संजीव साने : विचार और संवेदनशीलता से संपन्न एक जीवन यात्रा

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— अनिल सिन्हा —

ब 28 अक्टूबर,  2022 को अपने आखिरी समय तक सक्रिय रहने की कोशिश करने वाले समाजवादी संजीव साने के गुजरने की खबर मिली ता मुझे साल 1987 के उस राजनतिक प्रयास की याद आ गई जो आगे तो नही बढ़ा, लेकिन मुझे मुंबई में एक बड़ा परिवार दे गया। यह विचारों के आधार पर खड़ा हुआ था। इस परिवार के अभिभावक मुहम्मद खडस थे। संजीव उसके महत्त्वपूर्ण सदस्य थे। इस परिवार की खास बात यह रही कि लोग अलग-अलग राजनीतिक संगठनों में गए और उनकी राजनीति आपस में विरोधी रही, लेकिन उनके संबंध नहीं टूटे। शायद यह उन विचारों का असर था जिसके केंद्र में लोकतांत्रिकता थी।

समाजवादी समन्वय केंद्र के निर्माण के दौरान बनी हमारी मित्रता संजीव के जाने तक बनी रही और इसका सारा श्रेय संजीव साने को जाता है जिनकी संवेदनशीलता और कोमलता आपको सहज ही अपनी ओर खींच लेती थी। वह ऐसे मित्र थे जिनसे कोई भी अपने व्यक्तिगत सुखदुख बांट सकता था। वह कठिन मौकों पर साथ खड़े मिलते थे। वह उन विरले लोगों में थे जो सिर्फ साथियों की राजनीति से ताल्लुक नहीं रखते थे बल्कि उनकी जिंदगी में शामिल होते थे। राजनीति और जिंदगी के बीच इस तरह का मेल बनाना बहुत कम लोगों के लिए संभव हो पाता है।

गौर से देखने पर पता चलता है कि इन व्यक्तिगत संबंधों ने उनकी राजनीति पर कोई असर नहीं डाला। उनके कुछ साथी कांग्रेस में भी थे जो कम से कम 2014 के पहले तक साथ चलने लायक पार्टी नहीं मानी जताी थी। लेकिन इससे उनकी अपनी राजनीतिक पहचान पर कोई असर नहीं हुआ।

जब हम लोहिया के शब्दों में किसी के कुजात होने की बात सोचते हैं तो हमारे सामने त्याग और तपस्या वाली एक सादी किंतु कठोर सी जिंदगी की तस्वीर उभरती है जो कमोबेश सूखी और बंधी बंधी होती है। संजीव वैसे नहीं थे।

एक सरस और नदी की तरह तरंगित उनकी शख्सियत थी जिसमेें लेशमात्र सूखापन नहीं था। यह वैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं में थे जिनकी उपस्थिति अपने आसपास स्नेह का सौंदर्य बिखेरती थी। उनके होने से कोई भी आयेाजन जानदार बन जाता था। अपनी शोक संवेदनाओं में लोगों ने उनकी शख्सियत के इस पक्ष को विस्तार से रखा भी है। वह एक बेहतरीन गायक थे और महफिलोें में जान डाल देते थे। यह काम भी वह उतना ही डूब कर करते थे जितना किसी सभा या प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए करते थे। यह एक तटस्थ और सूखेपन से भरी राजनीति से अलग था। लोगों की मदद करना और संघर्षों में पूरे उत्साह के साथ भाग लेने के उदाहरण तो और भी मिलते हैं लेकिन उनमेें एक अलग किस्म की संवदेनशीलता और रवानगी दिखाई देती है। जाहिर है कि उनके निधन से एक बड़े खालीपन का अहसास लोगों को हो रहा है।

