— नंदकिशोर आचार्य —
साहित्य और अनुशासनों के अंतर्संबंधों को लेकर की जाने वाली बहस में आजकल एक उदार भंगिमा के साथ अक्सर यह स्वीकार किया जाने लगा है कि साहित्य की अपनी एक स्वायत्तता है, लेकिन साथ ही यह भी तुरंत जोड़ दिया जाता है कि यह स्वायत्तता सापेक्ष है क्योंकि साहित्य का काम अंततः यथार्थ की प्रस्तुति है और इसलिए उसके माध्यम से प्रस्तुत यथार्थ की प्रामाणिकता की जांच साहित्य से बाहर के यथार्थ की कसौटी पर ही हो सकती है। इस संबंध में मुक्तिबोध का यह कथन उल्लेखनीय है कि कला का अपना स्वायत्त स्वतंत्र राज्य है किंतु उसकी वह स्वायत्तता और स्वतंत्रता सापेक्ष है। वह अपने अस्तित्व के ही लिए, अपने जीवन तत्त्वों के लिए, प्राण वैभव के लिए कलाबाह्य यह जो अपार विस्तृत जीवन है, उस पर निर्भर है।
सामान्य तौर पर इस कथन को लेकर कोई आपत्ति नहीं दिखाई देगी क्योंकि मानवीय चेतना का एक विशिष्ट रूप होने के नाते मानवीय जीवन, संवेदना और परिस्थितियों से साहित्य का संबंध सर्वमान्य है और साहित्य रचना के माध्यम से मानवीय जीवन के ही नए रूप और आयाम हमारे सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से देखने पर इस प्रकार के आपत्तिहीन लगने वाले कथन साहित्य की स्वायत्तता या स्वतंत्रता को सीमित ही नहीं, नष्ट कर रहे होते हैं क्योंकि ये साहित्य को ज्ञान के अन्य प्रकारों के मुकाबले ओछा और कम प्रामाणिक मानते और इस प्रकार साहित्य को अन्य अनुशासनों का पिछलग्गू बनाकर उसकी अपनी विश्वसनीयता की परख उन अनुशासनों के आधार पर करना चाहते हैं।
साहित्य और यथार्थ को लेकर की जाने वाली बहस में एक वर्ग है जो बहुत उदार होकर सोचने और साहित्यगत यथार्थ के महत्त्व को स्वीकार करने का दावा करते हुए भी यह तो मानता ही है कि यथार्थ और यथार्थ-बोध अलग अलग होते हैं। कुछ लोग साहित्य रचना के यथार्थोन्मुख होने की अनिवार्यता को वांछनीय न मानते हुए भी इस पर बल देना जरूरी समझते हैं कि यथार्थ तो दिया हुआ ही होता है, रचनाकार उसका सर्जन नहीं करता। इसलिए जब साहित्यकार यथार्थ की प्रस्तुति का दावा करता है तो उसकी जांच बाहरी यथार्थ की कसौटी पर ही की जा सकती है।
लेकिन इस विचार में, यानी ‘यथार्थ’ और ‘यथार्थ-बोध’ को अलग मानने में अक्सर इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि हमारे लिए यथार्थ का अस्तित्व तभी है जब वह हमारी चेतना में समाता है। मानवीय चेतना से बाहर भी कोई यथार्थ होता होगा लेकिन जब तक हमारी चेतना की उस तक पहुंच नहीं है, जब तक वह हमारे अनुभव का, विचार का हिस्सा नहीं है तब तक हमारे लिए उसका अस्तित्व कोई अर्थ नहीं रखता। इस दृष्टि से यथार्थ और यथार्थ-बोध एक ही चीज हो जाते हैं, क्योंकि हमारे लिए यथार्थ का अस्तित्व उसके बोध पर निर्भर करता है। साहित्य में जो यथार्थ प्रस्तुत किया जाता है, वह मानवीय चेतना की परिधि में आना वाला यथार्थ है, अनुभूत यथार्थ है, जो हमारे बोध का हिस्सा है। इसलिए एक साहित्यकार के रूप में ही नहीं एक मानव के रूप में भी हमारे लिए यथार्थ और यथार्थ-बोध को अलग करना संभव नहीं है क्योंकि यथार्थ का बोध ही हमारा यथार्थ हो पाता है और हमारे बोध के बाहर जो कुछ भी है- यदि है- तो उसकी कोई परख या कसौटी हमारे पास नहीं है।
