लोकतांत्रिक अस्वतंत्रता या अलोकतांत्रिक स्वतंत्रता

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— नंदकिशोर आचार्य —

गभग सभी अर्थशास्त्री और हमारे नीति-निर्माता इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि राज्य को अपने को आर्थिक क्षेत्र से अलग कर लेना चाहिए। विनिवेश की नीति इसी मान्यता का परिणाम है। इसलिए महत्त्व इस बात का नहीं है कि कौन-सा राजकीय उद्योग अथवा परियोजना लाभ या घाटे में चल रही है और न केवल घाटे वाले उद्योगों का विनिवेश करने का आग्रह है। जब सिद्धांत रूप से यह स्वीकार कर लिया गया है कि राज्य को अपने को आर्थिक गतिविधियों से अलग कर लेना चाहिए तो फिर लाभ-घाटे की बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए जिन्हें आर्थिक सुधार कहा जाता है – यद्यपि कहना मुश्किल है कि वे सुधार हैं या बिगाड़ – उनका बीज सिद्धांत ही यह है कि अर्थतंत्र को बाजार के नियमों के अनुसार संचालित होने देना चाहिए और राज्य का कर्तव्य केवल इतना ही है कि वह बाजार को अपने नियमों के अनुसार ठीक तरह से चलने देने के लिए आवश्यक व्यवस्था कर दे।

यदि इस प्रक्रिया में राज्य बाजारू अर्थव्यवस्था का एजेंट मात्र बनकर रह जाय तथा इस बात को भूल जाय कि वह बाजार का नहीं, किसी देश के गरीब और बेरोजगार नागरिकों का प्रतिबिंब है तो किम् आश्चर्यम्।

यह एक विडंबना ही है कि लोकतंत्र को अधिकांशतः पूंजीवाद से जोड़कर देखा जाता रहा है। लोकतंत्र को व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता और गरिमा पर आधारित और उसकी पोषक व्यवस्था माना गया है, लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता बाजार की स्वतंत्रता में बदल जाती है।

व्यक्ति वहां निरुपाय और असहाय है क्योंकि वह उस संगठित बाजार का मुकाबला अकेले नहीं कर सकता और विडंबना है कि राज्य, जो व्यक्तियों की स्वतंत्रता का रूप होना चाहिए था, उसी बाजार का एजेंट हो जाता है, जिससे उसे अपनी स्वतंत्रता और समानता की रक्षा करनी होती है। हर्बट मारक्यूज ने इस स्थिति को ही ‘लोकतांत्रिक अस्वतंत्रता’ की संज्ञा दी है। यह एक अंतर्विरोधपूर्ण शब्द-युग्म है क्योंकि स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसलिए, यदि स्वतंत्रता पर अधिक बल देना हो तो इसे उलटकर ‘अलोकतांत्रिक स्वतंत्रता’ भी कहा जा सकता है- यद्यपि इससे भी अंतर्विरोध सुलझेगा नहीं- पर यह तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि कुछ लोगों या संस्थानों को तो ऐसी स्वतंत्रता उपलब्ध है ही। फिर चाहे वह शोषण और उत्पीड़न की स्वतंत्रता ही क्यों न हो!

लेकिन मूल सवाल यह है कि यदि राज्य का आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप उचित नहीं है तो अन्य क्षेत्रों में उसका हस्तक्षेप क्यों उचित है? तब सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों से भी उसे अपने को अलग क्यों नहीं कर लेना चाहिए? जिस तरह आर्थिक मामलों को बाजार पर छोड़ दिया जाता है, उसी तरह सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों को भी सामाजिक संस्थानों अर्थात जाति-बिरादरी या सांप्रदायिक संगठनों आदि पर क्यों नहीं छोड़ देना चाहिए?

विवाह, पारिवारिक संबंध, पारिवारिक संपत्ति आदि बहुत-से ऐसे ही मसलों पर राज्य को कानून बनाने और उनका पालन करवाने का प्रयास क्यों करना चाहिए? परिवार नियोजन यदि पारिवारिक मामला है तो उसका निर्वाह परिवार करे तथा यदि वह आर्थिक मामला है तो बाजार को उससे निपटने दिया जाए। राज्य को उसके लिए चिंता करने और नियम-कानून आदि बनाने की क्या जरूरत है? यदि कोई बाल विवाह करता है अथवा कोई विधवा अपने मृत पति के साथ सती होना चाहती है तो राज्य को उसे समाज की अपनी रीतियों और स्वतंत्र निर्णय के अनुसार क्यों नहीं चलने देना चाहिए? इसी तरह, यदि कोई किसी के स्पर्श से बचना चाहता है अथवा इस जीवन को जीने योग्य न मानते हुए मरना चाहता है तो इसे उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानते हुए राज्य को उसमें क्यों हस्तक्षेप करना चाहिए?

