— अरविंद सरदाना —
आजकल यह धारणा बनती जा रही है कि सरकारी बैंकों का सुधार निजीकरण से ही हो सकता है। अगस्त 2022 के ‘रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया’ (आरबीआई) बुलेटिन में प्रकाशित एक शोधपत्र ने चेताया है कि हमें सोच-समझकर कदम रखना चाहिए। इस पर आज खुले दिमाग से विचार करने की जरूरत है।
यह शोध क्या कहता है? इसका मुख्य केंद्र है कि हमें किन-किन मापदंडों पर निजी एवं सरकारी बैंकों की तुलना करनी चाहिए? एक मापदंड बैंक की आय और मुनाफा है। इसमें निजी बैंक बेहतर प्रदर्शन करते हैं। सरकारी बैंकों में कुछ की स्थिति मजबूत है और कुछ की कमजोर।
शोधकर्ताओं का कहना है कि हमें अन्य मापदंड भी देखने चाहिए। ‘फाइनेंसियल इन्क्लूजन’ यानी बैंक की सेवाओं की पहुँच, एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। वर्तमान दौर में बैंक की शाखाओं की गाँव और कस्बों तक पहुँच; ग्रामीण क्षेत्र में अधिक ‘एटीएम’ खोलना; गाँव में ‘बैंक मित्र’ यानी ‘बिजनेस करेस्पोंडेंट’ द्वारा लोगों की सहायता करना। इन मापदंडों पर सरकारी बैंक बहुत आगे हैं। सरकारी बैंकों की लगभग 50 प्रतिशत शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में हैं।
निजी बैंकों की शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम हैं, करीब 34 प्रतिशत। सरकारी बैंकों के 21प्रतिशत एटीएम ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जबकि निजी बैंकों के केवल 8.5 प्रतिशत। सरकारी बैंकों के 40 हजार से अधिक ‘बैंक मित्र’ हैं और निजी बैंकों के केवल 11 हजार। इसका असर दिखता है। ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ में 45 करोड़ लोगों को लाभ पहुँचा। इसमें से सरकारी बैंकों का योगदान 44.7 करोड़ था और निजी बैंकों का मात्र 1.3 करोड़।
बैंकों का एक लक्ष्य है, खाता खोलना और ग्राहकों को लेन-देन की सुविधा देना। दूसरा लक्ष्य है, लोगों को कम ब्याज पर कर्ज उपलब्ध करवाना। बैंक राष्ट्रीकरण के बाद लक्ष्य रखा गया था कि लोगों की साहूकारों के ऊंचे ब्याज पर निर्भरता खत्म कर बैंक या सरकारी सोसाइटी द्वारा सस्ता ऋण उपलब्ध करवाया जाएगा। ग्रामीण क्षेत्र और खेती के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी।
‘एनएसएस’ (नेशनल सैंपल सर्वे) की वर्तमान रपट (2019) बताती है कि आज ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों एवं औपचारिक स्रोतों से 66 प्रतिशत ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है, पचास वर्ष पहले यह केवल 22 प्रतिशत था। इसके बावजूद आज भी ग्रामीण लोगों द्वारा लिये जाने वाले कर्ज का एक चौथाई हिस्सा साहूकारों से आता है। हमें बैंक के स्रोतों को और आगे बढ़ाना है, पर निजीकरण के रास्ते हम पीछे जाने का मार्ग खोल रहे हैं। प्राइवेट बैंक सामाजिक लक्ष्य को मुनाफे के लिहाज से दरकिनार ही करेंगे। आज ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों द्वारा कुल ऋण का 83 प्रतिशत सरकारी बैंकों से आता है।
‘आरबीआई’ की इस रपट में कहा गया है कि यह मिथक है कि सरकारी बैंक के कर्मचारी कम काम करते हैं। इन मापदंडों को सामने रखकर देखें तो उनकी उपलब्धि निजी बैंकों से कम नहीं है। इस शोध ने यह भी इंगित किया है कि मंदी के दौर में सरकारी बैंकों की भूमिका अधिक कारगर रहती है।
आय के साथ सामाजिक मापदंड के लिहाज से भी कई सरकारी बैंक मजबूत हैं, फिर कुछ सरकारी बैंकों की स्थिति खराब क्यों है? इसकी वजह है, सरकारी बैंकों का ‘एनपीए’ (नॉन परफोर्मिंग एसेट्स) यानी डूबा हुआ कर्ज। ‘एनपीए’ की समस्या सरकारी एवं प्राइवेट, दोनों बैंकों में होती है, पर सरकारी बैंक में कहीं अधिक है। प्राइवेट बैंक में इसका नुकसान बैंक को झेलना पड़ता है और अंत में उसे ‘आरबीआई’ या तो बंद करने का आदेश देता है या अधिग्रहण करके किसी दूसरे बैंक को सौंप देता है।
सरकारी बैंकों में यह समस्या लम्बे समय तक बनी रहती है, पर अंत में सरकार को पैसे लगाकर बैंकों को उबारना पड़ता है। सरकारी बैंकों की यह परिस्थिति बार-बार देखी गई है। इसलिए निजीकरण के पक्षधर कहते हैं कि इन बैंकों को जीवित रखना पब्लिक के पैसों की बरबादी है, पर क्या सुधार का रास्ता निजीकरण ही हो सकता है? इसकी परतें खोलकर देखनी चाहिए।
