोर्ट में यह भी आरोप लगाया है, कि उचित पात्रता/योग्यता होने के बावजूद पूरी तरह से अनुभवी एससी-एसटी उम्मीदवारों को देश के प्रमुख मेडिकल कॉलेज में प्रारंभिक चरण में भी संकाय सदस्यों के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं मिली।

समिति ने कहा है, कि सभी मौजूदा रिक्त पदों को अगले तीन महीनों के भीतर भरा जाना चाहिए। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से उसी समय-सीमा के भीतर एक कार्य योजना माँगी गई है। पैनल ने कहा है, कि भविष्य में सभी मौजूदा रिक्त पदों को भरने के बाद अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित किसी भी संकाय की सीट को किसी भी परिस्थिति में छह महीने से अधिक समय तक खाली नहीं रखा जाए।

समिति ने आगे कहा है, कि एमबीबीएस और अन्य स्नातक पाठ्यक्रमों और विभिन्न एम्स में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में एससी और एसटी के प्रवेश का कुल प्रतिशत एससी के लिए 15 फीसदी और एसटी के लिए 7.5 फीसदी के जरूरी स्तर से काफी नीचे है। इसको देखते हुए समिति ने सिफारिश की है कि एम्स को सभी पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत को सख्ती से बनाए रखना चाहिए। समिति ने इस तथ्य पर फिर से जोर दिया, कि एससी/एसटी के लिए अधिक अवसर सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण का प्रतिशत बनाए रखना जरूरी है।

समिति ने पाया, कि आरक्षण को सुपर-स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों में लागू नहीं किया गया है। इस वजह से एससी/एसटी के उम्मीदवारों को अभूतपूर्व और अनुचित रूप से वंचित किया गया है। समिति की रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है, कि सुपर-स्पेशियलिटी क्षेत्रों में अनारक्षित संकाय सदस्यों का एकाधिकार है। अगर केंद्रीय विश्वविद्यालयों की बात करें तो वहाँ भी आरक्षण के ऐसे ही हालात हैं। पिछले साल ही एक रिपोर्ट में कहा गया था, कि देश के 44 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6,074 पद रिक्त थे, जिनमें से 75 प्रतिशत पद आरक्षित श्रेणी के थे। अन्य पिछड़े वर्ग के आधे से ज्यादा पद खाली पड़े थे। प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में ओबीसी, एससी, एसटी की स्थिति और खराब थी, जहाँ इस वर्ग के लिए सृजित कुल पदों में 60 प्रतिशत से ज्यादा खाली पड़े थे, जबकि एसटी के 80 फीसदी पद रिक्त थे।

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