विकास की कोई नई अवधारणा बन नहीं रही है, ऐसी स्थिति में क्रांति असंभव है

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

यह लेख देवीप्रसाद मौर्य की पुस्तक ‘क्रांति के पहले’ (प्रकाशक-गंगा प्रसाद तिवारी, चौखंभा प्रकाशन, 9/5 जवाहर मार्ग, इंदौर, मध्य प्रदेश) के प्राक्कथन के रूप में लिखा गया था। इसकी पहली किस्त हमने कल प्रकाशित की थी, आज पेश है लेख का बाकी हिस्सा।

भारत में यह धारा गांधीजी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक सीमित रही, जिन्होंने राज्यक्रांति के पहले एक नई संस्कृति बनाते चलने पर जोर दिया। लेकिन बाद में प्रभावशाली राजनीति के वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों प्रकारों ने भारत के पूंजीवादी विकास को ही असली, जरूरी परिवर्तन के रूप में मान्यता दी। दोनों खेमों में यह धारणा प्रबल थी कि पूंजीवादी विकास के चक्के के नीचे जाति, वर्ग, अशिक्षा, सांप्रदायिकता सब कुछ मिट जाएगी, अलग से कुछ नहीं करना पड़ेगा। पूंजीवादी आर्थिक विकास जहां भी पहुंचेगा, वहां अपनेआप एक सांस्कृतिक क्रांति होती जाएगी। वामपंथ के लिए सिर्फ एक काम रह जाता है – मजदूरों का संगठन करके राज्यसत्ता हासिल करना। यह विश्वास हिल गया है लेकिन दूर नहीं हुआ है। इसलिए विकास की कोई नई अवधारणा बन नहीं रही है। ऐसी स्थिति में क्रांति असंभव है।

क्रांति की कुछ बातें होती हैं जो संबंधित देश या इलाके के लोग ही सोच पाएंगे। सारी दुनिया के लिए बहुत सारी बातें एक जैसी होंगी, बहुत सारे नियम एक जैसे होंगे लेकिन कुछ निर्णायक बातें, कुछ नियम अपने समाज और इलाके के ही होंगे जिसके बारे में बाहरवाले नहीं सोच सकते हैं।

जर्मनी से आकर कोई लेनिन की भूमिका नहीं अदा कर सकता। क्रांति के विश्वव्यापी सोच के साथ अपना स्थानीय मौलिक सोच जब तक नहीं जुड़ेगा तब तक उन इलाकों में जनक्रांति संभव नहीं होगी। सोच का मतलब केवल लिखित विचार या वैचारिक भाषण नहीं है। क्रांति के लिए सोच वही है जो नौजवानों तथा कमजोर वर्गों के जीवन, आचरण और कल्पना को प्रभावित करने लगता है और समाज में अंतर्निहित खदबदाती संभावनाओं को वास्तविक स्वरूप देता है।

भारत के क्रांतिकारी विचारों का कमजोर बिंदु है ‘वर्ग’। मार्क्स की यह क्रांतिकारी देन है कि राजनैतिक परिवर्तनों के पीछे वर्गों के टकराव को समझना एक मान्य सिद्धांत हो गया। छिटपुट परिवर्तन के पीछे शासक वर्ग के अंदरूनी तबकों का टकराव होता है। लेकिन मूलभूत परिवर्तन के पीछे कमजोर वर्ग की संगठित, उद्वेलित ताकत रहती है। भारत के साम्यवादियों की यह एक गलत धारणा है कि समाज का एक वर्ग विभाजन बना-बनाया रहता है और इसी विभाजन को टकराव या संघर्ष में परिणत करना उनका काम है।

हकीकत में वर्ग बहुत सारे हैं जो ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक-आर्थिक कारणों से बने हैं। कुछ विभाजन अधिक सामाजिक हैं, कुछ विभाजन अधिक आर्थिक हैं। इनमें से किसी एक विभाजन को मानना क्रांति के लिए आत्मघाती होगा। दोनों को परस्पर संबंधित करके एक व्यापक विभाजन की रेखा को कैसे स्पष्ट करें, पहचानें और सचेत बनाएं – भारतीय वामपंथ में अभी तक इसकी मीमांसा नहीं हुई है।

