आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों तथा जीवन के संबंध में, जितनी भी जानकारी सर्वसाधारण विशेषकर युवकों को दी जा सके, देश के लिए उतनी ही लाभकारी होगी। सार्वजनिक जीवन की जो आज दुर्दशा है तथा युवक जिस प्रकार दिग्भ्रमित हो रहे हैं, उस परिस्थिति में आचार्य जी से संबंधित साहित्य जनमानस पर, विशेषकर शिक्षक, विद्यार्थी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के मानस पर, स्वस्थ प्रभाव डाल सकता है। वैसे तो सारे देश में सार्वजनिक जीवन का स्तर गिरता जा रहा है और विद्यार्थी-समाज दिशाहीन तथा नकारात्मक बनता जा रहा है, परंतु इन दोनों दृष्टियों से उ.प्र., बिहार आदि राज्यों की दशा और भी चिंतनीय है। आचार्य जी यूं तो सारे भारत के थे, परंतु इन राज्यों से उनका घनिष्ठतम संबंध था। इसलिए नरेंद्रदेव का साहित्य इन राज्यों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगा।
इसके अतिरिक्त हम लोगों के ऊपर नरेंद्रदेव जी का बड़ा भारी ऋण है। ऋण है उनके अपूर्व व्यक्तित्व का, उनके सौजन्य तथा स्नेह का, उनके बौद्धिक दान का, उनके नेतृत्व का और सबसे अधिक उनके निश्छल, निस्पृह तथा भावुक चरित्र का, उनके त्याग और तप का। हम लोग इन सबका भरपूर लाभ उठा चुके हैं। इस ऋण से कभी उऋण नहीं होंगे और नरेंद्रदेव जी का स्मरण हमारे हृदयों को सदा निर्मल करता रहेगा, परंतु हम नालायक साबित होंगे, अगर जो कुछ हमने और हमारी पीढ़ी ने आचार्य से पाया है, उसमें से जितना भी संभव हो, उतना ही आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़ न जाएं।
सन् 1920-21 ई. के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लगभग पौने दो वर्ष के बाद, मैं सन् 1992 ई. के अगस्त में अध्ययन के लिए अमरीका चला गया। सन् 1929 ई. के नवंबर के अंत में वहां से स्वदेश लौटा। तब तक आचार्य नरेंद्रदेव से मेरा कोई परिचय नहीं था, न उनके विषय में कोई जानकारी ही थी। सन् 1930 ई. की जनवरी में समाजशास्त्र के मेरे अध्यापक, प्रोफेसर हरबर्ट मिलर, अमरीका से भारत यात्रा पर आए। उस समय वह मुझसे मिलने के लिए पटना भी आए और मैं उनको साथ लेकर वाराणसी गया, जहां काशी विद्यापीठ में उनका और मेरा परिचय नरेंद्रदेव जी से हुआ। वाराणसी में जो थोड़ी बातचीत आचार्य जी से मेरी हुई, उसका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मैं उन दिनों मार्क्सवादी था। मेरी यह दृढ़ मान्यता थी कि लेनिन की शिक्षा के अनुसार कम्युनिस्टों को गुलाम देशों के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से कदापि पृथक नहीं होना चहिए, भले ही वह आंदोलन बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में चलता हो। अतः राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रहकर, कांग्रेस तथा गांधीजी का विरोध करने की जो नीति कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के आदेश पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उस समय अपना रखी थी, उसे मैं गलत समझता था।
आचार्य जी से बात करके मुझे लगा कि मुझे मेरे विचारों के सर्वथा अनुकूल एक मार्क्सवादी विद्वान मिल गया। मुझे भारत में उन दिनों कोई जानता भी नहीं था, परंतु आचार्य जी उ.प्र. के एक प्रभावशाली नेता और काशी विद्यापीठ के अध्यक्ष थे।
आचार्य जी से मिलने के कुछ ही दिन बाद में, आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में काम करने लगा। कुछ ही महीने बाद नमक सत्याग्रह शुरू हुआ। तब से आचार्य जी और मैं अपने अपने क्षेत्रों में आंदोलन में ही लगे रहे। सन् 1933 ई. में नासिक रोड सेंट्रल जेल में, हम कुछ मित्रों ने कांग्रेस के अंदर एक सोशलिस्ट पार्टी संगठित करने का निर्णय लिया। उसके बाद जब हम लोग जेल से छूटे तो काशी में कुछ मित्रों से मशविरा करने के बाद बिहार सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से, जो पहले ही स्थापित हो चुकी थी, मैंने एक अखिल भारतीय सम्मेलन ऐसे कांग्रेसजनों का, जो समाजवादी विचार के थे, पटने में बुलाया। उसकी अध्यक्षता के लिए मैंने नरेंद्रदेव जी से प्रार्थना की, जिसे उन्होंने स्वीकार किया।
