मुझे मेरी भाषा में कहो

0


— विमल कुमार —

ब्बे के दशक के आरंभ में जिन कवियों ने अपनी काव्य- यात्रा की शुरुआत की थी उनमें नवल शुक्ल सबसे अनोखे कवि थे अपनी काव्य भाषा और कहन को लेकर। उसके बाद उनका एक और काव्य संग्रह छपा था जिसकी स्मृति अब काव्य प्रेमियों में क्षीण हो गयी होगी लेकिन नवल शुक्ल के लिखने की गति डायरियों में भले ही तेज हो पर छपने की गति उनकी कम होती गई और अब करीब 20 साल के बाद उनका तीसरा संग्रह सामने आया है। इन 20 सालों में हिंदी कविता की दो नई पीढ़ियां सामने आ गई हैं और कविता का पूरा परिदृश्य बदल गया है। इस बीच नवल शुक्ल के साथ के कई कवियों के पांच या छह संग्रह भी सामने आ गए हैं। ऐसे में नवल शुक्ल पर्दे के पीछे रहकर अपना कवि कर्म करते रहे और कुछ दिन के लिए परिदृश्य से बाहर भी चले गए थे लेकिन उनके इस तीसरे संग्रह से समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में उनकी बड़ी वापसी हुई है।

मातृभाषा में नामक संग्रह एक नए-नए नवल शुक्ल की खोज तो है ही, साथ ही समकालीन हिंदी कविता में एक नई मातृभाषा की भी खोज है और एक नया आविष्कार भी है।180 पेज के इस संग्रह में नवल शुक्ल की 97 कविताएं हैं। इस तरह से देखें तो उनके एक कविता संग्रह में दो कविता संग्रह समाये हुए हैं। हिंदी में शायद ही किसी कवि का एक कविता संग्रह इतनी कविताओं को साथ लिये आया हो। इससे पता चलता है कि पिछले दो दशक में नवल शुक्ल लगातार लिखते रहे हैं भले ही वे उस गति से उन्हें साया ना करते रहे हों। असल में नवल को जाननेवाले इस बात को जानते हैं कि वह शुरू से ही बहुत शांत किस्म के कवि रहे हैं। वह कभी किसी आपाधापी या हड़बड़ी या भागदौड़ या किसी स्पर्धा या प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं रहे हैं लेकिन वह हिंदी कविता के पूरे परिदृश्य के सजग पाठक और आलोचक भी रहे हैं। इसलिए संभव है बहुत लोग उनके इस संग्रह को देखेंगे तो चौंक जाएंगे और विस्मित भी होंगे।

नवल शुक्ल

असल में नवल के पास एक ऐसी काव्यदृष्टि है जो बहुत विरल है। वह हिंदी कविता के प्रचलित मुहावरे और भाषा तथा शिल्प से अलग है। उनका कहन और अंदाज भी अलग है। अगर किसी ने उनका पहला या दूसरा संग्रह पढ़ा होगा तो वह इस बात से परिचित होगा कि नवल समकालीन कविता की रूढ़ियों को फॉलो नहीं करते हैं बल्कि वह किसी की परवाह किए बगैर अपनी शर्तों पर कविताएं लिखते रहे हैं और उन्हें इस बात का मलाल कभी नहीं रहा कि कोई उन्हें हिंदी कविता की मुख्यधारा या यात्रा में शामिल करता है या नहीं करता है। लेकिन इस संग्रह ने उन्हें एक ऐसी कतार में जरूर खड़ा कर दिया है जिसे अलक्षित नहीं रखा जा सकता और उसमें आप तमाम रंगों को देख सकते हैं।

उनमें सत्ता का विरोध जनता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और प्रगतिशील चेतना भी है लेकिन वे इसका तनिक भी आत्म-प्रदर्शन नहीं करते और न ही वह उसका उदघोष करते हैं जैसा कि हमारे बहुत सारे तथाकथित प्रगतिशील और क्रांतिकारी कवि अक्सर करते रहते हैं।