मानवीय चेतना की परिधि में आने वाले यथार्थ को जांचने-परखने का काम भी बहुत जटिल है और उसकी कोई एक कसौटी नहीं बनाई जा सकती। सभी प्रकार की विधाएं और कलारूप उस यथार्थ तक पहुंचने की विविध पद्धतियां और रास्ते हैं जिनकी अपनी वैधता और औचित्य है। लेकिन इन सभी की वैधता और औचित्य को स्वीकार करने पर एक जटिल समस्या आ खड़ी होती है और वह यह कि क्या इन पद्धतियों में कोई उच्चावच क्रम है और क्या एक की वैधता की पुष्टि किसी अन्य विधा या कलारूप से की जा सकती है।
क्या विज्ञान के द्वारा जाने गए यथार्थ की पुष्टि साहित्य या कला या अन्य विधाओं से की जानी चाहिए और उसके बिना विज्ञानगत यथार्थ को प्रामाणिक नहीं मानना चाहिए? जाहिर है कि इसका उत्तर निषेधात्मक होगा क्योंकि विज्ञान की अपनी पद्धतियां और प्रक्रियाएं हैं तथा इन्हें छोड़ देने पर उनके माध्यम से जाने गए यथार्थ की पुष्टि नहीं की जा सकती। किंतु तब साहित्य के बारे में भी यही सच है कि उसके माध्यम से – बल्कि साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से भी – जाने गए यथार्थ या सच की पुष्टि विज्ञान या अन्य प्रकार के अनुशासनों के माध्यम से नहीं की जा सकती क्योंकि साहित्य की पद्धति या प्रक्रिया, विज्ञान या अन्य अनुशासनों की पद्धतियों और प्रक्रियाओं से, भिन्न है और इसीलिए उनके माध्यम से जाना गया यथार्थ भी भिन्न है।
दूसरे शब्दों में, क्योंकि विभिन्न माध्यमों का यथार्थ-बोध भिन्न है, अतः उसके द्वारा जाने गए यथार्थ की संरचना और स्वरूप भी भिन्न हैं। वे एक-दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं क्योंकि वे एक ही यथार्थ के बोध की विभिन्न स्वायत्त प्रक्रियाएं हैं जिनकी अपनी-अपनी वैधता और औचित्य है और जिनमें से किसी एक को दूसरे पर वरीयता नहीं दी जा सकती।
इसी अर्थ में साहित्य का संसार और उसका यथार्थ स्वायत्त और स्वतंत्र है और क्योंकि यह स्वायत्तता और स्वतंत्रता यथार्थ को जानने की किसी अन्य साहित्येतर प्रक्रिया से बाधित अथवा नियंत्रित-निर्देशित नहीं है, इसलिए साहित्यगत यथार्थ की जांच की कसौटी साहित्य से बाहर का यथार्थ नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, साहित्य के यथार्थ-बोध को किसी अन्य अनुशासन का- विज्ञान का भी- यथार्थ-बोध नियंत्रित-निर्देशित नहीं कर सकता।
विभिन्न अनुशासनों के माध्यम से जाना गया यथार्थ एक-दूसरे के लिए सहायक हो सकता है लेकिन वह उसकी स्वायत्त प्रक्रिया में बाधा नहीं हो सकता और न उसे निर्देशित कर सकता है। एक-दूसरे के माध्यम से जाने गए यथार्थ से लाभ उठाते हुए भी प्रत्येक अनुशासन की अपनी प्रक्रिया की स्वायत्तता बनी रहती है और इसी वर्ष में जो कुछ एक अनुशासन से माध्यम से जाना जाता है वह उसका अपना विशिष्ट यथार्थ होता है। साहित्य या अन्य कलारूप भी इसका अपवाद नहीं हैं।
