18 मार्च, 76 को मधु जी ने अपने ट्रांजिस्टर की होली क्यों जलाई

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)
विनोद कोचर

(इस संस्मरण के लेखक विनोद कोचर को इमरजेंसी के दौरान नरसिंहगढ़ जेल में मधु लिमये के सान्निध्य में आने और उन्हें बेहद करीब से जानने समझने का मौका मिला। मधु जी का यह किस्सा कोचर साहब ने अपनी जेल डायरी में 21 मार्च 1976 को दर्ज किया था जिसे उन्होंने समता मार्ग के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है।)

ह एक बड़ा दिलचस्प और हिंदुस्तानी नौकरशाही की निरंकुश मनोवृत्ति की झलक दिखानेवाला बेहतरीन किस्सा है।

हुआ यों, कि 15 जनवरी को भोपाल से, जेलर को जेल अधिकारी का तार मिला जिसमें जेलर से, निरुद्ध बंदियों के लिए 1965 में जारी किए गए आदेश का कड़ाई से पालन करने के लिए कहा गया था। उस आदेश के मुताबिक जेलों में निरुद्ध बंदी रेडियो, ट्रांजिस्टर की सुविधा का उपभोग नहीं कर सकते थे।

उस समय इस जेल में दो ट्रांजिस्टर थे। एक मधु जी के पास, और दूसरा, राजू के पास।

जेलर के मांगने पर राजू ने तो अपना ट्रांजिस्टर दे दिया लेकिन जेलर मधु जी से ट्रांजिस्टर नहीं ले पाया। उसने आदेश के क्रियान्वयन की रिपोर्ट भोपाल भिजवा दी। भोपाल से पुनः आदेश आया कि मधु जी से भी उनका ट्रांजिस्टर ले लिया जाय। जेलर ने फिर मधु जी से ट्रांजिस्टर मांगा। इस बार भी मधु जी ने ट्रांजिस्टर देने से इनकार कर दिया और गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी को एक कड़ा पत्र 25 या 26 जनवरी को लिखा।

इस पत्र में मधुजी ने लिखा था कि, “मुझे आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971 के तहत गिरफ्तार किया गया है। यह एक केंद्रीय अधिनियम है। 1971के केंद्रीय अधिनियम के तहत निरुद्ध बंदियों पर 1965 का प्रांतीय आदेश लागू नहीं किया जा सकता।…मीसाबंदियों के पास ट्रांजिस्टर यदि रहा तो उससे देश की आंतरिक सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा कैसे उत्पन्न हो सकता है?ट्रांजिस्टर समाचार आदि प्राप्त करने का यंत्र है, समाचार भेजने का नहीं। अन्य जेलों में श्री पीलू मोदी, श्री मोरारजी देसाई जैसे मीसाबंदियों को रेडियो, ट्रांजिस्टर के अलावा टीवी तक की सुविधा उपलब्ध है। अभी हाल ही में बम्बई उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया है जिसमें कहा गया है कि निरोध आदेश का मतलब किसी को दंडित करना नहीं होता। निरुद्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता में उतना ही हस्तक्षेप करना चाहिए जिससे निरोध का उद्देश्य पूरा हो जाता हो। उससे ज्यादा हस्तक्षेप करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। मैं मध्यप्रदेश राज्य के अवैध आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हूं।…..”

जेलर ने मधु जी के पत्र की नकल उतारकर भोपाल भिजवा दी और कलेक्टर राजगढ़ को भी इसकी सूचना दे दी।

भोपाल की नौकरशाही को ऐसा लगा कि जैसे कोई उनके निरंकुश प्रशासन पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है।उन्हें अपने अहंकार पर चोट लगती दिखाई दी।

विवेक, न्याय और औचित्य को ताक पर रखकर, मधु जी से ट्रांजिस्टर हस्तगत करना भोपाल की नौकरशाही ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। 28 या 29 जनवरी को राजगढ़ के कलेक्टर भी यहां आए। उन्होंने मधु जी को जेल ऑफिस में बुलवाकर उनसे ट्रांजिस्टर मांगा। राजगढ़ के कलेक्टर श्री विनोद कुमार जाजोरिया हरिजन हैं, इसलिए मधु जी के मन में उनके लिए बड़ी सहानुभूति है। पिछड़ी जाति के किसी आदमी को ऊंचे पद पर देखकर उन्हें बड़ी खुशी होती है। मधु जी ने बड़ी शान्ति से अपना पक्ष कलेक्टर के सामने रखा।