नवल की कुछ कविताएं तो बिल्कुल अद्भुत है जैसे “गिरा है जामुन” या “अमरूद का गदगद”, “हेल्पलाइन”, “निर्वाचित अंधेरा”, “मैं प्रतिदिन हूं” आदि आदि। आप उनकी कविताओं के शिल्प को देखिए या उसके मुखड़े को देखिए या उसके अंत को देखिए तो आपको लगेगा कि कवि बिल्कुल नए अंदाज में अपनी बातों को कह रहा है और कविता के बने बनाए ढर्रे या शिल्प से अलग हटकर वह अपनी बात लिख रहा है।

अब पहली ही कविता “मातृभाषा में” को देखें। उसे खोलें। इस कविता की पहली पंक्ति शुरू होती है- “मातृभाषा में हम गाय को गाय कहते थे ….हम गाय पर निबंध लिखकर बड़े हुए… फिर मातृभूमि पर जन्म स्थान से दूर हुए.. अब आसपास न गाए हैं ना उनकी रंभाती आवाजें हैं.. गौ माता गौ माता के जयकारे हैं.. गौ माता की तल्ख आवाजों में दौड़ते भागते लोगों की पदचाप है.. परिनिष्ठित भाषा है, धमकी है अन्याय है ..आखेट में शामिल लोग हैं..भयभीत आदिम छवियां हैं …”

इन पंक्तियों को पढ़कर आप जान सकते हैं कि नवल शुक्ल के लिए अब गाय केवल गाय नहीं है बल्कि वर्तमान समय की राजनीति और उसके पाखंड और अन्तर्विरोध का एक हिसा है और नवल उसे गाय के माध्यम से बेनकाब करते हैं। गाय के जरिये इस समय जो एक नया आख्यान रखने की कोशिश की जा रही है उसे नवल डिकंस्ट्रक्ट करके लोगों के सामने पूरी तरह खोल देते हैं।

उनकी दूसरी कविता “रंगों के तरल भार से गिरा है जामुन” एक नए अंदाज की कविता है। वीरेन डंगवाल की समोसे, पपीते और अमरूद पर लिखी गई कविताओं का स्मरण होना स्वभाविक है लेकिन हिंदी में जामुन के गिरने पर शायद ही किसी ने ऐसी कविता लिखी होगी।… गिलहरी की चिकचिकाहट से अचंभित हुआ.. और गिर गया जामुन.. आषाढ़ की बारिश की छुअन से.. उसके गिरने की होड़ में गिरा जामुन.. बूढ़ी आंखों को ऊपर देख तब तक गिरा जामुन… बच्चों की खुशियों में झूम कर उनके ताली पीटने से पहले ही गिर गया जामुन। यह जामुन हम सबको केवल अपने गांव और कस्बों में ही नहीं बल्कि बचपन में भी ले जाता है और यह जो छूटा हुआ जीवन है उसकी याद दिलाता है।

उनकी एक और विलक्षण कविता है “मैं प्रतिदिन हूं”। “..प्रतिदिन का स्वागत करता हूं… और आभार मानता हूं कि मैं प्रतिदिन हूं… मैं सबके हिस्से के प्रतिदिन से.. रोज कुछ से कुछ लेता हूं ..जगहों से लेता हूं …आकाश से लेता हूं …कुओं बावड़ियों, जल स्रोतों से, गुफाओं, कंदराओं और दीवारों के पार से…उत्पीड़न से दुखों से यात्राओं से…हॅंसी से खुशियों से मुस्कान से.. खेतों खदानों खलिहान से बियाबान से लेता हूं …मेरे पास कुछ नहीं है मेरा …बस थोड़ा प्रेम बचा रह जाता है प्रतिदिन…प्रेम ही है प्रतिदिन जीवन का सहारा…जिसमें ॲंधेरे को ॲंधेरा कहता हूं.. और प्रतिदिन को बचाता हूं…”