लेकिन तब ऐसी स्थिति में इस बात का क्या मतलब रह जाता है कि साहित्य के माध्यम से जाने गए यथार्थ यानी साहित्यगत यथार्थ की जांच या प्रामाणिकता की कसौटी बाह्य यथार्थ ही हो सकता है? वह बाह्य यथार्थ क्या है और उसे हम किस तरह जान पाते हैं? और इस जानने की अपनी प्रामाणिकता आखिर क्या है? जिसे हम बाह्य यथार्थ कहते हैं वह किसी न किसी अनुशासन का यथार्थ-बोध होता है चाहे वह अनुशासन भौतिक विज्ञान हो, मनोविज्ञान या दर्शन, अर्थशास्त्र अथवा इतिहास या अन्य कुछ। यथार्थ को जानने की जितनी पद्धतियां और प्रक्रियाएं हैं, उतनी ही विधाएं या अनुशासन हैं और यथार्थ के हर स्वरूप का हमारा बोध इनमें से किसी न किसी प्रक्रिया या पद्धति से नियंत्रित है। इसलिए किसी प्रक्रिया या पद्धति से बाहर का यथार्थ भी किसी न किसी दूसरी पद्धति या प्रक्रिया का यथार्थ है।
जिसे हम साहित्य से बाहर का यथार्थ कहते हैं वह भी किसी न किसी अन्य अनुशासन के माध्यम से जाना गया यथार्थ है और उसे साहित्यगत यथार्थ पर वरीयता देने का सीधा तात्पर्य किसी अन्य अनुशासन की प्रक्रिया को साहित्य की प्रक्रिया की कसौटी बनाने की कोशिश करना है जो न केवल साहित्य-विरोधी बल्कि एक गलत कोशिश भी है क्योंकि यह कहीं सिद्ध नहीं हो सका है कि कोई एक अनुशासन केंद्रीय अनुशासन है और बाकी सारी विधाएं उसकी अनुवर्ती या उससे नियंत्रित-निर्देशित हैं।
इतिहास के किसी दौर में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के दबाव या कभी-कभी हमारे किसी मानसिक स्खलन की वजह से हम किसी एक अनुशासन को हमारे जीवन में उसकी स्थूल उपयोगिता के कारण अधिक महत्त्व दे रहे हो सकते हैं – जैसा कि आजकल प्राकृतिक विज्ञानों या तकनीकी को दिया जा रहा है – लेकिन इस स्थूल उपयोगिता के कारण ज्ञान की प्रक्रिया के रूप में उसका महत्त्व ज्ञान की अन्य प्रक्रियाओं के नियंत्रक-निर्देशक के रूप में स्वीकार किया जाना किसी भी दृष्टि से न तो उचित है और न श्रेयस्कर ही।
हाइजेनबर्ग के हवाले से यह बात मैं पहले भी निवेदित करता रहा हूं कि यथार्थ का तद्वत् ज्ञान या बोध ही संभव नहीं है। किसी भी वस्तु का हमारा ज्ञान उस यंत्र से यानी उस प्रक्रिया से अनिवार्यतः प्रभावित होता है जिसके माध्यम से हम उसे देखने-जानने की कोशिश कर रहे होते हैं। इसलिए हम जो कुछ जान पाते हैं वह कोई निरपेक्ष यथार्थ नहीं बल्कि हमारे माध्यम की प्रकृति से रूपांतरित यथार्थ होता है और इसी अर्थ में, यथार्थ की पहचान की हमारी प्रक्रिया ही हमारा यथार्थ ही जाती है, बल्कि तब वह यथार्थ की पहचान की नहीं, यथार्थ के सर्जन की प्रक्रिया हो जाती है और हम उसी का संप्रेषण कर रहे होते हैं। इसलिए जब भी हम यथार्थ की कोई नई पहचान, यथार्थ के प्रति किसी नई दृष्टि का अनुभव करते हैं तो वास्तव में समूचे यथार्थ का, यथार्थ के हमारे समूचे बोध का नया सर्जन कर रहे होते हैं।’ और जाहिर है कि यथार्थ के इस नए सर्जन की कसौटी उसकी अपनी स्वायत्त प्रक्रिया ही हो सकती है। किसी अन्य प्रक्रिया या पद्धति को उसकी कसौटी के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक दर्शन-शास्त्री इसीलिए प्रक्रिया और पद्धति को विशेष महत्त्व देते हैं और उसी को ज्ञान की हैसियत दे देते हैं और उसी को ज्ञान की हैसियत दे देते हैं जिस प्रकार पुराने दर्शन-शास्त्री तत्त्व-मीमांसा से पूर्व ज्ञान-मीमांसा को स्थिर करना आवश्यक मानते थे क्योंकि ज्ञान-मीमांसा ही अंततः तत्त्व का निरूपण करती है।
इसलिए साहित्यगत यथार्थ की जांच या परख की कसौटी के रूप में किसी साहित्यबाह्य यथार्थ को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अनिवार्यतः किसी न किसी साहित्येतर प्रक्रिया के माध्यम से जाना हुआ यथार्थ है जिसकी अपनी विशिष्ट उपयोगिता हो सकती है, लेकिन वह साहित्य की प्रक्रिया को निर्देशित-नियंत्रित नहीं कर सकती। दरअसल, जब हम यथार्थ या तथ्यों को जानने की किसी नई पद्धति अजानी एवं जटिल प्रक्रिया का ही आविष्कार होता है जिससे हम यथार्थ को नयी दृष्टि से देख पाते हैं और उसका अपने लिए नया सर्जन कर पाते हैं। इसलिए ज्ञान की प्रक्रिया के रूप में विज्ञान के क्षेत्र का एक नया आविष्कार जिस तरह महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह साहित्य या कला के क्षेत्र में भी नए रूपों और शैलियों की खोज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है और इन खोजों की प्रामाणिकता की परख साहित्य या कलाओं की अपनी प्रक्रियाओं, उनकी अपनी ज्ञान-मीमांसा के आधार पर ही हो सकती है।
किसी साहित्यिक कृति में प्रस्तुत यथार्थ यदि कलात्मक विश्वसनीयता अर्जित कर पाता है तो फिर उसे अपना औचित्य या महत्व सिद्ध करने के लिए किसी बाह्य प्रमाण की जरूरत नहीं रहती। और इसी तरह बाह्य प्रामाणिकता की दृष्टि से किसी रचना की विश्वसनीयता चाहे कितनी भी हो, कलात्मक औचित्य के बिना एक कलाकृति या साहित्य रचना में वह एक बाधा ही बनी रहती है।
जब हम सामान्य तौर पर अंधविश्वास मानी जाने वाली बहुत-सी बातों या अवैज्ञानिक मान्यताओं और फैंटेसी के आधार के आधार पर रचे गए साहित्यिक यथार्थ को स्वीकार करते और उससे वास्तविकता की हमारी समझ का विस्तार कर रहे होते हैं तो क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि साहित्यगत यथार्थ की परख किसी बाह्य यथार्थ के आधार पर नहीं की जाती बल्कि साहित्यगत यथार्थ का हमारा बोध यथार्थ के हमारे समूचे बोध का विस्तार करता और इस प्रकार मानवीय चेतना के अनुदघाटित आयामों को उजागर करता है! इसलिए साहित्य स्वयंप्रमाण है और उसकी अपनी प्रक्रिया ही उसकी परख की एकमात्र कसौटी हो सकती है।