उनकी शख्सियत को गढ़ने में समाजवादी विचारों और आंदोलन की भूमिका को समझना जरूरी है। इस विचारधारा की संभावनाओं से आने वाली पीढ़ी को अवगत कराने के लिए उन्हें यह बताना जरूरी है कि इस आंदोलन में शामिल होने का यह अर्थ नहीं है कि आप एक नीरस राजनीतिक कार्यकर्ता बनें। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमें लोगों की उस विरासत को समझाना भी मुश्किल होगा जो संजीव जैसी शख्सियतों ने पैदा की है। इससे संजीव की कहानी को सपाट और एकरेखीय बनने से भी हम रोक पाएंगे कि राजनीतिक उपलब्धि को पद, संपत्ति और प्रतिष्ठा में ही नहीं देखना चाहिए। इस कथा के जरिए आप लोगों को मुबई और महाराष्ट्र के समाजवादी आंदोलन की उन खासियतों से भी परिचित करा पाएंगे जो मुख्यधारा की राजनीति में मधु लिमये, एसएम जोशी, जार्ज फर्नांडीस, यूसुफ मेहरअली और मृणाल गोरे जैसी शख्सियतेें पैदा करती हैं और इससे बाहर अनेक आकर्षक व्यक्तियों को करने में कामयाब हुई हैं। हमें यह बताने में भी सहूलियत होगी कि महाराष्ट्र के समाजवादी आंदोलन का यह स्वरूप उसकी व्यापक विचार-यात्रा की वजह से भी है जो मार्क्सवाद, गांधीवाद से लेकर आंबेडकरवाद होकर गुजरी है। इसमें राष्ट्र सेवा दल जैसे प्रयोगों का भी योगदान है।

संजीव की राजनीतिक यात्रा मेें महाराष्ट्र के समाजवादी आंदोलन का पूरा इंद्रधनुष दिखाई देता है जिसकी शुरुआत 1942 के भारत छोड़ोे आंदोलन से होती है। इसमें उनकी माता यमनुाताई और उनके पिता अण्णा साने जेल गए थे। समाजवादी आंदोलन को आजादी के आंदोलन की जो गौरवशाली विरासत मिली है उसने इस इंद्रधनुष को बनाने में महत्त्वपूर्ण भमिका निभाई है। समाजवादी आंदोलन को आजादी आंदोलन से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।

सतही तौर पर देखने से यही लगता है कि 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के विसर्जन के बाद यह धारा सूख गई और बहती नदी छोटे-छोटे तालाबों में बदल गई। यह सच है कि किसी नदी के सूखने से कई तालाब या छोटी धाराएं नजर आती हैं या बड़ी नदी में समाकर अपना अस्तित्व खो देती हैं। लेकिन आप अगर इन अलग-अलग आंदोलनों को जोेड़ कर देखेंगे तो आपको उस नदी का अहसास होगा जो धरती पर अलग अलग बहती हुई धाराओं के मिलने से बनी है और अदृश्य होकर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है।

अपने कामगार नेता पिता और सक्रिय समाजकर्मी माता की वजह से समाजवादी विचारधारा से उनका परिचय बचपन से ही था। लेकिन उनकी विचार-यात्रा को एक सीधी विरासत से जोड़ने से समाजवादी आंदोलन के उस प्रवाह को पहचानना मुश्किल होगा जिसके निर्माण में संजीव जैसे लोगों ने अहम भूमिका निभाई है। वह राष्ट्रसेवा दल में प्रशिक्षित थे। आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह करने के कारण उन्हें जेल की एक छोटी यात्रा करनी पड़ी। लोकतंत्र बहाली के जेपी आंदोलन को हम समाजवादी आंदोलन का एक नया पड़ाव मान सकते हैं और इसने मुख्यधारा की ही नहीं बल्कि विचारधारा की राजनीति को भी नई दिशा दी। संजीव समाजवाद की इस राजनीतिक धारा के सिपाही के रूप में आगे बढ़े। उनकी बहन साधना, पत्नी नीता और बेटा नीमिष भी समाज बदलने के अभियान में अपना योग देते रहे हैं।

संजीव साने की विचारों की इस यात्रा में एक निरंतरता और राजनीतिक अनुशासन है। वह रचनात्मक कार्यों में शामिल होते थे और सामान्य लोगोें को कठिनाइयों में मदद करने वाले कार्यक्रमों में भाग लेते थे। लेकिन वह स्वयंसेवी संस्थाओं के काम को गैर-राजनीतिक कर्म मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने लिए सक्रिय राजनीतिक कर्म ही चुना।

राष्ट्र सेवा दल के नेतृत्व से अलग होकर मुहममद खडस, गजानन खातू जैसे लोगों ने युवाओं की एक बड़ी टोली खड़ी की जिसमें शिवाजी गायकवाड़, निशा शिवूरकर, संजय मंगो, अरुण ठाकूर, शंकर शिंदे, जवाहर नागौरी, जगदीश खैरालिया, सुनील तांबे, विजय तांबे समेत अनेक लोग थे। संजीव भी इस टोली का हिस्सा थे और अपना पूरा समय देते थे। 1983 में शुरू हुए समता आंदोलन ने सामाजिक परिवर्तन के तीन बड़े सवालों को उठाया जिसमें मैला ढोने वालों की मुक्ति, परित्यक्ताओं को अधिकार और सभी को समान शिक्षा के सवाल शामिल थे। इस आंदोलन ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नाम को डा बाबासाहेब आंबेडकर के नाम पर रखने के नामांतर आंदोलन और मंडल आयेाग की सिफारिशों को लागूू करने के आंदोलनोें मेें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