क्या हरिजन (दलित) और पिछड़ों के बीच वर्ग टकराव है? क्या किसान एक वर्ग है? क्या तीन एकड़ और दस एकड़ के स्वामित्व के बीच कोई वर्ग संघर्ष होगा? धनी किसान कितना धनी है? अगर भूमिहीनों को वर्ग संघर्ष के लिए संगठित किया जाएगा तो उसका प्रभाव छोटे और मध्यम किसानों पर क्या होगा? क्या छोटे किसानों को बड़े किसानों से अलग करके संगठित किया जा सकता है? क्या पूंजीवादी शोषण का शिकार सिर्फ कारखानों के मजदूर हैं, या किसान तथा देहाती श्रमिक भी हैं? इस तरह के बहुत सारे प्रासंगिक प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं।

भारतीय राजनीति में सामंतवाद एक अपरिभाषित शब्द है। भारत के समाज पर सामंतवाद का निश्चय ही बोलबाला है, लेकिन इसको कहां से शक्ति मिलती है? क्या यह सिर्फ कृषि व्यवस्था का ही एक अंग है? पूंजीवाद से इसका क्या संबंध है? क्या नक्सल आंदोलन और ग्रामीण मजदूरों के संगठन से इसका प्रतिरोध हो सकेगा? क्या किसान आंदोलन से सामंतवाद को नया जीवन मिल रहा है? क्या शहरी जीवन और शहरी अर्थनीति में भी सामंतवाद की पकड़ है?

‘क्रांति के पहले’ के लेखक ने भी इन सवालों का उत्तर नहीं दिया है, पुस्तक में कुछ विवेचन ऐसा है जिससे लगता है कि उपरोक्त प्रश्नों के समाधान हो सकेंगे। लेकिन लेखक ने खुद जो आर्थिक समाधान दिए हैं- उनमें प्रचलित वामपंथी नारों को दोहराने के अतिरिक्त विशेष बात दिखाई नहीं पड़ती है। इस पुस्तक के ऐतिहासिक-सामाजिक विश्लेषण जितने सशक्त हैं, आर्थिक विश्लेषण का अंश उतना ही सपाट लगता है। हिंदुस्तानी समाज को लेखक ने ‘सामंती पूंजीवाद’ की व्यवस्था कहा है। औपनिवेशिक व्यवस्था और औपनिवेशिक मानस का भी जिक्र किया है। लेकिन ये सामंती लक्षण कहां-कहां दिखाई देते हैं – उनका उपचार क्या हो सकता है? इन प्रश्नों का जवाब नहीं मिलता है। उसके बिना एक औसत आदमी के मन में कुछ सरलीकृत धारणाएं बनी रह जाती हैं, जैसे (क) पूंजीवाद ने काफी समृद्धि पैदा की है, उचित वितरण की समस्या है। (ख) उद्योग फैल रहा है और आहिस्ते-आहिस्ते गांव तक पहुंच जाएगा। (ग) ‘हमारे हिंदुस्तानी समाज की आर्थिक विषमता को औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहे लोग ही समाप्त कर सकते हैं।’

शायद सबसे कम अध्ययन समाजशास्त्र में हुआ है। किसी एक गांव या इलाका या जाति या वर्ग के किसी विशिष्ट पहलू को लेकर समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं, लेकिन आजादी के बाद से जितने आर्थिक और प्रशासनिक परिवर्तन हुए हैं उनसे किस प्रकार का समाज बना है, किस तरह के वर्ग बने हैं, वर्गों या तबकों के आपसी रिश्ते किस तरह बन रहे हैं, या परिवर्तित हो रहे हैं, विकास किसी आबादी का हो रहा है या सिर्फ इलाके का हो रहा है, इन प्रश्नों पर हमारे समाजशास्त्री कोई उत्तर प्रचलित नहीं कर सके हैं। हम सिर्फ इतना सुनते हैं कि विकास हो रहा है और जड़ता टूट रही है।