इस सम्मेलन के बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष तथा समाजवादी आंदोलन में आचार्यजी और मेरा निकटतम साथ हुआ। यह संबंध लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हम दोनों ने मिलकर राष्ट्र की सेवा की, समाजवादी विचारों और शक्तियों को पुष्ट किया, कांग्रेस द्वारा संचालित राष्ट्रीय आंदोलन की एकता और क्षमता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए, उसे अधिक गतिशील, शक्तिशाली और क्रांतिकारी बनाने की कोशिश की। सर्वश्री अच्युत पटवर्धन, मेहरअली, राममनोहर लोहिया से भी हम दोनों के घनिष्ठ संबंध थे। पांचों मिलकर काम करते थे।
कांग्रेस समाजवादी पक्ष में कई शीर्षस्थ नेता मार्क्सवाद को उतना नहीं मानते थे, जितना कि आचार्य जी और मैं। इस कारण से हम दोनों में और बाकी साथियों में मतभेद पैदा हो जाता था, परंतु शुरू में हम सबमें ऐसा सौहार्द था कि मतभेदों के कारण कटुता पैदा नहीं होती थी।
सन् 1930 ई. के दशक के प्रारंभ में भारतीय कम्युनिस्ट कांग्रेस के विरोधी थे और उससे अलग किसान मजदूर पार्टी बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने का प्रयास कर रहे थे, जिसका एकमात्र परिणाम राष्ट्रीय आंदोलन की एकता तोड़ना ही हो सकता था, तथापि उनकी शक्ति इतनी थोड़ी थी और उनके तरीके इतने गलत थे कि उनके विरोध का कोई विशेष प्रभाव गांधीजी के आंदोलन पर नहीं पड़ पाता था। उस समय उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को भी सामाजिक फासिज्म आदि अपशब्दों से संबोधित करते हुए उसका विरोध किया। लेकिन जब जर्मनी में नात्सीवाद विजयी हुआ और स्टालिन की नीति सर्वथा विफल हुई, तब उसने उस नीति को एकदम बदला। उस परिवर्तन की जानकारी भारतीय कम्युनिस्टों को देर से हुई, लेकिन जब हुई, तब उन्होंने संयुक्त मोर्चे की बात शुरू की तथा कांग्रेस में भी घुसने का प्रयास किया। उसी समय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महामंत्री श्री पी.सी. जोशी से मेरा घनिष्ठ परिचय हुआ। कम्युनिस्टों के कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में प्रवेश करने की नीति का अनुसरण करना मैंने उचित समझा। मुझे उस समय आशा थी कि नात्सीवाद की सफलता से कम्युनिस्टों ने जो सबक सीखा था, उसकी वजह से मेरी नीति द्वारा भारत के मार्क्सवादी और साम्यवादी तत्त्वों का एक सम्मिलित दल बन सकेगा और यह दल कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी होगी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के वे नेता जो मार्क्सवादी नहीं थे, इस नीति से असंतुष्ट थे, परंतु चूंकि आचार्य जी का समर्थन था, इसलिए इस नीति पर पार्टी चलती रही।
यहां इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि यद्यपि आचार्य जी ने मेरी नीति का समर्थन किया, फिर भी उस पर जितना मुझे विश्वास था, उतना उन्हें नहीं था। वह किसी भी हालत में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का संगठन कम्युनिस्टों के हाथ में देने को तैयार नहीं थे। खेद है कि मेरे अंधविश्वास के कारण दक्षिण के कुछ प्रदेशों में कांग्रेस सोशलिस्ट संगठन और आंदोलन से पृथक, कोई कांग्रेस समाजवादी संगठन या आंदोलन केरल, तमिलनाडु, आंध्र आदि प्रदेशों में नहीं बन सका। इसी काल में अन्य प्रांतों में भी कम्युनिस्टों ने अपनी गुप्त नीति के अनुसार कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अंदर धीरे-धीरे अपने प्रभाव को बढ़ाने की तथा उसके कार्यकर्ताओं को तोड़कर अपने में मिलाने की कोशिश की। उनकी ‘बोरिंग फ्रॉम विदिन’ की नीति बहुत अंश में सफल हुई। जब इस नीति के दुष्परिणाम सामने आने लगे तब मेरी आंखें खुलीं।
