लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के अथक योद्धा दादा देवीदत्त अग्निहोत्री – तीसरी किस्त

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श्रद्धेय दादा देवी दत्त अग्निहोत्री जी (1911 - 1993)


— कमल सिंह —

मजदूर आंदोलन का दूसरा दौर (1927-1939)

कानपुर के मजदूर आंदोलन से जुड़े उस दौर के प्रमुख नेता हरिहर नाथ शास्त्री और राजाराम शास्त्री थे। यह मजदूर आंदोलन पर राजनीतिक तौर पर वामपंथ के प्रभाव का दौर था जिसमें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्टों ने मजदूर आंदोलन की अगुआई की। हरिहर नाथ शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अंतर्गत वजीरपुर में 26 अक्टूबर 1904 में हुआ था। एडवर्ड मेमोरियल इन्स्टीट्यूट में प्रारंभिक शिक्षा के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय व काशी विद्यापीठ में उन्होंने शिक्षा पूरी करके लाला लाजपत राय के सचिव के रूप में राजनीति में शुरुआत की थी। वे आचार्य नरेन्द्र देव से अत्यंत प्रभावित थे और 1934 में उनके नेतृत्व में कानपुर में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में अग्रणी भूमिका अदा की थी।

गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा 1905 में स्थापित भारत सेवक समाज  (Servants of India Society) की तर्ज पर लाला लाजपत राय ने 1921 में लोक सेवक मंडल (Servants of the People Society) की स्थापना की थी। हरिहर नाथ शास्त्री को 1927 में इसकी ओर से कानपुर में मजदूर आंदोलन में काम करने के लिए भेजा गया था और 1931 में राजार‌ाम शास्त्री को। हरिहर नाथ शास्त्री ने कानपुर में समाजवादियों और कम्युनिस्टों, दोनों का विश्वास अर्जित किया था और वे निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित हो गए थे। 1952 में हरिहर नाथ शास्त्री कानपुर से सांसद चुने गए थे। दिसम्बर 1953 में नागपुर जाते समय एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बाद एक वर्ष में दो बार उपचुनाव हुए; दूसरी बार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजाराम शास्त्री लोकसभा के लिए चुने गए थे।

राजाराम शास्त्री का जन्म 3 सितम्बर, 1905 को इटावा के बरालोकपुर गांव में हुआ था। उनके पिता घनान्द दुबे व माता का नाम जानकी देवी था। बड़े भाई गोवर्धन प्रसाद आजादी के आंदोलन में सम्मिलित थे। राजाराम शास्त्री 1926 में काशी विद्यापीठ से शास्त्री की परीक्षा पास करने के बाद लाहौर जाकर लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित लोक सेवक मंडल से जुड़ गए और वहां द्वारकादास पुस्तकालय में लाब्रेरियन हो गए। यहां भगतसिंह व उनके क्रांतिकारी साथियों के साथ उनके रोचक संस्मरण हैं। हरिहर नाथ शास्त्री की ही तरह उन्हें भी कानपुर में मजदूर वर्ग में काम के लिए लोक सेवक मंडल की ओर से 1931 में भेजा गया था।उन्होंने कानपुर से ‘साम्यवाद’ और ‘समाजवाद’ नाम से अखबार भी निकाले।

दादा देवीदत्त अग्निहोत्री की हरिहर नाथ शास्त्री और राजाराम शास्त्री के साथ विशेष निकटता थी। लगभग इसी समय 1932 में इंदौर में मजदूर आंदोलन में जेल से रिहा होकर दादा देवीदत्त अग्निहोत्री भी कानपुर आए थे। यहां उन्होंने पहले अथर्टन वेस्ट मिल और कानपुर टेक्सटाइल मिल में बिन्ता श्रमिक के रूप में काम किया तथा शंकर वीविंग मिल में मिस्त्री के तौर पर काम किया। 1933 में देव नारायण पांडे की अगुआई में एलगिन मिल की हड़ताल में सक्रिय रहे। 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनने के बावजूद वे कई बार जेल गए।” जिसमें 1938 में मजदूरों की 52 दिन की हड़ताल भी शामिल है।  दरअसल वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थे जो कांग्रेस के मंत्रिमंडल में शामिल होने के खिलाफ थी। कानपुर में हरिहर नाथ शास्त्री, राजाराम शास्त्री, सूर्य प्रसाद अवस्थी, गोपीनाथ सिंह, मोहम्मद हुसैन, शकुन्तला श्रीवास्तव, उमाशंकर शुक्ला, अमृतलाल कुलश्रेष्ठ, सुदर्शन शुक्ल प्रमुख थे। दादा देवीदत्त अग्निहोत्री भी कांग्रेस में समाजवादियों की टोली में थे।