ऊपर के सारे सवालों का जवाब मैं भी नहीं दे सकूंगा। वह मेरे अकेले के वश का काम नहीं है। लेकिन क्रांति के लिए उनका उत्तर प्रस्तुत करना बौद्धिकों का उत्तरदायित्व है।वामपंथी प्रचारकों ने अक्सर पूंजीवाद के दावों को मजबूत किया है और इस गलत धारणा की पुष्टि की है कि आजादी के बाद देश की समृद्धि हुई है, उत्पादन खूब बढ़ा है, परंतु उसका वितरण सही ढंग से नहीं हुआ है इसलिए देश की गरीब जनता को उसका कोई फायदा नहीं हुआ है। ‘कुछ वस्तुओं के परिमाण में वृद्धि हुई है’ कहना अलग बात है लेकिन यह कहना कि  ‘समृद्धि काफी हो गई है सिर्फ वितरण का इंतजार है’, यह असत्य को प्रोत्साहित करना है।मामूली गणित से ही इस भ्रम को दूर किया जा सकता है।

देश में सत्तर करोड़ लोग हो गए हैं। (अब संख्या ज्यादा हो गई है।) उनके मुकाबले देश में कितना अनाज, कितना वस्त्र, कितना सीमेंट, सिंचाई का पानी, ट्रैक्टर, मोटरकार, टेलीविजन, सिनेमा, किताब, स्कूल, होटल, शराब, जलावन को लकड़ी, गैस का चूल्हा आदि पैदा किया गया है? सत्तर करोड़ लोग, दस-बारह करोड़ खेतिहर परिवारों के बीच इन वस्तुओं का वितरण किस तरह हो सकेगा? जब कुछ औद्योगिक उत्पादन वृद्धि की दर बतायी जाती है, कोई पूछता नहीं है कि किन वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हुई है और किनमें कमी आई है? अगर जलावन की लकड़ी में कमी आई है और गैस के चूल्हों की कुछ हजारों में वृद्धि हुई है, अगर सीमेंट के मकान बनाने वाले इंजीनियरों की संख्या बढ़ी है और मिट्टी के मकान बनाने वाले मिस्त्री खतम हो चुके हैं, अगर मूंग-अरहर की खेती में कमी हुई है और सोयाबीन, काजू का उत्पादन बढ़ा है, तो समझना होगा कि जो समृद्धि हुई है उसके वितरण से जनता को खुशहाली नहीं मिल पाएगी।

समृद्धि बढ़ाने और फैलाने के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उससे ग्रामीण व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो रही है, ग्रामों का औद्योगिकीकरण नहीं हो रहा है। देश के सत्तर फीसदी गांवों में कृषि के अलावा कोई दूसरा धंधा ग्रामीण आबादी के पास नहीं है। उपयोग की बात तो छोड़ दें। शिक्षक या राजमिस्त्री जैसा पेशा भी नहीं बन पा रहा है।

कुल मिलाकर ग्रामीण समूह कमजोर पड़ रहे हैं। यह कहना मुश्किल होगा कि पूंजीवादी शोषण के शिकार कारखाने के मजदूर हैं या गांव के किसान और मजदूर हैं जिनका कोई प्रत्यक्ष संबंध पूंजीपतियों से नहीं है लेकिन जिनको पूंजीवादी व्यवस्था लूट रही है। शायद दोनों हैं। केवल कारखनियां मजदूर के संगठन से पूंजीवादी व्यवस्था टूटेगी नहीं।

ग्रामीण समूहों की सही राजनीति अभी तक विकसित नहीं हो सकी है। भूमिहीन मजदूरों की संगठित आक्रामकता जहां बन गई है वहां छोटे मध्यम किसान त्रस्त होते हैं। छोटे मध्यम किसान का मतलब देश के कुल आर्थिक संदर्भ में निम्न मध्यम वर्ग। सर्वहारा बनाम निम्न मध्यम वर्ग का वर्ग संघर्ष मजदूरों की स्थिति को भले थोड़ा सुधार दे लेकिन वह क्रांति पैदा करने वाला वर्ग संघर्ष नहीं होगा, क्योंकि क्रांति को सफल बनाने के लिए सर्वहारा और निम्न मध्यम वर्ग का संयुक्त मोर्चा होना जरूरी है। इधर ‘किसान आंदोलन’ में भी खतरा बना हुआ है कि  ‘धनी किसान’ लोग इसका नेतृत्व अपने हाथ में लेकर पूंजीवादी व्यवस्था के साथ अपने को जोड़ने के लिए किसान शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं।

