इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन. राय : चौदहवीं किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

ब से इतिहास को निष्पक्ष आलोचना के रूप में लिखा जाना शुरू हुआ है तब से सिकंदरिया के पुस्तकालय क जलाये जाने की घटना पर विश्वास नहीं किया गया अथवा उसके संबंध में गम्भीर शंकाएँ प्रकट की गयी हैं। किसी भी मामले में सरासेनी विजय के बाद सिकंदरिया का पुस्तकालय यूनानी ज्ञान की बहुमूल्य पुस्तकों का केंद्र नहीं रह गया था। उस आक्रमण के बहुत पहले से सिकंदरिया पर ईसाई धर्मांधता का प्रभुत्व हो गया था और वह वैज्ञानिक ज्ञान और दार्शनिक पाण्डित्य का केंद्र नहीं रह गया था। अरब आक्रमण के पहले सिकंदरिया के पुस्तकालय का चरित्र बदल गया था। मूर्तिपूजक यूनानी विद्वानों को ईसाइयों की असहिष्णुता के कारण वहाँ से भाग जाना पड़ा था और अनुमानतः वे लोग प्राचीन ज्ञान की धरोहरों और ज्ञानकोशों को, अन्य बहुमूल्य वस्तुओं को अपने साथ ले गये होंगे। यदि सिकंदरिया के पुस्तकालय को उमर के आदेश से जलाया गया तो उसमें धार्मिक विवाद वाली  दिखावटी कब्रों को जलाया गया था, जिनसे मानव-जाति का लाभ होने के स्थान पर उसे हानि ही अधिक हुई थी। यह संभव है कि सिकंदरिया के अग्निकाण्ड में मिथ्या और महत्त्वहीन धार्मिक विवादों के विवरण जले हों। लेकिन स्वतंत्र विचार के खलीफाओं ने पुराने ज्ञान की पुस्तकों और विवरणों का संग्रह किया, उनकी रक्षा की और उनको सुधारा, जिन्हें सिकंदरिया के पुस्तकालय से उसके जलाये जाने के पहले निकाल लिया गया था।

बेजेण्टाइन बर्बरता ने टोल्मी के उत्तम ग्रंथों को नष्ट कर दिया था। सिकंदरिया के शिक्षा केंद्र का विनाश तो सेण्ट सीरिल ने किया था, जिसने हैपारिया के मेले में शिक्षा की देवी की मूर्ति को तोड़ डाला था। वह कार्य तो पाँचवीं शताब्दी के आरंभ में किया गया था। ईसाई संत दार्शनिक भाषणों और गणित के वाद-विवादों के प्रति अत्यंत असहिष्णु थे। उस प्रकार के वाद-विवाद सिकंदरिया के समाज में मूर्तिपूजक युवतियाँ करती थीं, जिन्हें समाज के विद्वानों का संरक्षण प्राप्त था जबकि ईसाई धर्माध्यक्ष के समझ में न आने वाले उपदेशों को केवल विद्रोही ही सुनते थे। विद्वत्ता के आधार पर ईसाई धर्माध्यक्ष ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तुलना में नहीं आते थे। वह प्रतिस्पर्द्धा को एकदम खत्म करना चाहता था। उसने उत्तेजना फैलाकर सिकंदरिया पर आक्रमण किया, आगजनी की और धर्म के नाम पर दर्दनाक अपराध किये, जिनका विवरण लिखना और उन्हें याद करना शर्मनाक है।

‘इस प्रकार ईसा के 414वें वर्ष में सिकंदरिया के ज्ञान और दर्शन के केंद्र के भाग्य का निर्णय किया गया। इसके बाद विज्ञान को दबा दिया गया और उसे निम्न स्तर पर पहुंचा दिया गया। उसके सार्वजनिक अस्तित्व को सहन नहीं किया गया। यह कहा जा सकता है कि वास्तव में इसके बाद की कुछ शताब्दियों में वह लापता हो गया। धर्मांधता की गदा ने यूनानी दर्शन के शिरस्त्राण को नष्ट कर दिया। सीरिल के घृणात्मक कार्य पर किसी ने प्रश्न नहीं किया। अब इस बात का दावा किया जाता है कि रोम साम्राज्य में विचारों की अधिक स्वतंत्रता रही होगी।

