जब भारत जोड़ो यात्रा शुरू हुई उन दिनों दोस्त फोन करके बोलते थे : “राहुल गांधी की यात्रा में क्यों शामिल हों?” अब दो महीने बाद फोन करके पूछते हैं : “भारत जोड़ो यात्रा में कहां शामिल हों? कैसे शामिल हों?” इस बदलाव में पिछले दो महीने में भारत छोड़ो यात्रा के असर को देखा जा सकता है। कोई 70 दिन और लगभग 1800 किलोमीटर चल कर अब तक यह यात्रा अपना आधा फासला तय कर चुकी है।
तमिलनाडु में कन्याकुमारी से शुरू हुई यह यात्रा केरला, कर्नाटका, आंध्र प्रदेश से तेलंगाना होती हुई अब महाराष्ट्र पार कर मध्य प्रदेश में दस्तक देने वाली है।
जाहिर है कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित इस यात्रा में कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। राहुल गांधी के साथ 100 से अधिक “भारत यात्री” कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा कर रहे हैं। सैकड़ों “प्रदेश यात्री” हैं जो राज्य की शुरुआत से उसकी सीमा समाप्त होने तक पदयात्रा करते हैं। और हर रोज हजारों स्थानीय कार्यकर्ता यात्रा में शिरकत करते हैं। हर राज्य में एक या दो जगह विशाल जनसभाओं का आयोजन हुआ है। बहुत समय बाद कांग्रेस संगठन को चुनाव लड़ने के सिवा कुछ सकारात्मक काम मिला है। बहुत समय बाद कांग्रेस का कार्यकर्ता सड़कों पर उतरा है। इस नए कार्यक्रम से एक नया आत्मविश्वास उपजा है, अपने ही नेतृत्व में आस्था पैदा हुई है। इतने भर से कांग्रेस के पुनर्जन्म की बात करना जल्दबाजी होगी, लेकिन कुछ बुनियादी बदलाव के भ्रूण की झलक मिलती है।
अगर इन दो महीनों में कोई सबसे बड़ा बदलाव हुआ है तो वह राहुल गांधी की छवि में है।जब यात्रा शुरू हुई तब कई शुभचिंतकों ने मुझे चेताया था : “तुम तो सड़क पर पैदल चलते रहोगे, कहीं राहुल गांधी कुछ दिन बाद गाड़ी पर सवार न हो जाएं, विदेश ना उड़ जाएं।” पप्पू की छवि ने राहुल गांधी के व्यक्तित्व को पूरी तरह ढक लिया था। जिस राहुल गांधी को मैंने पिछले 15 वर्ष में जाना था वह एक शालीन, गंभीर, स्पष्टवादी और जिज्ञासु व्यक्ति था। न कोई छल कपट, न कुछ भी बनावटी। संवैधानिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध, अंतिम व्यक्ति के लिए चिंताशील और अवसरवादी राजनीति से परहेज। जब मैंने कांग्रेस की कटु आलोचना की और उनकी सरकार का सड़कों पर विरोध किया तब भी राहुल गांधी के व्यक्तित्व के बारे में मेरी धारणा बदली नहीं थी।
लेकिन राहुल गांधी को पप्पू बनाने के मीडिया और राजनीतिक अभियान ने आम जनता के सामने एक दूसरी ही छवि पेश की। उन्हें न जानने वाला एक साधारण व्यक्ति मानकर चलता था कि खानदानी नेताओं की दूसरी तीसरी पीढ़ी की तरह राहुल गांधी भी अगंभीर है, देश से कटा हुआ है, नासमझ है और घमंडी भी। इस देश की धूल मिट्टी को दो दिन भी सह नहीं पाएगा। लेकिन अब दो महीने से देश की जनता उसी राहुल गांधी को इस देश की ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर चलते देख रही है, एक “राजनैतिक तपस्या” के अपने संकल्प को पूरा करते देख रही है। एक तरफ प्रधानमंत्री हैं जो फ्लाईओवर पर 20 मिनट के लिए अटक जाने पर अपनी ही पार्टी के समर्थकों के लिए भी गाड़ी की खिड़की का कांच नीचे नहीं करते, दूसरी तरफ राहुल गांधी हैं जो हर बच्चे, बूढ़े, नौजवान को गले लगा रहे हैं, जाने अनजाने का हाथ पकड़ कर चल रहे हैं, दौड़ रहे हैं, खेल रहे हैं। यही राहुल गांधी हर शाम को देश को संबोधित कर रहे हैं, महंगाई, बेरोजगारी और अमीर गरीब की खाई के बारे में देश को आगाह कर रहे हैं, मर्यादा और संतुलन खोये बिना नफरत की राजनीति पर प्रहार कर रहे हैं। देश एक नए राहुल गांधी का दर्शन कर रहा है।