भारत में हम जिनको विद्यार्थी आंदोलन या युवा विद्यार्थी आंदोलन कहते हैं वह वर्ग निरपेक्ष नहीं है। निम्न मध्यम वर्ग की युवा पीढ़ी ही उसका शक्ति-स्रोत है, लेकिन इस आंदोलन का रुझान अभी तक मजदूरपरस्त या सर्वहारा-प्रेमी नहीं रहा है।

युवा, किसान और मजदूर- इन तीन विद्रोही तबकों को कैसे एक क्रांतिकारी राजनीति में, एक रणकौशल में जोड़ा जा सकता है, यह एक कठिन और जटिल समस्या है। लेकिन इसका रास्ता निकालना ही होगा। केवल किसान आंदोलन द्वारा या केवल देहाती मजदूरों के संगठन के द्वारा या औद्योगिक मजदूरों के संगठन के द्वारा यह संभव नहीं होगा।

सामंतवाद के विरुद्ध लड़ाई अक्सर किसानों-मजदूरों की आपसी लड़ाई में परिणत हो जाती है। कारण, सामंतवाद को ठीक ढंग से पहचाना नहीं गया है। सामंतवाद का जो अर्थ भारत का वामपंथ समझता है, उस अर्थ में सामंतवाद लगभग लुप्त हो गया है। उस अर्थ में सामंतवाद केवल उन इलाकों में मौजूद है जहां हजारों एकड़ की बेनामी जमीन किसी परिवार के पास हो, यह होगा गैरकानूनी सामंतवाद। लेकिन हम जानते हैं कि सामंतवाद सारे देश में व्याप्त है। तो यह कौन सा सामंतवाद है? यह सामंतवाद हमारे समाज और हमारी आधुनिक संस्कृति की बुनियाद है।

हमारा पूंजीवाद ही सामंती पूंजीवाद है। यूरोप के पूंजीवाद के साथ-साथ यूरोपीय समाज में एक पूंजीवादी संस्कृति भी पैदा हुई जिसने सामंतवाद को खतम किया और गोरे लोगों के बीच सामाजिक समता और मानवीयता को नए मूल्यों के तौर पर स्थापित किया है। लेकिन भारत में पूंजीवाद ने पारंपरिक मानवता बोध को समाप्त करके कोई नया मानवीय मूल्य नहीं दिया है। नई औपनिवेशिक संस्कृति और पुरानी जातिप्रथा दोनों का अभूतपूर्व मेल हो गया है। इस मेल का सबसे स्पष्ट उदाहरण भारत की नौकरशाही में देखने को मिलता है।

अगर आधुनिक जमींदार देखना है तो जिला कलेक्टर को देख सकते हैं। गांव में सामंतवाद को उसी तरह नया जीवन मिला है। जमीन की सामंती मिल्कियत अभी कुछ ही इलाके में रह गई है, नव सामंतवाद का आधार हजारों एकड़ की मिल्कियत नहीं है। जिनके पास दस बीस एकड़ जमीन है लेकिन जो आधुनिक खेती कर सकते हैं और परिवार के दूसरे लोगों को शहरी धंधे में लगा सकते हैं या उच्च जाति होने के कारण गांव के लोगों पर रौब जमाकर विशेषाधिकार प्राप्त कर सकते हैं- उनका दबदबा ग्रामीण इलाकों में रहता है। उस परिवार के कुछ लोग नौकरशाही में होने पर सामंती प्रभाव जमाने में अधिक आसानी होती है।

आधुनिक खेती का मतलब है जो ट्रैक्टर, खाद आदि के लागत-खर्च को बढ़ा सके और ऐसी चीजों का उत्पादन करे जिसकी खरीदार आम जनता न होकर सरकार या विदेशी लोग हों। मजदूरों की लड़ाइयां इस तरह के नव सामंतों के खिलाफ नहीं हो पाती हैं या कारगर नहीं होती हैं क्योंकि धनी किसानों का यह तबका गांव में रहता ही नहीं है। पिछले बीस सालों में धनी किसान परिवारों ने गांव में अच्छा मकान बनाना छोड़ दिया है- उनका अच्छा मकान शहर में बनता है जहां उनके बच्चे पढ़ते हैं और शहरी संस्कृति में पले हैं। इस परिवर्तित संदर्भ को समझकर सामंतवाद विरोध की रणनीति बनानी पड़ेगी।