द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के बाद कम्युनिस्टों की नीति और गतिविधि से तंग आकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में जितने कम्युनिस्ट थे, उनको पार्टी से निष्कासित किया गया था। उस समय मैं जेल में था, परंतु यदि बाहर होता तो इस निर्णय से पूरी तरह सहमत होता। यद्यपि आचार्य जी का विश्वास मार्क्सवाद में अटल रहा, लेकिन मुझसे पहले ही वह कम्युनिस्टों की चाल समझ चुके थे और इस निर्णय पर पहुंच चुके थे कि उनके साथ मिलकर काम नहीं हो सकता।
स्वराज्य-प्राप्ति के बाद जब मेरे मन में यह विचार उठा कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस से अलग हो जाना चाहिए तो आचार्य जी इस बात से पूरे सहमत नहीं थे, फिर भी कानपुर में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का युद्धोपरांत, जब पहला सम्मेलन हुआ तो उसमें पार्टी के नाम से कांग्रेस शब्द को हटा देने का उन्होंने विरोध नहीं किया। मेरे लिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का, कांग्रेस से अलग होकर, एक स्वतंत्र समाजवादी दल बनाने की दिशा में, यह एक बड़ा कदम था।
कांग्रेस से अलग होने में आचार्य जी की जो हिचक थी, वह उस समय दूर हुई, जब कांग्रेस के विधान में संशोधन करके यह नियम बनाया गया कि कांग्रेस के अंदर कोई ऐसी दूसरी संगठित पार्टी नहीं हो सकती, जिसका अपना विधान और अनुशासन हो।
यहां यह भी उल्लेख करना अनुचित न होगा कि जब नासिक में इस बात का आखिरी फैसला हुआ तो चर्चाओं में राममनोहर लोहिया, कांग्रेस छोड़ने के बारे उतने मजबूर नहीं थे, फिर भी सर्वसम्मति से नासिक सम्मेलन में निर्णय लिया गया। यह भी उल्लेखनीय है कि उस निर्णय के पहले कांग्रेस के नेताओं के साथ समाजवाद की दृष्टि से कांग्रेस को क्या करना चाहिए, इस प्रश्न पर काफी चर्चा हो चुकी थी। उस चर्चा का हम लोगों के लिए कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला था और हम लोग इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि उस समय कांग्रेस जिस प्रकार की बनी हुई थी, वह समाजवाद की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकती। नासिक के सर्वसम्मत निर्णय के पीछे हम लोगों की यह प्रतीति भी थी।
पिछले वर्षों में दल-बदल का, जो संक्रामक रोग देश के राजनीतिक जीवन में पैदा हुआ है, उसको ध्यान में रखते हुए, यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब नासिक में यह निर्णय हुआ कि समाजवादी कांग्रेस से पृथक हो जाएं, तो साथ-साथ यह भी तय पाया कि उनमें से जो कांग्रेस टिकट पर चुनाव में सफल होकर विधानसभाओं के सदस्य बने हैं उनको इस्तीफा देना चाहिए और फिर से उपचुनाव लड़ना चाहिए। उस निर्णय का सभी संबंधित व्यक्तियों ने पालन किया। यह एक ऐसा आदर्श था, जिसका स्मरण करके आज भी गौरव का अनुभव होता है।
सन् 1992 ई. में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी के विलयन के संबंध में मेरा तथा राममनोहर लोहिया एवं अशोक मेहता आदि का आचार्य जी से मतभेद हो गया।आचार्य जी उन दिनों चीन गए हुए थे और उनकी अनुपस्थिति में ही कृपलानी जी आदि की, के.एम.पी. के नेताओं से बातचीत होकर यह तय हो चुका था कि दोनों पार्टियों का संगम हो। जब आचार्य जी चीन से लौटे और इस निर्णय का उन्हें पता चला तो उन्हें बड़ा खेद हुआ। आज इतने वर्षों के बाद पीछे मुड़कर देखने पर मुझे भी लगता है कि अगर यह संगम नहीं होता तो शायद समाजवादी आंदोलन के लिए श्रेयस्कर हुआ होता।
