कवि कमलेश का संसार

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कमलेश (1938 - 2015)
प्रयाग शुक्ल

— प्रयाग शुक्ल —

मलेश जी प्रमुखत: कवि थे। अपने आंतरिक जीवन में अपने आचार-विचार व्यवहार में, वह प्राथमिकता मानो कविता को ही दे रहे थे, उनकी कविता पर भी, उनके काव्य-मानस पर भी ‘बाहरी’ घात-प्रतिघात होते ही थे,पर, कवि-रूप की उनकी संकल्पना, काव्य-मानस और माध्यम की अपनी आभा, हर घात प्रतिघात पर भारी पड़ती थी, और वह आभा, उनके अनुभवों, विचारों और प्रतीतियों को हमेशा आलोकित किए रहती थी। अगर ऐसा न होता तो उनकी कविता की विधियों में, उसके प्रतिबिंबनों में, उसके बिंबों-प्रतीकों-छवियों में, और उसकी लयात्मक शब्द ध्वनियों में, वैसा ‘उजलापन’, वैसा परिष्कार न होता, जैसा कि है। उनकी कविता में व्याप्त, या उससे नि:सृत होनेवाली स्वरावलियों में अपूर्व गूंजें-अनुगूंजें हैं, जो मनुष्य-जीवन के गोचर-अगोचर रूपों, उसके विरागों-अनुरागों, प्रकृति में उसके विचरण, और उसकी कल्पनाओं से ही संबंध रखती हैं। पर, जिनका अपना एक जीवन है, अपना ‘मौलिक’ काव्य-लोक है।

अचरज नहीं कि कमलेश जी के कविता पढ़ने के ढंग में अत्यंत सादगी थी, स्वरों के आरोह-अवरोह में कोई अतिरिक्त नाटकीयता भी नहीं थी, पर वह पाठ बता रहा होता था कि उसके पीछे एक सच्चे कवि का कंठ है, और काव्य-भाषा के धनी कवि के इस कंठ से जो शब्द फूट रहे हैं, और एक अनुभव-संसार रच रहे हैं, वह हमें अपनी लहरों से घेर रहा है। आप्लावित कर रहा है। किसी ‘अर्थ’, अनुभव और बोध को हम तक पहुंचाने से पहले, हमें अपनी स्वर-धारा से बांध लिये ले रहा है।

जब मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंग-प्रसंग’ का संपादक था, और विद्यालय द्वारा प्रतिमाह आयोजित होनेवाले रचना-पाठ ‘श्रुति’ का संचालक भी, तो हमने कमलेश जी को उसमें कविता-पाठ के लिए आमंत्रित किया था। वह संध्या मैं विशेष रूप से भूला नहीं हूं। कमलेश जी ने काव्य-पाठ प्रारंभ किया तो ‘सम्मुख’ सभागार में जो काव्य-तरंगें उठीं, उन्होंने एक श्रोता के रूप में मेरी देह, और मन को जिस तरह स्पर्श करना शुरू किया, वह एक विरल अनुभव था। अनंतर कुछ अन्य श्रोताओं-दर्शकों से भी ऐसी ही प्रतिक्रिया सुनने को मिली। जब ‘खुले में आवास’ (2008) का प्रकाशन हुआ और उसमें ‘आभार’ शीर्षक अपनी टिप्पणी में कमलेश जी ने ‘भारत भवन’ और ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ के अपने काव्य पाठ का स्मरण किया, यह लिखते हुए कि ‘इस वर्ष’ (यानी 2007) में जब ये काव्य-पाठ आयोजित हुए तो उन्होंने ‘मुझे (कमलेश जी को) कविता की लीक पर वापस डाल दिया।’ यह पढ़कर एक सुखद अचरज होना ही था, वह मुझे हुआ। साथ ही मैं यह भी सोचने लगा कि स्वयं कवि को अपनी कविता के ‘ग्रहण’ किए जाने का बोध हुआ था, वही तो ‘आभार’ की इन पंक्तियों का कारण रहा होगा।

पर कमलेश जी की कविता अभी भी हिन्दी संसार ने पूरी ग्रहण की नहीं है, इसका सचमुच अफसोस-सा होता है। पिछले दशकों में साहित्य-आलोचक की, स्वयं कविता लिखने-पढ़ने की जो रूढ़ियां हिन्दी में बनती चली गई हैं, उन्होंने कमलेश जी की कविता को ग्रहण किए जाने के आगे एक ‘अवरोध’-सा खड़ा कर दिया है।