जाति और नौकरशाही सामंती स्वभाव के नए स्रोत हैं। यह एक निराशाजनक स्थिति है कि सामंतवाद को दुश्मन मानने वाले न जातिप्रथा को मिटाने का सामाजिक सुधार-कार्य करते हैं, न प्राथमिक शिक्षा पर बल देते हैं, न औपनिवेशिक संस्कृति के बारे में चिंतित दिखाई पड़ते हैं।

एक काल्पनिक सामंतवाद की तलाश में निकलकर ये किसान विरोधी मजदूर-आंदोलन चलाते हैं, जो मजदूरों को तो कुछ समय के लिए संगठित कर देता है लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था को और सामाजिक सामंतवाद को कहीं से झकझोर नहीं पाता है।

प्रचलित अवधारणा के अनुसार सामंतवादी वह है जिस परिवार के हाथ किसी इलाके की कृषिभूमि के एक बड़े हिस्से की मिल्कियत है और बड़ा भूस्वामी होने के नाते अपने इलाके की आबादी पर वह शासन और प्रभुत्व चलाता है। बाकी लोगों से यानी छोटे किसान और भूमिहीनों से कटकर उसकी शिक्षा, संस्कृति, शादी, पर्व आदि अलग चलते हैं। यूरोप में सामंतवाद खतम हुआ, भूमि की हदबंदी से नहीं (कुछ देशों में अभी बड़े भूस्वामी हैं) बल्कि इसलिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य के साधन आदि सब लोगों को लगभग समान रूप से उपलब्ध कराए गए। इससे सामाजिक समता स्थापित हुई। सामंतवाद का सांस्कृतिक अर्थ है सामाजिक विषमता या सामाजिक विशेषाधिकार।

यूरोपीय पूंजीवाद ने बड़े-बड़े धनिकों को पैदा किया है लेकिन सारी आबादी के लिए समान शिक्षा और स्वास्थ्य की समान सुविधाएं भी पैदा की हैं। भूख और बेरोजगारी से मुक्ति के कानून और इंतजाम किया है। इसलिए वहां सामाजिक समता आई है।

जैसा कि कहा गया है, सामंतवाद का अर्थ है संपत्तिवालों को या प्रशासकों को सामाजिक विशेषाधिकार मिले, भारतीय जातिप्रथा में इसके लिए एक बना-बनाया ढांचा था ही, औपनिवेशिक शासन और संस्कृति ने उसी पर नौकरशाही और नये संपत्तिवालों के लिए विशेष अधिकार का एक नया ढांचा खड़ा कर दिया है। आम आदमी की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के लिए या तो कोई व्यवस्था नहीं, और जहां व्यवस्था होती भी है वह अलगाव के आधार पर।

संपत्तिवालों के लिए अलग प्राथमिक शिक्षा, साधारण लोगों के लिए शिक्षा नहीं या निचले दर्जे की शिक्षा। अगर यह सामंतवादी व्यवस्था नहीं है तो सामंतवाद आप किसको कहते हैं?

ऊपर की सारी चर्चा का एक ही मकसद है, हिंदुस्तानी समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण करके समाधान निकालने की राह प्रशस्त करना। ‘क्रांति के पहले’ पुस्तक के लेखक ने प्रचलित बौद्धिक मान्यताओं को यानी बौद्धिक यथास्थिति को तोड़ा है। उससे पूरी तरह समाधान तो नहीं निकलते हैं, लेकिन बुनियादी सवाल बहुत ज्यादा खड़े हो गए हैं। इन सवालों का उत्तर दिए बिना, पुराने शब्दों को नए सिरे से परिभाषित किए बिना, नारों के पीछे के तथ्यों को उजागर किए बिना हम समाधान नहीं पा सकेंगे। इस किताब को, या इस प्रकार की किसी भी किताब को प्रारंभिक बिंदु मानकर हमें एक बौद्धिक आलोड़न पैदा करना होगा।

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