हो चित्त जहां भय शून्य, माथ हो उन्नत

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— डॉ. कश्मीर उप्पल —

‘जब मैं शाहदरा (दिल्ली) पहुंचा, तो मैंने अपने स्वागत के लिए आए हुए सरदार पटेल, राजकुमारी और दूसरे लोगों को देखा, लेकिन मुझे सरदार के होंठों पर हमेशा की मुस्कुराहट नहीं दिखाई दी। उनका मसखरापन गायब था। रेल से उतरकर मैं जिन पुलिसवालों और जनता से मिला, उनके चेहरों पर भी सरदार पटेल की उदासी दिखाई दे रही थी। क्या हमेशा खुश दिखाई देनेवाली दिल्ली आज एकदम मुर्दों का शहर बन गई है?’

महात्मा गांधी आगे कहते हैं- ‘दूसरा अचरज भी मुझे देखना बदा था। जिस भंगी-बस्ती में ठहरने में मुझे आनंद होता था, वहां न ले जाकर मुझे बिड़ला के आलीशान महल में ले जाया गया। इसका कारण जानकर मुझे दुख हुआ। मुझे बिड़ला भवन में ठहराने का कारण यह है कि भंगी बस्ती में, जहां मैं ठहरा करता था, वहां इस समय निराश्रित लोग ठहराए गए हैं। उनकी जरूरत मुझसे कई गुना बड़ी है, लेकिन हमारे यहां निराश्रितों का कोई भी सवाल खड़ा हो, यह क्या एक राष्ट्र के नाते हमारे लिए शरम की बात नहीं है?’

15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के बाद 10 सितंबर 1947 को गांधीजी आजाद देश की राजधानी दिल्ली वापिस लौटे थे। आजादी मिलने के पूर्व ही गांधीजी ने 30 जुलाई 1947 को अपने प्रार्थना-प्रवचन में घोषित कर दिया था कि आज मेरा यहां आखिरी दिन है। ‘कल से प्रार्थना नहीं हो सकती।’ गांधीजी ने इस सभा में कहा कि मैं लोगों से मिलने जा रहा हूं, किसी उम्मीद से नहीं। ‘मैं खाली हाथ भी लौटकर नहीं आनेवाला हूं।’ गांधीजी बिहार और बंगाल में साम्प्रदायिक हिंसा की आग में धधकते क्षेत्रों में पदयात्राएं करते, सभी वर्गों के लोगों के बीच शांति और सद्भाव स्थापित करते कई दिनों तक दंगाग्रस्त क्षेत्रों में पैदल घूमते रहे थे। सितंबर में आजाद भारत की राजधानी पहुंचकर उन्हें चारों तरफ पसरी उदासी दिखाई देती है। आजादी मिलने के बाद भी देश के लोगों के चेहरों की उदासी से गांधी चिंतित हो जाते हैं।

क्या आजादी के 75 वर्षों के बाद आज हम आम लोगों के चेहरों पर उदासी देखने को अभिशप्त नहीं हैं? सवाल यह है कि देश में युवाओं, किसानों, आम आदमी और अन्य कई परिवारों में फैली यह उदासी किसी को चिंतित क्यों नहीं करती? क्या अंग्रेजों की तरह धरती पर खींची लकीर की तरह हमने अपने हृदय पर भी एक लकीर नहीं खींच ली है? इसमें एक तरफ अंग्रेज नीतियों से बना इंडिया है और दूसरी तरफ भूख, भय, बेरोजगारी से पीडि़त नेतृत्व-विहीन लोगों का समुद्र लहरा रहा है। यह दूसरेपन की भावना कुछ संपन्न लोगों को अल्पसमय की खुशियां दे सकती है, पर एक निश्चित खुशहाल भविष्य की गारंटी नहीं।

डॉ.राममनोहर लोहिया अपने शोधपूर्ण अध्ययन ‘इतिहास चक्र’ में इतिहास संबंधी दृष्टिकोण को समझाते हैं। मनुष्य चार युगों–आदि-साम्यवादी, दास-युग, सामंती-युग और अब पूंजीवादी-युग से होकर गुजर रहा है। वे स्पष्ट करते हैं कि सभी युगों में इतिहास की एक सतत गति रही है, इतिहास का एक नियम रहा है जो उत्पादन के विकास के तरीकों से बना है। उत्पादन की शक्तियां पैदावार के संबंधों और सम्पत्ति के अधिकार के रिश्तों में सतत संघर्ष होता है। इतिहास बताता है कि देशों के विकास में, वर्गों की समाप्ति की आड़ में, सदा ही वर्णों का निर्माण हुआ है।

समकालीन भारतीय राजनीति के स्वरूप को समझने के लिए वर्ग और वर्ण के बीच की शक्ति के बदलाव को समझना होगा। आजकल राजनीतिक दलों द्वारा बहुसंख्यकवाद की राजनीति में ही वर्णवाद का दर्शन काम करता है।