अपने मतभेदों की चर्चा छिड़ गई है तो एक और मतभेद ध्यान में आता है। सन् 1953 ई. में जब मैं पूना में डॉ. दीनशा मेहता के क्लिनिक में तीन सप्ताह का उपवास कर रहा था, तभी जवाहरलाल नेहरू जी का एक पत्र मिला कि जब दिल्ली आओ तो मुझसे मिलना। मैंने उत्तर दिया कि उपवास के बाद जब स्वास्थ्य लाभ कर लूंगा तो रंगून एशियन सोशलिस्ट कान्फ्रेंस में जाऊंगा और वहां से लौटने के बाद दिल्ली आकर उनसे मिलूंगा। मुझे दुख है कि मेरे कतिपय मित्रों ने इतनी सी बात पर यह संदेह करना शुरू किया कि जवाहरलाल जी के साथ मेरी कोई साजिश चल रही है।
दिल्ली में जवाहरलाल जी से तीन दिनों तक कांग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के परस्पर सहयोग के विषय पर चर्चा हुई। बाद में मैंने जवाहरलाल जी को, एक पत्र में 14सूत्री कार्यक्रम लिख भेजा, जिसको मैंने दोनों पार्टियों के परस्पर सहयोग का आधार बताया। लगभग तीन सप्ताह के बाद जवाहरलाल से मिलकर, फिर आखिरी निर्णय करना था। उन दिनों कृपलानी जी हमारी पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्होंने पूरी तरह से सहयोग के विचार का समर्थन किया। दिल्ली वापिस जाने के पहले मैं काशी गया और वहां काफी विस्तार से नरेंद्रदेव जी से उस विषय पर चर्चा की। वह जवाहरलाल जी के प्रस्ताव के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना असंभव होगा। कांग्रेस, चाहे जवाहरलाल जी की निजी राय कुछ भी हो, समाजवाद से बहुत दूर है। उनका तीसरा कारण यह था कि शासन में घुसने के बाद, अपने लोगों पर बुरा असर पड़ सकता है और उनकी दुर्बलताएं बढ़ सकती हैं। इन दलीलों में ताकत थी, फिर भी मैं नरेंद्रदेव जी से सहमत नहीं हुआ। मैंने उनसे कहा कि अपने लोगों पर हमें विश्वास करना चाहिए। कांग्रेस, समाजवादी संस्था न होने पर भी, यदि हमारे 14सूत्री कार्यक्रम को या उसमें से अधिकांश को, मान लेती है तो हमारे और उसके सहयोग से समाजवाद को कुछ आगे बढ़ने का मौका मिलेगा, पार्टी की शक्ति और प्रभाव बढ़ेगा और यदि अनुभव से यह सिद्ध हुआ कि कांग्रेस ने हमारे कार्यक्रम को सिर्फ ऊपरी दिल से माना है और हम आगे प्रगति नहीं कर रहे हैं तो हम इस्तीफा देकर बाहर आ सकते हैं और जनता के सामने इस चीज को सफाई से पेश करके उसको प्रभावित कर सकते हैं। मेरा यह विचार आज तक बदला नहीं है और आज भी मैं मानता हूं कि यदि हमारी शर्तों पर सहयोग हो पाता तो समाजवाद के लिए अच्छा होता।
पाठकों को स्मरण होगा कि जवाहरलाल जी के प्रस्ताव का कोई परिणाम नहीं निकला। इसका एकमात्र कारण यही था कि जब दुबारा दिल्ली में उनसे मेरी मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि मैंने सहयोग के लिए जो आधार बताया है, उसके लिए समय अनुकूल नहीं है। बिना किसी शर्त के सहयोग हो, यह तो संभव था, परंतु उसके लिए मैं स्वयं तैयार नहीं था और बात वहीं पर खत्म हो गई।
यह बात तो खत्म हो गई, परंतु दुर्भाग्यवश उसकी प्रतिक्रियाएँ पार्टी में बहुत खराब हुईं, जिसको अंग्रेजी में कैरेक्टर असेसिनेशन कहते हैं, उसका पूरा कैंपेन शुरू हो गया, जिसका प्रमुख शिकार मैं था। चूंकि आचार्य जी सहयोग के विरुद्ध थे, इसलिए चरित्रहनन के शस्त्रों से, सौभाग्यवश वे उस समय सुरक्षित रहे।
आचार्य जी से मेरा एक दूसरा मतभेद उस समय हुआ, जब मैंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से और सत्ता की राजनीति से अलग होकर सर्वोदय आंदोलन में प्रवेश किया। मैंने यह कदम उठाने के पहले आचार्य जी से कोई परामर्श नहीं किया था, इसलिए भी कि मैं जानता था कि मैं अपनी बात उन्हें समझा नहीं पाऊंगा। उन्हें इस बात की शिकायत रही, लेकिन इससे भी बड़ी शिकायत यह थी कि मैंने पार्टी और राजनीति ही छोड़ दी।
(बाकी हिस्सा कल)