मधु जी के कानूनी तर्कों का लोहा तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी मानते हैं, फिर कलेक्टर की क्या बिसात? बेचारा बिना कोई जवाब दिये वापस चला गया।

यह जानते हुए भी कि 1965 के प्रांतीय आदेश के मुताबिक,1971के केंद्रीय अधिनियम के तहत निरुद्ध व्यक्ति से ट्रांजिस्टर हासिल नहीं किया जा सकता, ये जानते हुए भी कि उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक मीसाबंदी की व्यक्तिगत आजादी पर जरूरत से जादा अंकुश नहीं लगाया जा सकता, केवल अपने अहं पर लगी चोट का बदला लेने के लिए नौकरशाही बेचैन थी।

31जनवरी को कलेक्टर महोदय फिर आए लेकिन इस बार वे अकेले नहीं आए। एक लारी भरकर सशस्त्र पुलिस दस्ता भी उनके साथ आया। वे ये फैसला करके आए थे कि मधु जी से बलपूर्वक ट्रांजिस्टर ले जाएंगे।

इधर मधु जी की न्यायोचित प्रतिष्ठा हम सभी की प्रतिष्ठा बन चुकी थी। मामला काफी गरम हो गया था लेकिन मुकाबला भी जोरदार था। एक तरफ निरंकुश और शक्तिशाली नौकरशाही थी और दूसरी तरफ नैतिकता, ईमानदारी, सच्चरित्रता एवं देशभक्ति की साकार प्रतिमा के रूप में मधु जी थे। उनके इशारे पर जान की बाजी लगानेवाले शरद जी के अलावा और भी कई थे।

मामले को क्लाइमेक्स पर पहुंचाने की तैयारी शुरू हो गई।पहले जेलर भीतर आए। उन्होंने मधु जी से निवेदन किया। मधु जी ने कहा कि आप बलपूर्वक ट्रांजिस्टर ले जाना चाहें तो ले जाएं, मैं ऐसे नहीं दूंगा। जेलर ने मधु जी से कहा कि वे ऑफिस में चलकर कलेक्टर से बात कर लें। मधु जी ने इस बार कलेक्टर से बात करने से इनकार कर दिया। जेलर ने शरद जी से कहा कि वे मधु जी को समझाएं। शरद जी ने जवाब दिया कि “जेलर साहब, मैं मधु जी को क्या समझाऊंगा, आप तो कलेक्टर से जाकर कह दीजिए कि वह अपनी सारी फौज लेकर जेल में आ जाएं। मधु जी का ट्रांजिस्टर ले जाने के पहले उसे शरद यादव की लाश पर से जाना होगा।” बेचारा तहसीलदार भी जेलर के साथ था।दोनों अपना सा मुंह लेकर वापस चले गए।

ऑफिस में नौकरशाही की मंत्रणा होती रही। वे यह महसूस कर रहे थे कि किसी छोटे मोटे आदमी से नहीं, मधु लिमये से पाला पड़ा है। जरा सी भी भूल हुई तो नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। फोर्स का एक बार इस्तेमाल हो गया तो फिर कैफियत देने की पूरी जवाबदारी भी सिर पर आ जाएगी। जो पुलिस को जेल में घुसने का आदेश देगा, वही बाद में मुसीबत में फंसेगा। सभी इस बात को समझ रहे थे। कलेक्टर ने अपने रौब का इस्तेमाल कर जेलर से कहा कि वह पुलिस को आदेश देकर, मधु जी से बलपूर्वक ट्रांजिस्टर हासिल करे। जेलर भी भीतर की बात समझता था। उसने कहा, ‘आपके रहते हुए मैं कैसे आदेश दे सकता हूँ? आप ही आदेश दीजिए।’

कलेक्टर की चालबाजी जब काम नहीं आई तो वह गुस्से से बिफर गया। बौखलाने के बाद बिल्ली को खम्भा नोचते हुए, पता नहीं किसी ने देखा है या नहीं लेकिन उसी दिन रात को हमने, कलेक्टर की बौखलाहट के नतीजे के रूप में जेल की छत की सीढ़ियों को दीवार से चुनवाते हुए देखा। कलेक्टर ने जब ये देखा कि ताकत का इस्तेमाल कर मधु जी से ट्रांजिस्टर लेना आसान काम नहीं है, तो फिर उसका बौखलाया हुआ विवेक दूसरी दिशा में काम करने लगा।

एसडीओ मिस टी रहमान भी कलेक्टर के साथ में थीं। अपनी बौखलाहट को रास्ता देने के लिए उन्हें 26 जनवरी को घटी एक छोटी सी घटना का बहाना मिल गया।

हिंदुस्तान की सरकार उस दिन, गणतंत्र की हत्या करने के बाद, गणतंत्र के 26वें समारोह का नाटक पूरे देश में मना रही थी। जेलों में बंद गणतंत्र के पुजारी सोच रहे थे कि क्या करें?