इस प्रकार के दावों का यह उद्देश्य हो सकता है कि सिकंदरिया की शक्ति पर उनका अधिकार था और जब सरासेनी आक्रमणकारियों ने उस पर अधिकार किया तो उन लोगों ने उसका विनाश किया। इसके बाद की दो शताब्दियों तक सिकंदरिया में दमनचक्र चलता रहा जबकि उसे विदेशी आक्रमणकारियों ने खत्म किया। यह बात संसार को देखनी है कि विजयी  अरब योद्धा अपनी उद्घोषणाओं के अनुसार अपनी तलवार पर अधिक भरोसा करते थे और उन्होंने कभी अतिमानवीय गुणों का दावा नहीं किया। इस प्रकार बिना धार्मिक विवादों में पड़े उन लोगों ने नये ज्ञान को प्राप्त करने में अपने को स्वतंत्र माना और उनके नेतृत्व में मिस्र  को पुनः ज्ञान और विद्वत्ता का केंद्र बनाया और उन सांस्कृतिक धरोहरों और दार्शनिक विचारों का पुनः उद्धार किया, जो अज्ञान के समुद्र में डुबो दिये गये थे।

 (ड्रापर – हिस्ट्री ऑफ दि इंटेलेक्चुअल डेवलपमेण्ट ऑफ यूरोप, भाग 1, पृ. 325)

प्राचीन यूनानी दार्शनिकों की पुस्तकों का उद्धार ही नहीं किया गया वरन् उनको अरब लोगों ने संकलित और सुरक्षित किया। उनके संबंध में विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयीं। प्लेटो (अफलातून), आरिस्टॉटिल (अरस्तू), यूक्लिड, अपोलोनियम, टोल्मी, हैप्पोक्रेटीस और गेलन की कृतियों को आधुनिक यूरोप के पूर्वजों को अरबी व्याख्याओं के साथ उपलब्ध कराया गया। आधुनिक यूरोप ने अरब से चिकित्सा और गणित की शिक्षा ही नहीं प्राप्त की, ज्योतिष का ज्ञान भी उन्हें अरब लोगों के माध्यम से मिला, जिससे मानव का दृष्टिकोण विशाल होता है और प्रकृति के यंत्रवत् नियम प्रकट होते हैं जिनको अरब लोगों ने बड़ी कुशलता से विकसित किया था।

अंतरिक्ष शोध के नये यंत्रों की सहायता से अरब दार्शनिकों ने पृथ्वी की परिधि और अनेक नक्षत्रों की स्थिति का ज्ञान अर्जित किया। उनके नेतृत्व में ज्योतिष का विकास हुआ और उसे दैवी तत्त्वों से मुक्त किया गया। प्रायः सभी प्राच्य देशों में ज्योतिष-ज्ञान पण्डितों और पुरोहितों के हाथ में था। अरब लोगों ने उसका विकास विज्ञान के रूप में किया। यद्यपि सिकंदरिया के डियोफैट्स ने बीजगणित की खोज की थी, लेकिन अरब ज्ञान का वह मुख्य आधार बना। यथार्थ तो यह है कि विज्ञान के सिद्धांत को अरबों ने बनाया, लेकिन उन्होंने विनम्रतापूर्वक यूनानी दार्शनिकों को उसका श्रेय दिया। वनस्पति विज्ञान का अध्ययन चिकित्सा के लिए किया जाता था। डियोसकोरीडस ने करीब दो हजार औषध-पौधों का पता लगाया था जो नये विज्ञान का आधार बना। रसायन-शास्त्र (अलकीमिया) के रहस्यों को मिस्र के पुरोहितों ने बड़ी सावधानी से गुप्त रखा था। बेबीलोन में भी उसका व्यवहार होता था। काफी समय बाद भारत के चिकित्सकों को उसका थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ।

लेकिन रसायन-शास्त्र के विज्ञान के जन्म का श्रेय अरब लोगों द्वारा उसके औद्योगिक रूप के विकास को है। ‘उन्होंने पहले अर्क निकालने के भबका की खोज की और उसका नामकरण किया और उन्होंने प्रकृति के तीनों राज्यों के तत्त्वों की व्याख्या की और खार और अम्ल की विशेषताओं की खोज की और बहुमूल्य धातुओं के प्रयोग से भस्म और अन्य औषधियों का निर्माण किया।’ (गिबन) चिकित्सा विज्ञान में अरब लोगों ने सबसे अधिक प्रगति की। मसुआ और जेबर, गेलन के योग्य शिष्य थे और उन्होंने उस ज्ञान में वृद्धि की जो उन्हें अपने गुरु से प्राप्त हुआ था। अबीसीना का जन्म बुखारा में दसवीं शताब्दी में हुआ था। उसे पाँच सौ वर्षों तक यूरोप में चिकित्सा शास्त्र का अधिकारी ज्ञाता माना जाता था। 16वीं शताब्दी में सलेरमो का मदरसा यूरोप के चिकित्सकों का शिक्षा का केंद्र था। उसकी स्थापना सरासेनियों ने की थी और वहाँ अबीसीना ने अध्यापन कार्य किया था।

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