राहुल गांधी और कांग्रेस से परे यह यात्रा देश में जन आंदोलनों और जन संगठनों के बीच एक नई ऊर्जा का संचार और समन्वय कर रही है। इस यात्रा का आह्वान करते समय कांग्रेस ने देश के तमाम राजनीतिक दलों, जन आंदोलनों, जन संगठनों को इस यात्रा में जुड़ने के लिए आमंत्रित किया था। इस निमंत्रण को स्वीकार कर देश के अनेक गण्यमान्य व्यक्ति और जन संगठन शुरू से ही इस यात्रा के साथ जुड़े थे, लेकिन कई लोगों के मन में संदेह थे, पुरानी शिकायतें थीं। पिछले दो महीने में यह अविश्वास धीरे-धीरे मिट रहा है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जन आंदोलनों की टुकड़ी भी यात्रा में कदमताल कर रही है। हर दिन स्थानीय जन संगठन जमीन के मुद्दे लेकर राहुल गांधी के साथ मुलाकात कर रहे हैं। एक दिन आत्महत्या के शिकार किसानों के परिवार तो दूसरे दिन बीड़ी मजदूर। किसी दिन देवदासी प्रथा की शिकार महिलाएं तो किसी दिन आज भी विकास के हाशिए पर खड़े आदिवासी समूह और विमुक्त समाज। किसी दिन शराबबंदी आंदोलन के प्रतिनिधि तो कभी वैकल्पिक शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि के प्रयोग करने वाले संगठक। यह यात्रा सपने जोड़ रही है, दर्द से दर्द का रिश्ता जोड़ रही है। पिछले कुछ दिनों में इस नदी में तमाम धाराएं आकर जुड़ रही हैं, छोटी छोटी यात्राएं जुड़ रही हैं, नामी-गिरामी नागरिक जुड़ रहे हैं। एक जमाने में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जरिए कांग्रेस का विरोध करने वाले प्रशांत भूषण और पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल रामदास राहुल गांधी के साथ यात्रा कर रहे हैं तो फिल्म की दुनिया से पूजा भट्ट और सुशांत सिंह भी चल रहे हैं। कांग्रेस राज की इमरजेंसी में 19 महीना जेल में बिताने वाले सेनानी चल रहे हैं तो किसी पार्टी संगठन से संबंध ना रखने वाले नौजवान और नवयुवतियां भी चल रहे हैं। धीरे-धीरे यह पतली सी धार अब एक नदी बनती जा रही है।
तो क्या देश का मूड बदल चुका है? नफरत की राजनीति रुक जाएगी? अभी गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणाम पर असर पड़ेगा? फिलहाल ऐसी कोई दूरगामी या तात्कालिक अपेक्षा बांधना गलत होगा। अभी तो बस इतना कहना चाहिए कि देश में जो अंधकार का घटाटोप, निराशा और अवसाद का माहौल था, जो विकल्पहीनता का मंजर था, जो चुप्पी, अकेलेपन और डर की दीवार थी, उसमें एक दरार पड़ी है। अंधकार में प्रकाश की एक किरण दिखाई दे रही है। भोपाल में इस यात्रा पर आयोजित एक गोष्ठी में वामपंथी चिंतक और कार्यकर्ता बादल सरोज ने कहा, “भारत छोड़ो यात्रा हमारे कालखंड की एक महत्त्वपूर्ण घटना है”।
जब कोई मुझसे पूछता है कि आपको इस यात्रा से क्या हासिल हुआ तो मैं रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता “आत्महत्या के विरुद्ध” की यह पंक्तियां सुना देता हूं :
“कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का
मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।”