आर्थिक विकास की सही दिशा

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— नन्दकिशोर आचार्य —

धुनिक अर्थशास्त्री- और इसलिए आधुनिक राजनीतिक विचारक और कार्यकर्ता भी आर्थिक समस्या को मूलतः उत्पादन की समस्या मानते हैं। यदि किसी समाज या राज्य में उत्पादन की समस्या हल हो जाती है- और इस हल में कारखानों और रोजगार के अवसरों की संख्या में तदनुकूल बढ़ोत्तरी अर्थात् समाज की विक्रय शक्ति में वृद्धि भी शामिल है- तो यह समझना चाहिए कि उसकी आर्थिक समस्याएं भी हल हो रही हैं। इसलिए आर्थिक विकास का तात्पर्य उत्पादन में विकास माना जाता है। लेकिन कुछ अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं जो केवल उत्पादन के आधार पर ही नहीं बल्कि मुनाफे के वितरण के आधार पर आर्थिक प्रक्रिया के औचित्य का निर्धारण करते हैं। इन लोगों के विचार में उत्पादन में वृद्धि की प्रक्रिया जब तक शोषण रहित नहीं हो जाती- और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में ऐसा होना अनिवार्य है- तब तक अर्थव्यवस्था अपने सही वैज्ञानिक स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकती। ‘अतिरिक्त मूल्य’ श्रमिक के श्रम का प्रतिफल है अतः उस पर किसी कारखानेदार का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होना चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह दृष्टि पहले वाली दृष्टि की तुलना में आर्थिक सिद्धांतों की दृष्टि से अधिक उचित है और अपेक्षाकृत मानवीय भी- अपेक्षाकृत इसलिए कि यह दृष्टि भी अपने अंतिम निष्कर्ष में मनुष्य को अपने जीवन का- और इसलिए आर्थिक जीवन का भी नियन्ता नहीं मानती बल्कि उसे भी यंत्रों और कच्चे माल की तरह आर्थिक प्रक्रिया का एक उपकरण बना लेती है। इसलिए यह पूर्णतः मानव केंद्रित दृष्टि नहीं है। इस दृष्टि में भी दूसरी प्रमुख कमजोरी यह लगती है कि यह भी उत्पादन में अधिकाधिक विकास को ही प्रमुख प्रक्रिया मानती है और इस प्रकार प्रकृति और उसकी संपदा के साथ वैसा ही हिंसक रवैया अख्तियार करती है जैसा कि प्रथम दृष्टि करती है।

इस प्रकार पूँजीवाद और मार्क्सवादी समाजवाद, जिन्हें वैकल्पिक दृष्टियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, दोनों ही अतंतः मनुष्य को हिंसक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करते हैं यद्यपि दोनों के घोषित लक्ष्य एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। इसका कारण शायद यही है कि मार्क्सवादी समाजवाद का जन्म एक यांत्रिक प्रक्रिया के तहत पूँजीवाद के अंतर्विरोधों से होता है। अतः स्वयं उसका भी इन अंतर्विरोधों से ग्रस्त होना स्वाभाविक है।

इन अंतर्विरोधों से तभी बचा जा सकता है जब यह माना जाय कि समतामूलक समाज के विकास की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं बल्कि मानवीय चेतना द्वारा निर्देशित है, अतः उस प्रक्रिया का एक नैतिक पहलू भी है और वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि चेतना के विकास का तात्पर्य अहिंसा की प्रवृत्ति का विकास है तो सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया में ही नहीं प्रकृति के प्रति भी अहिंसक रुख को विकसित होना होगा क्योंकि अहिंसा की प्रवृत्ति का संबंध हमारे मन से है- इसमें दूसरे पक्ष की स्थिति केंद्रिय नहीं है।

मार्क्सवादी समाज की प्रक्रिया भी अंततः श्रमिक से एक नैतिक मांग तो करती ही है। जब यह कहा जाता है कि ‘प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार लो, और प्रत्येक को उसकी जरूरत के मुताबिक दो’ तो यह बुनियादी रूप से एक नैतिक सिद्धांत है। ‘अतिरिक्त मूल्य’ के सिद्धांत को यांत्रिक तरीके से लागू करने पर तो ‘अतिरिक्त मूल्य’ भी सीधा श्रमिक को ही मिलना चाहिए। तब सिद्धांत होना चाहिए कि ‘प्रत्येक से योग्यता के अनुसार लो, और उसी आधार पर उसे दो भी’ जो निश्चय ही नैतिक दृष्टि से एक पूँजीवादी मांग होगी।