यह एक कवि का साहसिक बयान है लेकिन बहुत ही विनम्र स्वर में है। वह इस बात का साहस भी करता है कि मैं ॲंधेरे को ॲंधेरा कहता हूं और प्रतिदिन को बचाता हूं। यह रोजमर्रा के क्षणों में जीवन की खुशी व्यक्त करता है और इस जीवन को बनानेवाले तत्त्वों के प्रति आभार भी व्यक्त करता है कि मेरा कुछ भी नहीं है। नवल के यहां भाषा को लेकर बहुत सारी कविताएं हैं और वह बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि मेरी भाषा में कहो” ….मुझे मेरी भाषा में कहो… जिसमें मेरी काया दिखे.. और दिखे हमारा परिदृश्य…जहां दफन है हमारी आवाज …और मधुमक्खियों की तरह व्याकुल है” यानी कवि भाषा के सहारे जीवन को खोजता रहत है और भाषा में व्याप्त झूठ को भी पकड़ लेता है और इस तरह सत्य का संधान करता है।

नवल का यह भाषाप्रेम भाषाविदों या भाषाशास्त्रियों की तरह का भाषा प्रेम नहीं है और वह केवल शब्द, वाक्य विन्यास, व्याकरण तथा टेक्स्ट तक महदूद नहीं है बल्कि वह जीवन की परम अभिव्यक्ति है, उसकी गाथा है उसका सौंदर्य भी है।उसके बिना मनुष्य का अस्तित्व सम्भव नहीं। वह प्रेम और प्रतिरोध का भी माध्यम है।

उनकी एक और कविता है जागने से टूटते हैं सपने। नवल स्वप्न और यथार्थ के द्वैत में जीवन की कहानी कहते हैं। यह विडम्बना बोध है कि मनुष्य के जागते ही उसके सपने टूट जाते हैं फिर भी मनुष्य स्वप्न देखता है। बिना स्वप्न के मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। मनुष्य का जागना भी जरूरी है। वह निद्रा में नहीं रह सकता क्योंकि जीवन निद्रा में नहीं है क्योंकि निद्रा मनुष्य को चेतनाशून्य बना देती है। जागना चेतना सम्पन्न होना भी है।

नवल की कविता कई स्तरों पर संवाद करती है।

नवल अपनी कविता में बार बार विरोध की मुद्रा में दिखाई देते हैं लेकिन बड़े सूक्ष्म और बिना किसी शोर के प्रतिरोध दर्ज करते हैं। “जो देख रहा हूँ” में वह कहते हैं –
जो देख रहा हूँ
वह अच्छा नहीं बहुत बुरा है
इस बहुत बुरे को समझने के लिए रोज तैयार होता हूँ ।”

आगे वे कहते हैं –
“इतनी चोट और इतने घाव हैं
कि मरहम से कुछ नहीं होना
कुछ लोग सिर्फ विरोध में हैं
और बहुत सारे लोग खामोश
ऐसी जगहों पर बहुत सारे लोगों के इंतज़ार में हूँ।”

इस संग्रह की बहुत सारी खूबियों के बाद सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें कविताएं बहुत अधिक हैं। लगता है उन्हें एक संग्रह में ठूंस दिया गया हो। अधिक संख्या में कविताओं के होने से अच्छी कविताओं का प्रभाव निष्प्रभावी हो जाता है।कई जगह कवि को बढ़ई की तरह रन्दा भी मारना चाहिए। उससे शिल्प निखरता है और कविता चुस्त भी होती है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि नवल ने इन कविताओं से समकालीन कविता को समृद्ध किया है। कई जगह उन्हें पढ़ते हुए विनोद कुमार शुक्ल की भी याद आती है।

किताब : मातृभाषा में (कविता संग्रह)
कवि : नवल शुक्ल
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, सी-21 नोएडा सेक्टर-65, पिन कोड 201301
ईमेल : [email protected]

Leave a Comment