दरअसल, कमलेश की कविता को ‘ग्रहण’ करने के लिए ‘यथार्थ’ को लेकर प्रचलित रूढ़ियों को खारिज करना, उनकी अनदेखी तक करना, अनिवार्य है। उसकी केमिस्ट्री भिन्न प्रकार की है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह ‘समकालीन आलोचना’ के साथ कोई क्रिया-प्रतिक्रिया करती हुई मालूम नहीं पड़ती। ‘ऐसा लिखेंगे तो वैसा दिखेंगे, और सहज स्वीकृति मिल जाएगी,’ का रत्ती भर मोह उसमें नहीं है। यह उसकी एक बड़ी शक्ति है।

अचरज नहीं कि कमलेश की कविता पर कुछ ही आलोचकों-समीक्षकों और लेखकों-कवियों ने अपनी कलम अब तक चलाई है। उनकी कविता तक पहुंचने के लिए जिस विनम्रता, जिस औदार्य, और जिस परख-कसौटी की दरकार है, उसका अभाव ही प्रायः साहित्य-जगत में दीख पड़ता रहा है। गनीमत यही है कि कमलेश को व्यक्तिगत रूप से साहित्य जगत में, प्रखर लेखकों, कवियों, चित्रकारों, रंगकर्मियों की ओर से जरूरी ‘मान’ मिलता रहा है, वह स्वयं एक अत्यन्त समृद्ध कला रसिक रहे हैं, और रामकुमार, स्वामीनाथन, अंबादास, हिम्मत शाह से उनकी आत्मीयता रही है। स्वामीनाथन पर उनकी कविता ‘आविर्भाव’ बहुत मूल्यवान है। वह कभी स्वीकृति, पुरस्कारों और किसी भी प्रकार के प्रचार के पीछे नहीं रहे- वंचित वे नहीं रहे हैं, वंचित तो उनकी कविता की मूल्यवत्ता और विशेषता से वे हैं, जिन्होंने उनकी ओर, और उनकी कविता की ओर, उतना ध्यान नहीं दिया जितना कि दिया जाना चाहिए था। बहरहाल, इसमें कम-से-कम मुझे कोई संदेह नहीं कि बहुतेरे सुधी पाठक भविष्य में भी खोजकर उनकी कविताएं पढ़ेंगे।

कमलेश जी से अपने पचास वर्षों के संबंधों में मैंने उन्हें एक अध्येता, एक समाजवादी, एक संपादक, एक साहित्य-प्रेमी, एक कला रसिक, एक पुस्तक संग्राहक, एक मित्र और एक विलक्षण व्यक्ति के रूप में जाना।

उनके पहले काव्य-संग्रह ‘जरत्कारु’ से लेकर पिछले वर्षों में प्रकाशित ‘खुले में आवास’ और ‘बसाव’ की कविताओं के आस्वाद को अपने लिए बेहद मूल्यवान मानता रहा, और मानता हूं। उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन ‘कल्पना’ के संपादक-मंडल से शुरू किया था, अनंतर मैं भी ‘कल्पना’ में रहा, और यह संबंध-सूत्र, एक पुल की तरह हमारे बीच मौजूद रहा।

‘कल्पना’ के संपादक-संचालक बदरीविशाल जी को प्रणति स्वरूप जब मैंने ‘बदरीविशाल’ शीर्षक से एक पुस्तक का संपादन किया तो उसके लिए सबसे पहला लेख मुझे कमलेश जी का ही मिला। यहां प्रसंगवश मैंने कुछ ही चीज़ों का उल्लेख किया है- उनसे जुड़े संस्मरण बहुतेरे हैं, और वे तो मैं कभी अलग से दर्ज करने की इच्छा रखता हूं। यह लेख तो कविता को समर्पित है : और इसका अंत मैं उन्हीं की कुछ कविता पंक्तियों से करना चाहूंगा –

खुला अभी बचा है बन के फैलाव से
धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, सॅंकरी पगडंडी है
पैतृक आवाज़ें वहां ले आती हैं।

खुले में निर्भय घूमते मृगशावक
गोधूली बेला में गौऍं रॅंभाती हैं
दूर आकाश में उठ रही धूम शिखा
फैल रहा शुचित मन का सुवास है।
वहां, उस खुले में ही तुम्हारा घर है।

(जुलाई-सितंबर, 2015)

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