बनारस के पास सारनाथ में अशोक का स्तम्भ, जिसकी चोटी पर चार शेर बने हैं, हमें गौरवान्वित करता है। हर दिशा से देखने पर इसके तीन शेर ही दिखाई देते हैं – न्याय, कर्तव्य और सेवा, परंतु खुद राजा या शासक कभी दिखाई नहीं देता। यदि किसी देश का शासक दिखाई देगा तो उस देश में निश्चित न्याय, कर्तव्य और सेवा का कोई एक तत्त्व विलुप्त हो जाएगा।

अशोक स्तम्भ के साथ उसके एक धर्मलेख में एक स्मरणीय उदाहरण है- ‘हर अवस्था में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना लोगों का कर्तव्य है। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की अधिक उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। अपने ही सम्प्रदाय के आदर और उन्नति से किसी भी सम्प्रदाय की उन्नति नहीं होती, क्योंकि एक शरीर के सभी अंगों की तरह सम्प्रदाय भी एक देश से जुड़े रहते हैं।

अशोक की बात को आगे बढ़ाते हुए और विश्व के बीसवीं शताब्दी के घटनाक्रम को दृष्टिगत रखते हुए जवाहरलाल नेहरू एक महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं। नेहरू के अनुसार बहुत से लोगों को यह मुगालता होता है कि वे खास हैं और दूसरों से बेहतर हैं। जब ऐसे लोग मजबूत और ताकतवर हो जाते हैं, तो वे खुद को, अपने तौर-तरीकों को दूसरों पर थोपने लगते हैं। ऐसा करने में वे अपनी शक्तियों का अतिक्रमण कर जाते हैं और गिर जाते हैं।

हमारे देश के लोग अंग्रेजी राज्य के समय से ही ‘भारत माता की जय’ का जयकारा लगाते आ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यह जयकारा सभाओं और जुलूसों का मूलमंत्र बन गया है। भारतमाता का अर्थ आजादी के इतने वर्षों के बाद राष्ट्र-आराधना की जगह एक धर्म-आराधना के रूप में पूजा का माध्यम बनता जा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जवाहरलाल नेहरू इसे जनशक्ति के रूप में समझाते रहे हैं। नेहरू कहते थे, हम जो भी कर रहे हैं, वह अपनी आजादी के लिए ही तो कर रहे हैं। इसलिए जब हम ‘भारतमाता की जय’ बोलते हैं तो हम भारत के 30 करोड़ लोगों की जय बोलते हैं। उन 30 करोड़ लोगों को आजाद कराने की जय बोलते हैं। इस तरह हम सब भारतमाता का एक-एक टुकड़ा हैं और हमसे मिलकर ही भारतमाता बनती हैं। नेहरू जी आगे कहते हैं कि ‘जिस दिन हमारी गरीबी दूर हो जाएगी, हमारे तन पर कपड़ा होगा, हमारे बच्चों को अच्छी-से-अच्छी तालीम मिलेगी, हम सब खुशहाल होंगे, उस दिन भारतमाता की सच्ची जय होगी।’

आजादी के 75 वर्षों के बाद यदि हमारे देश का नेतृत्व ‘भारतमाता की जय’ को इस अर्थ में देखना शुरू कर देता तो अमीरों और गरीबों के मध्य निरंतर चौड़ी होती गहराई इतनी विकराल नहीं हुई होती। इससे स्पष्ट होता है कि देश को और देश के लोगों को देखने-समझने का नजरिया कितना अर्थपूर्ण और जरूरी होता है। शब्दों के अर्थ बदल जाने से देश की नियति भी बदल जाती है।

भारत और पाकिस्तान के 1965 के युद्ध के समय भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भारतीयता की अवधारणा की सुंदर व्याख्या की थी। 1965 के युद्ध के दौरान ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि चूंकि लालबहादुर शास्त्री हिन्दू हैं इसीलिए वे पाकिस्तान के साथ लड़ाई के लिए तैयार रहते हैं। लालबहादुर शास्त्री ने अपने एक उदबोधन में ‘बीबीसी’ की इस  रिपोर्ट के संदर्भ में कहा था कि ‘हमारे मुल्क के बारे में सबसे खास बात यह है कि हमारे यहां हिन्दू, मुसलमान,  सिख, ईसाई, पारसी और दूसरे कई धर्मों के लोग रहते हैं। हमारे देश में हजारों की तादाद में मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और चर्च हैं, लेकिन हम इसे कभी भी सियासत में नहीं लाते…..और यही भारत और पाकिस्तान के बीच असली अंतर है। पाकिस्तान अपने आपको इस्लामी राज्य मानता है और मजहब को एक सियासी हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। हम हिन्दुस्तानी किसी भी मजहब को मानने और उसकी उपासना करने की आजादी रखते हैं। जहां तक राजनीति का संबंध है, हममें से हरेक उतना ही हिन्दुस्तानी है जितना कि कोई दूसरा।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में भारत का राष्ट्रगीत ‘जन गण मन’ रचा गया है। इस राष्ट्रगीत के साथ ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारत को मानो परिभाषित करते हुए यह गीत भी रचा है-
‘हो चित्त जहां भय शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहां मुक्त, खुला यह जग हो….।’

(सप्रेस)

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