स्पष्ट है कि यदि कोई सामाजिक व्यवस्था चलनी है तो उसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के सिद्धांतों के बीच एक संतुलन कायम करना होगा और समाज के सभी व्यक्तियों का संगठित रूप होने के कारण राज्य को इन मामलों में अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं होने दिया जा सकता। लेकिन तब आर्थिक क्षेत्र में भी उसे जिम्मेदारी से मुक्त नहीं माना जा सकता। इसका सीधा निहितार्थ यह होगा कि आर्थिक क्षेत्र को भी केवल बाजार की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता और न राज्य का आर्थिक व्यवहार बाजार जैसा हो सकता है।

नागरिकों की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा के लिए जिस तरह सामाजिक समानता आवश्यक है, उसी तरह आर्थिक समता भी, और किसी राज्य के लोकतांत्रिक चरित्र की प्रामाणिकता की परख इसी में है कि वह इनकी प्रतिष्ठा के लिए प्रयासरत है या नहीं।

कहा जा सकता है कि पूर्ण आर्थिक समता प्राप्त करना संभव ही नहीं है – लेकिन पूर्णता तो शायद किसी भी क्षेत्र में संभव नहीं है। हमें देखना होगा कि हमारी दिशा क्या है और हम उस ओर अग्रसर होने के लिए क्या कर रहे हैं। क्या अर्थतंत्र को बाजार के नियमों से संचालित होने देना आर्थिक समानता या सुरक्षा की ओर अग्रसर करने वाला कदम है? क्या इतिहास इस बात के पर्याप्त साक्ष्य नहीं देता कि बाजार की सर्वोच्चता अंततः आर्थिक शोषण और सामाजिक असमानता की ओर ले जाती है?

यहां हम इस बात की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि वर्तमान की सर्वाधिक खतरनाक वैश्विक समस्या आतंकवाद का पोषण भी काफी हद तक बाजार की अर्थव्यवस्था के कारण ही हो रहा है। आतंकवादियों को आज जो शस्त्र उपलब्ध होते हैं, वे संभव ही नहीं होते अगर पूंजीवादी देशों की सरकारें अंतरराष्ट्रीय हथियार उद्योग पर वास्तविक नियंत्रण रख पातीं। पहले और दूसरे महायुद्ध की पृष्ठभूमि के अध्ययन ने यह भली-भांति स्पष्ट कर दिया है कि हथियार उद्योग और पूंजीवादी अर्थतंत्र अंतरराष्ट्रीय तनावों और युद्धों के लिए किस हद तक जिम्मेदार हुए हैं। सोवियत संघ की कथित समाजवादी व्यवस्था के विघटन के बावजूद मुक्त बाजार-व्यवस्था पर आधारित पूंजीवाद की समाजवादी आलोचना निराधार और काल्पनिक नहीं हो जाती। इसलिए इतिहास इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि बाजार की स्वतंत्रता किसी भी तरह आर्थिक समानता अथवा सामाजिक स्वतंत्रता-समानता को पोषित कर सकती है – और यदि वह ऐसा नहीं कर सकती तो उसे वास्तविक लोकतंत्र का पोषक नहीं माना जा सकता – बल्कि वह सूक्ष्म अर्थों में उसका दमन ही करती लगती है।

तब सवाल है कि क्या हम ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को वास्तविक अर्थों में लोकतांत्रिक कह सकते हैं जो बाजार पर यत्किंचित नियंत्रण को भी न केवल समाप्त करने की ओर उन्मुख हो बल्कि उसकी सुविधा के लिए ऐसे नियम-कानून बनाना चाहती हो, जो आर्थिक समानता तो दूर, सामान्य नागरिकों की आर्थिक सुरक्षा को भी खतरे में डाल रहे हों। श्रमिक-कानूनों में प्रस्तावित संशोधन, विनिवेश नीति तथा पेंशन और महंगाई भत्ते आदि पर रोक के प्रस्ताव इसी आकांक्षा की अभिव्यक्तियां हैं। राज्य स्वयं अपने कर्मचारियों को जो सुविधाएं नहीं देना चाहता, उन्हें वह बाजार से कैसे दिलवा सकता है? जो कल्याणकारी नीतियां वह स्वयं छोड़ने जा रहा है, उन पर चलने के लिए वह उस बाजार को कैसे कह सकता है जिसका वह स्वयं एक एजेंट बन गया है?

दरअसल, आर्थिक समानता और सुरक्षा का रास्ता बाजार को नियंत्रणहीन छोड़ देने में नहीं, उसके विकेंद्रीकरण में है। सरकारी निवेश का विकल्प विनिवेश नहीं, विकेंद्रीकरण है। आर्थिक समानता के लिए सामाजिक नियंत्रण आवश्यक है।

लेकिन सामाजिक नियंत्रण के राजकीय केंद्रीकरण का आर्थिक केंद्रीकरण में बदल जाना समस्या का हल नहीं है। सामाजिक नियंत्रण का अर्थ ही विकेंद्रीकरण है और यही लोकतंत्र का भी अर्थ है। जो राज्य इस मूलभाव को नहीं स्वीकार कर पाता, उसके बारे में हमें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि वह लोकतांत्रिक अस्वतंत्रता अथवा अलोकतांत्रिक स्वतंत्रता का पोषक है जिसमें न स्वतंत्रता बचती है, न लोकतंत्र। ऐसा राज्य औपचारिक रूप से चाहे अपने को लोकतांत्रिक कहता रहे क्योंकि वह मतदान पर आधारित है – यद्यपि मतदाता की स्वतंत्रता भी सीमित विकल्पों के कारण बाधित है – किंतु उसे नैतिक अर्थों में लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। लेकिन क्या लोकतंत्र मूलतः एक नैतिक व्यवस्था ही नहीं है?

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