समता आंदोलन, युवक क्रांति दल, समता संगठन, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी समेत कई आंदोलनों से जुड़े देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे लोगों ने साल 1987 में समाजवादियों का एक राजनीतिक संगठन बनाने की पहल की थी और उन्होंने समाजवादी समन्वय केेंद्र स्थापित किया जिसे समाजवादियों को एकसाथ लाने का काम करना था। इसमें समता आंदोलन के साथ युवक क्रांति दल के डा भालचंद मुणगेकर, हुसैन दलवाई, शमा दलवाई, अजीत सरदार, सुभाष लोमटे और संपूर्ण क्रांति मंच के विजय प्रताप और रघुपति जैसे लोगों की अहम भूमिका थी। यह केंद्र ज्यादा काम नहीं कर पाया।

लेकिन इसके बाद हुई कई पहलों और मंथन के बाद किशन पटनायक, केशवराव जाधव, भाई वैद्य, विनोद प्रसाद सिंह, मुहम्मद खडस, पन्नालाल सुराणा, सुनील, युगलकिशोर रायबीर के नेतृत्व में समाजवादी जन परिषद नामक संगठन का गठन किया गया। इन दोनों पहलों में संजीव साने ने अहम भमिका निभाई थी। परिषद में योगेंद्र यादव, अजीत झा, सुभाष लोमटे, शिवाजी गायकवाड़, निशा शिवूरकर, संजय मंगो, अफलातून, डा प्रेम सिंह के साथ संजीव काफी सक्रिय थे। इसने एक ऐसे समय में समाजवादी आंदोलन को वैचारिक नेतृत्व प्रदान किया जब मुख्यधारा की राजनीति मेें शामिल समाजवादी अलग-अलग संगठनों में बंटे थे और वैचारिेक समझौते का आलम यह था कि कई लोग सांप्रदायिक संगठनों के साथ काम करने लगे थे। परिषद ने भूमंडलीकरण और सांप्रदायिकता के खिलाफ एक स्पष्ट नीति अपनाई और इसने किसान आंदोलन से लेकर पर्यावरण तथा प्राकृतिक संपदा को नष्ट करने की मुखालिफत के संघर्षों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

संजीव ने एनरॉन विरोधी, जगतीकरण विरोधी तथा स्पेशल इकानॉमिक जोन के आंदोलन के समन्वय का काम किया और एक सशक्त आंदोलन को खड़ा करने में मदद की जिसमें प्रो एनडी पाटिल, उल्का महाजन और सुरेखा दलवी जैसे लोग शामिल थे।

संजीव की राजनीतिक यात्रा ने अण्णा आंदोलन के समय एक नई दिशा ली। उन्होंने मेधा पाटकर, योगेंद्र यादव, अजीत झा, गजानन खातू, सुभाष लोमटे, सुभाष वारे, प्रतिभा शिंदे समेत अन्य लोगों की तरह इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मेें शामिल होने का फैसला किया। यही आंदोलन जब आम आदमी पार्टी में बदल गया तो उन्होंने ठाणे से लोकसभा का चुनाव लड़ा। जब प्रो आनंद कुमार, योंगेंद्र यादव, अजीत झा समेत अन्य लोगोें ने आम आदमी पार्टी से बाहर निकलकर स्वराज इंडिया बनाया तो वह भी इसमें शामिल हो गए।

जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने लोगों को वैचारिक मुद्दों पर समृद्ध करने का जिम्मा उठाया और विमर्श का आनलाइन काम शुरू किया।

वह अपनी मृत्युशैय्या पर भी मानसिक रूप से सबल रहे। उपलब्ध चिकित्सा का उपयोग करने के बाद भी उनका शरीर कैंसर से पराजित हो गया। उन्होंने इलाज रोकने और अपने को विराम देने का निश्चय किया। उन्होंने लिखकर इसका आग्रह किया। उनके अंतिम शब्द थे- मैं मुक्त हूं।

उनकी नदी की तरह बहती जीवन-यात्रा याद रखने योग्य और प्रेरक है।

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