1930 के बाद के दशक में कानपुर मजदूर आंदोलन के साथ समाजवादियों और कम्युनिस्टों के बीच रिश्तों की दिलचस्प दास्तान है। 1930 में जवाहरलाल नेहरू अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के अध्यक्ष थे। 1929 में कानपुर में आयोजित श्रमिक सम्मेलन में मजदूरों को एकताबद्ध होने का आह्वान करते हुए उन्होंने कम्युनिस्टों के बारे में सरकार के प्रचार का खंडन किया था। 1929 में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने श्रमिक विरोधी ‘ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट एक्ट’ के विरोध में असेम्बली में बम फोड़कर “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की आवश्यकता होती है” पर्चा बांटा और “दुनिया के मजदूरों एक हो” तथा क्रांति जिन्दाबाद” नारे लगाए। फरवरी 1931 में चन्द्रशेखर आजाद की शहादत के बाद 23 मार्च को भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव ने फांसी का फंदा चूमा। “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी” के नाम से उनके क्रांतिकारी संगठन के साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और मजदूरों-किसानों के बीच काम करते हुए क्रांति के लिए जुट गए। कानपुर में अजय घोष, शिव वर्मा, हरभगवान श्रीवास्तव, अर्जुन अरोड़ा, ये कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग में काम करने वालों में खास थे।

यह वैश्विक मंदी की शुरुआत का दौर था। कानपुर के उद्योगों पर इसका प्रभाव पड़ने लगा था। मिल मालिकों की काम बढ़ोतरी व वेतन कटौती की नीतियों के खिलाफ मजदूर आंदोलित थे।

1931 में कानपुर की कुल ढाई लाख आबादी में 40 हजार औद्योगिक मजदूर थे। यह संख्या 1934 में 80 हजार हो गई थी। अब तक मिलों के मालिक अंग्रेज थे। ज्यादातर मिल ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन के स्वामित्व में थीं। अफीम और कपास के व्यापार से पूंजी जमा करने वाले दलाल व्यवसायी वर्ग जो अभी तक अंग्रेज आकाओं को मिल चलाने के लिए पूंजी मुहैया कराता आ रहा था अब उसने भी मिल का स्वामित्व ग्रहण करना शुरू किया। इनमें जुग्गीलाल कमलापति समूह (जे.के. ग्रुप) प्रमुख था। वह और रामरतन कांग्रेस के धन के बड़े स्रोत थे। कानपुर में इस दौर में कम्युनिस्टों में अजय घोष, संतोष चन्द्र कपूर, अर्जुन अरोड़ा, शेर ख़ान, सोनेलाल सक्सेना, शिव वर्मा, अवाज अली, रामबालक दीक्षित, रामआसरे दुबे प्रमुुख थे।

यही दौर था जब मौलाना संत सिंह यूसुफ जबरदस्त संघर्षशील कम्युनिस्ट नेता के रूप में उभरे। पंजाब के पिन्ननवाला गांव में 1907 में संत सिंह का जन्म हुआ था। 1924 में रेल हड़ताल के दौरान वे लाहौर में सक्रिय थे। वहां से दिल्ली आकर दिल्ली क्लॉथ मिल के मजदूर आंदोलन में सक्रिय रहे। दिल्ली में सूती मिल मजदूर यूनियन में डॉ. आसफ अली की अध्यक्षता में मंत्री के रूप में उनकी भूमिका से उनकी सक्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। लाहौर, साबरमती, कानपुर, फतेहगढ़, नैनी, उन्नाव, सीतापुर, आगरा, देवली, बरेली, लखनऊ, एटा की जेलों में रहे। उनके लगभग 10 वर्ष जेलों में बीते। युसुफ, मोहम्मद शफी, सेठजी विभिन्न छद्म नाम उन्होंने खुफिया पुलिस को चकमा देने के लिए रखे थे। लाहौर, दिल्ली, अहमदाबाद, बम्बई में स्वतंत्रता आंदोलन और मजदूर आंदोलन में उन्होंने काम किया। एक साधारण मजदूर से कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में पहुंचने वाले मौलान संत सिंह यूसुफ को कानपुर में मजदूरों के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। वे कांग्रेस सेवा दल, भारत नौजवान सभा में रहे। 1937 में कानपुर मजदूर सभा के सदर हरिहर नाथ शास्त्री, मंत्री मौलाना संत सिंह यूसुफ, अर्जुन अरोड़ा और राजाराम शास्त्री संयुक्त मंत्री चुने गए थे। इस प्रकार यहां समाजवादी और कम्युनिस्ट मिल करके काम कर रहे थे। 1938 में कानपुर मजदूर सभा के नेतृत्व में 52 दिन की हड़ताल इस एकता का नतीजा थी, इसमें 42 हजार मजदूर शामिल थे। 1939 एवं 1940 कानपुर सूती उद्योग के मजदूरों के जुझारू संघर्षों और हड़तालों में गुजरे।