एक सीमा से ज्यादा ‘एनपीए’ के दो मुख्य कारण हैं – एक, कर्ज देने और वसूलने में ढील, लापरवाही या राजनीतिक दवाब। दूसरा, धोखाधड़ी और सांठगांठ। यह सरकारी और निजी, दोनों तरह के बैंकों में पाया जाता है, पर सरकारी बैंकों में यह समस्या कहीं अधिक है।
सरकारी बैंकों में सुधार हेतु 2014 में ‘नायक समिति’ द्वारा अपनी रिपोर्ट ‘आरबीआई’ को पेश की गई थी। इसमें कहा गया था कि ‘सरकारी बैंक के बोर्ड बहुत कमज़ोर हैं। उनकी निगरानी और मार्गदर्शन-शक्ति प्रभावशाली नहीं है। सरकारी व्यवस्था में कई काबिल लोग हैं, परन्तु बोर्ड की सिलेक्शन व्यवस्था कमजोर है, इसलिए प्रोफेशनल रूप से इन्हें नहीं चुना जाता। इससे उनकी कार्यशैली प्रभावित होती है और वे ‘एनपीए’ पर जरूरी आंतरिक नियंत्रण और निगरानी नहीं रख पाते। योग्य लोगों की कमी नहीं है, पर व्यवस्था बनाने में कमी है। समिति ने कई सुझाव रखे थे। उन पर पर सघन विचार शुरू हुआ था और 2015 में आरबीआई ने निगरानी के ठोस कदम भी उठाए थे, परन्तु इसके बाद उसे ठंडे बस्ते में डालकर हम निजीकरण की तरफ बढ़ गए।
दूरगामी व्यवस्था में हमें सरकारी एवं प्राइवेट दोनों बैंक चाहिए, पर मजबूती के साथ। दोनों में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। प्राइवेट बैंकों की ताकत टेक्नोलॉजी अपनाने में है और सरकारी बैंकों की ताकत सामाजिक न्याय प्राप्त करने में। दोनों व्यवस्थाएं प्रोफेशनल ढंग से चल सकती हैं और एक-दूसरे से सीख सकती हैं।
बैंकिंग व्यवस्था हमारी अर्थव्यवस्था की नींव है, पर इस क्षेत्र की कुछ बाते हैं जिसके लिए इस पर अलग ढंग से नियंत्रण करने की जरूरत होती है। मसलन, हर बैंक में ‘एनपीए’ होते हैं और उसका बैंक की बैलेंस शीट में उल्लेख किया जाता है, किन्तु पूरा खुलासा नहीं किया जाता। इसका कारण है कि बैंकों पर गलत अफवाह फैलने और उसके डूबने का खतरा होता है। हाल के उदाहरण से समझ सकते हैं।
‘यस बैंक’ के संकट के समय यह अफवाह फैलने लगी कि सरकार प्राइवेट बैंक को डूबने देगी और केवल सरकारी बैंक में ही हमारे पैसे सुरक्षित हैं। यदि ‘आरबीआई’ ने उचित कदम नहीं लिये होते तो बिना किसी कारण कई अन्य प्राइवेट बैंक डूब जाते। बैंकिंग तंत्र एक सिस्टम की तरह चलता है और इस कारण एक बैंक पर खतरा पूरी व्यवस्था को डुबा सकता है, यानी स्वस्थ बैंक भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
इतिहास से सबक लेते हुए सभी देशों में सेंट्रल बैंक बने। यानी ‘आरबीआई’ जैसी केंद्रीय बैंक की जरूरत बनी। बैंक की व्यवस्था जनता के विश्वास पर टिकी है और ‘आरबीआई’ की जिम्मेदारी है कि वह जनता के इस विश्वास को प्रोफेशनल निगरानी के जरिये मजबूत बनाए रखे। ‘आरबीआई’ सरकारी एवं प्राइवेट दोनों बैंकों को नियंत्रित करता है। उसके पास प्रक्रियाएँ हैं कि वह बैंक पर निगरानी रख पाए और उनके डूबते कर्ज पर सचेत होकर कार्रवाई करे। किसी भी बैंक को गंभीर संकट से बचाए रखने का यही तरीका है। सरकार का काम है कि डूबे हुए कर्ज को वसूलने के लिए कानून बनाए और किसी भी बड़े कर्जदार के बचाव में न दीखे।
निष्पक्ष रूप से काम करने के लिए आरबीआई को स्वत: और तत्कालीन राजनीति से कुछ अलग होने की जरूरत होती है, सरकारी बैंकों पर कारगर नियंत्रण तभी हो सकता है। सरकारी बैंक वित्त मंत्रालय की आड़ में रहकर नियंत्रण से बच निकलने का रास्ता ढूँढ़ते हैं। यह परंपरा रोकने की आवश्यकता है। ‘एनपीए’ पर हमारी विफलता का खुलासा पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने अपनी किताब ‘ओवर ड्राफ्ट’ में बखूबी किया है।
एक अन्य शोध के अनुसार पिछले सात वर्षों में सरकारी बैंकों ने 8 लाख करोड़ की कर्जमाफी की है। यदि सरकार जनता के पैसों से भरपाई नहीं करती तो सरकारी बैंक डूबने की कगार पर थे। विडम्बना यह है कि कर्ज में लापरवाही और दबाव की संस्कृति को सुधार नहीं रहे तो निजीकरण ही विकल्प दीखता है। आरबीआई के नियंत्रण को अधिक स्वतंत्र रूप दें एवं सरकारी बैंकों के बोर्ड को कारगर बनाएँ तो सभी सरकारी बैंकों को प्राइवेट बनाने की होड़ से बचा जा सकता है, सरकारी एवं प्राइवेट बैंकों की मिली-जुली मजबूत व्यवस्था बनाई जा सकती है।
(सप्रेस)