सुबह सुबह सभी मीसाबंदी छत पर इकट्ठे हो गए। सामने सरकारी अस्पताल छत से दिखता है। एसडीओ का बंगला भी वहां से दिखता है। सरकारी कॉलेज भी पास ही में है।अस्पताल में झंडा फहराया जा रहा था। मीसाबंदियों ने एक स्वर से जोरों से नारा लगाया- ‘लोकनायक जयप्रकाश जिंदाबाद!जिंदाबाद!!’, ‘इंदिरा तेरी तानाशाही – नहीं चलेगी!नहीं चलेगी!!’ , ‘कितनी ऊंची जेल तुम्हारी- देखी है और देखेंगे!, ‘भारतमाता की जय’!

सामने से कॉलेज के छात्रों का जुलूस निकला तो फिर वही नारे लगाए गए। बात सारे नरसिंहगढ़ में फैल गई कि मीसाबंदी बड़े दिलेर हैं, जेल में बंद रहकर भी गरज रहे हैं। कांग्रेसियों और नौकरशाही के सीनों पर सांप लोटने लगे। हमारी आवाज को बंद नहीं कर सकने की उनकी लाचारी थी क्योंकि दुनिया को दिखाने के लिए प्रजातंत्र का नाटक भी जो करना था।

बस, यही बात 31 जनवरी की रात को, कलेक्टर की बौखलाहट की भूख मिटाने के काम आई। ‘मीसाबंदी छत पर जाकर नारे लगाते हैं इसलिए छत बंद होनी चाहिए’- ये कहकर कलेक्टर ने जेलर को आदेश दिया कि अभी और इसी वक्त सीढ़ी के दरवाजे को दीवाल बनाकर बंद किया जाय। ऐसे मामलों में नौकरशाही बड़ी फुर्ती दिखाती है। आदेश होते ही, पीडब्लूडी के कर्मचारी, बेलदार, मजदूर, ईंट, सीमेंट आदि सबकुछ ,रातोरात जेल में आ गए। काम शुरू हुआ और आधी रात होते तक जेल की छत हमलोगों के लिए बंद हो गई।

छत बंद होने का सबसे ज्यादा सदमा मधु जी को लगा। मधु जी जब छत पर घूमते थे तो आसपास के कुदरती नजारे उनका मन मोह लेते। ऊपर खुला आसमान, साफ-सुथरी आबोहवा, उत्तर और दक्षिण में पहाड़ी टीले, बड़े बड़े पेड़ों का झुरमुट, पच्चीसों किस्म के मनमोहक पक्षियों का कलरव- ये सब देखकर मधु जी कहा करते थे कि ‘मैंने अबतक जितनी भी जेलें देखी हैं, उनमें नरसिंहगढ़ की जेल और उसमें भी ये खुली छत बेमिसाल है।’ आसमान के तारों को निहारने का, सौरमंडल का अध्ययन करने का भी मधु जी को बड़ा शौक है। कभी कभी वे कहा करते- ‘इंसान कितना छोटा है लेकिन उसकी प्यास कितनी गहरी है! सारे ब्रह्मांड के रहस्य जानने की उसकी जिद, पता नहीं कब पूरी होगी?’

छत पर घूमते हुए, प्रकृति के नजारों को देखकर जो सुकून मधु जी को मिलता था, 1फरवरी से वो सुकून मधु जी से छिन गया।

ट्रांजिस्टर के बदले नौकरशाही ने मधु जी से उनका सुकून छीन लिया। लेकिन इतना करके भी नौकरशाही की बेचैनी खत्म नहीं हुई।

कलेक्टर अपने आप को बड़ा अपमानित महसूस कर रहा था।सोच रहा था- क्या करूं? कैसे करूं? उसे ये बात भी अपमानजनक लग रही थी कि जेलर ने उसकी बात नहीं मानी।कलेक्टर चाहता था कि जेलर उसके मौखिक आदेश का पालन करे, फिर भले ही जांच के दौरान जेलर की नौकरी ही क्यों न चली जाय।

हिंदुस्तानी नौकरशाही में सभी जगह ऐसा ही चल रहा है।

कलेक्टर ने जेलर से भी बदला लेने की ठानी। भोपाल जाकर उसने आईजी (प्रिजन्स) से जेलर की शिकायत की कि वह मधु जी से मिला हुआ है और जानबूझ कर मधु जी से ट्रांजिस्टर हासिल नहीं कर रहा है। बीच का समय इसी चुगलखोरी और भीतरी साजिश में बीतता रहा।