जरीब चौकी : कांग्रेस राज में मजदूरों पर फायरिंग

6 जनवरी 1947 को जरीब चौकी पर पुलिस ने आंदोलित मजदूरों पर फायरिंग की। अभी आजादी के लिए समझौते की बात चल रही थी लेकिन 1946 के चुनाव के बाद गोविन्द वल्लभ पंत प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। 1945 की छुट्टियों के बदले 10 दिन का वेतन दिए जाने का फैसला भारत सरकार ने किया था। मिल मालिक इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसी मांग के लिए मजदूर आंदोलित थे। जे.के. काटन मिल में मजदूरों पर सार्जेन्ट के गोली चलाने के विरोध में आंदोलन संघर्ष में बदल गया। जे. के. काटन मिल में हड़ताल हो गई, अन्य मिलों के मजदूर भी सड़कों पर आ गए। पर्ल प्रोडक्ट्स के मालिकों ने भी काम की कमी बताकर तालाबंदी कर दी थी। वहां भी मजदूर आंदोलित थे। पुलिस ने जे के काटन मिल के 11 मजदूरों को तिलक हॉल जाते समय प्रदर्शन के दौरान रास्ते में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जुलूस, प्रदर्शन, सभा आदि पर रोक लगा दी। मजदूरों ने तिलक हॉल पर प्रदर्शन कर कांग्रेस के समक्ष विरोध का इज़हार किया और 6 जनवरी को विरोध का ऐलान। रात से ही गिफ्तारियां शुरू हो गईं। संत सिंह यूसुफ, टी.के. चतुर्वेदी, संतोष कपूर, आनन्द माधव त्रिवेदी, रघुबीर, रामभरोसे पाठक, ज़ान मुहम्मद, खुदाबख्श आदि कानपुर मजदूर सभा के अनेक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिये गए। राजाराम शास्त्री समेत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भाी कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए। देवीदत्त अग्निहोत्री  शहर कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे।उन्हें भी शहर कांग्रेस कमेटी के मंत्री वासुदेव मिश्र तथा जिला कांग्रेस के मंत्री बह्म दत्त दीक्षित, प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रामदुलारे त्रिवेदी के साथ रात में ही गिरफ्तार कर लिया गया था।

शहर कांग्रेस कमेटी ने घटना की भर्त्सना करते हुए सरकार के कथन कि “यदि फायरिंग नहीं की जाती तो थाना लूट लिया जाता और पुलिसवालों को मार दिया जाता” को अविश्वसनीय बताते हुए पारित प्रस्ताव में कहा “कमेटी घटना की जांच कर इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि अधिकारियों ने अपने दुष्कृत्य का औचित्य साबित करने के लिए यह किस्सा गढ़ा है। कमेटी को पूरा यकीन है कि स्थानीय नौकरशाही ने बड़ी निष्ठुरता व नृशंसता से आक्रमण किया और कांग्रेस मंत्रिमंडल के अंतर्गत ही कांग्रेस की कमर तोड़ने का काम किया है। कमेटी अधिकारियों के इस पाशविक कृत्य की निन्दा करती है।”

कमेटी ने एक सार्वजनिक कमेटी के जरिए घटना की स्वतंत्र व खुली जांच की मांग की, जिसमें आम जनता गवाही दे सके। जांच के दौरान संबंधित अधिकारियों को हटाने की मां की तथा मृतक परिजनों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए सरकार से मांग की कि परिजनों को मुआवजा दिया जाए।

जेके समूह की सभी मिल तथा अथर्टन वेस्ट, लक्षमीरतन काटन मिल के मजदूर भी काम बंद करके सड़क पर उतर आए। लगभग पांच हजार मजदूर नारे लगाते हुए जुलूस की शक्ल में बढ़ रहे थे। जरीब चौकी पर पुलिस ने रोका और लाठीचार्ज फिर फायरिंग की। सरकार के अनुसार 6 मजदूरों की मौत हो गई और 55 मजदूर घायल हुए। विरोध में आम हड़ताल हुई। सीओडी (सेंट्रल आर्डनैंस डिपो कानपुर) के श्रमिक-नेताओं की रिहाई की मांग कर रहे मजदूरों को निर्दयतापूर्वक पीटा गया। लाठीचार्ज में गम्भीर रूप से घायलों की संख्या 200 थी। सैनिकों की खातिर घुड़सवारी के लिए चमड़े की जीन्स आदि बनाने वाली हार्नेन्स एंड सेडलरी फैक्टरी के मजदूरों ने भी हड़ताल कर दी। इनके 35 अगुआ कारकूनों को गिफ्तार कर लिया गया। दर्शनपुरवा और बाबूपुरवा में कर्फ्यू लगा दिया गया। कानपुर बंद का आह्वान हुआ। 8 जनवरी को मुख्यमंत्री संपूर्णानन्द कानपुर आए। मृतकों को मुआवजे का ऐलान करके लौट गए।

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