17 मार्च को आईजी (प्रिजन्स) नरसिंहगढ़ आए और जेल अधीक्षक को बुलवाकर उन्होंने ये मौखिक धमकी दी कि, ‘जेलर से कह दो कि दो दिन के भीतर अगर उसने मधु जी से ट्रांजिस्टर हासिल नहीं किया तो उसकी नौकरी खतम हो जाएगी।’ जेल अधीक्षक ने जेलर से ये बात कह भी दी। जेलर भी जानता था कि आईजी को नाराज करके वह नौकरी में नहीं रह सकेगा। लेकिन उसने ये भी फैसला कर लिया था कि भले ही उसकी नौकरी चली जाय लेकिन ट्रांजिस्टर हासिल करने के लिए वह मधु जी पर बल प्रयोग नहीं करेगा।

17 मार्च की रात को जेल अधीक्षक के साथ जेलर मधु जी के पास आया। मधु जी से उसने सारी बात बताई और हाथ जोड़कर उसने मधु जी से ट्रांजिस्टर मांगा। मधुजी ने कहा कि ‘केंद्र सरकार को लिखे मेरे पत्र का फैसला हो जाने दीजिए।’ जेलर ने कहा कि ‘ लेकिन तबतक तो मेरी नौकरी ही चली जाएगी।’ तब मधु जी ने कहा कि आप चाहें तो बलपूर्वक मुझसे छीनकर ट्रांजिस्टर ले जा सकते हैं।’ तब जेलर ने कहा कि ‘नहीं, मैं आपके साथ ऐसा सलूक नहीं कर सकता- भले ही मेरी नौकरी चली जाय।’ उस रात जेलर की आंखों से आंसू बहने लगे थे।

मधु जी ने महसूस किया कि जेलर नौकरशाही के पंजों में फंस गया है। वे यह भी महसूस कर रहे थे कि उनके सम्मान की खातिर, जेलर अपनी नौकरी तक से हाथ धोने को तैयार है।जेलर की इंसानियत ने मधु जी को भी कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। वे सोचने लगे कि ऐसा कोई रास्ता निकालना चाहिए जिससे मेरी बात भी रह जाय और जेलर की नौकरी भी रह जाय।

मधु जी ने सोचा कि ट्रांजिस्टर की होली जलाकर, जला हुआ ट्रांजिस्टर जेलर को दे देना चाहिए। ऐसा करने से नौकरशाही के मुंह पर तमाचा भी लग जाएगा और जेलर की नौकरी भी बच जाएगी। उन्होंने जेलर से दूसरे दिन सुबह 9 बजे आने के लिए कहा।

18 मार्च को सुबह 8 बजे मधु जी ने लोकसभा के स्पीकर श्री बलिराम भगत को एक पत्र लिखा। पांचवीं लोकसभा के सदस्य की हैसियत से लिखा गया, मधु जी का यह आखिरी पत्र था। 18 मार्च,76 के बाद स्वेच्छा से मधु जी लोकसभा की सदस्यता त्याग चुके हैं। इस आखिरी पत्र में मधु जी ने ट्रांजिस्टर प्रकरण को लेकर नौकरशाही के नंगे नाच का उल्लेख किया था। मधु जी ने इस पत्र के अंत में श्री भगत को सूचित किया था कि वे अपना ट्रांजिस्टर जला रहे हैं।

मधु जी अपनी कथनी और करनी में फर्क नहीं होने देते। उसी समय ट्रांजिस्टर की होली जल गई। उस होली से निकलने वाला धुआं हिंदुस्तानी नौकरशाही की निरंकुशता की कहानी कह रहा था। नौकरशाही अब कांग्रेस के अंकुश के बाहर हो गई है। बड़े अधिकारी छोटे अधिकारी पर धौंस जमाकर गैरकानूनी काम करवाते रहते हैं। कभी जब जांच होती है तो बड़े अधिकारी बच जाते हैं और छोटे अधिकारी अपराध के शिकंजे में फंस जाते हैं।

लेकिन ट्रांजिस्टर प्रकरण से इंसानियत के रिश्तों की कहानी भी फिजां में गूंज रही है। जेलर की इंसानियत और मधु जी की इंसानियत एक दूसरे के काम आई।

दुनिया में यही होता चला आ रहा है। हैवानियत एक दूसरे का गला काटती है और इंसानियत एक दूसरे का दर्द बांटती है।

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