उपर्युक्त दोनों ही दृष्टियां एक बुनियादी भ्रम की शिकार भी हैं। दोनों ही यह मानती हैं कि प्राकृतिक संपदा पर मनुष्य का स्वामित्व है जबकि इस मान्यता का कोई नैतिक आधार उनके पास नहीं है- बल्कि कह सकते हैं कि इसका कोई आर्थिक आधार भी नहीं है। अपने श्रम से उत्पादित वस्तु पर तो मनुष्य अपना अधिकार मान सकता है लेकिन प्राकृतिक संपदा के उत्पादन या संचयन में उसकी कोई भागीदारी नहीं है। हम कह सकते हैं कि इस संपदा के बिना उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है, इसलिए उसे प्रकृति का दोहन करना ही होगा। इसका तात्पर्य यही हुआ कि मनुष्य समाज नैतिक दृष्टि से प्रकृति पर अबाध अधिकार नहीं रखता बल्कि अपने अस्तित्व के लिए उस पर निर्भर करता है और इसलिए उसका उपयोग करता है।

लेकिन मनुष्य के मनुष्य होने में ही यह तय है कि वह एक उत्तरदायी प्राणी है, अतः प्रकृति के साथ अपने इस रिश्ते में भी इस उत्तरदायित्व का प्रतिफलन होना स्वाभाविक ही एक अनिवार्य नैतिक माँग है।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य द्वारा प्रकृति का दोहन उस सीमा तक ही उचित माना जा सकता है जिस सीमा तक उसकी बुनियादी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऐसा करना अनिवार्य हो। साथ ही यह देखते चलना भी जरूरी होगा कि वह प्रकृति के प्रति अपने दायित्व का पालन भी करता है या नहीं- अर्थात् प्रकृति को हो रही हानि की यथासंभव क्षतिपूर्ति करने की दिशा में भी उसे सचेष्ट करना होगा। इसी को आधुनिक भाषा में पारिस्थितिक संतुलन- इकॉलॉजिकल बैलेंस- कहा जाता है। यह दृष्टिकोण आर्थिक कसौटी पर भी उतना ही खरा उतरता है जितना नैतिक कसौटी पर।

यदि यह मान भी लें कि प्रकृति पर मनुष्य का अधिकार है तो भी मानना होगा कि वह किसी एक मनुष्य जाति, राष्ट्र या वर्ग अथवा एक कालखंड के मनुष्य का नहीं बल्कि सार्वभौमिक और सार्वकालिक मानवता का अधिकार है। अतः किसी भी एक मनुष्य, राष्ट्र या वर्ग को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं और सुविधाओं की पूर्ति के लिए इस संपदा का असंतुलित दोहन कर सके।

अतः आर्थिक विकास का तात्पर्य सिर्फ उत्पादन का विकास या मुनाफे के वितरण का संतुलन ही नहीं है। उसमें यह ध्यान रखना भी उतना ही आवश्यक है कि यह प्रक्रिया स्वयं में कितनी मानवीय है। उत्पादन का निर्धारण बाजार की मांग पर नहीं बल्कि इस आधार पर होना लाजिमी है कि मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएं क्या हैं और उसकी चेतना के विकास में किस हद तक प्रकृति का दोहन आवश्यक है।

जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के नाम पर मनुष्य को श्रमविमुख और सुविधाजीवी बना देना और उसकी सुरसा की तरह मुँह फैलाती हुई सुविधाओं की मांगों की पूर्ति के लिए प्रकृति का और मानवीय प्रतिभा और श्रम का भी शोषण आर्थिक विकास की ही नहीं मानवीय चेतना के नैतिक विकास की प्रक्रिया की एक विकृति के रूप में ही समझा जा सकता है। यदि मनुष्यमात्र समान है तो सिर्फ वर्तमान में जीवित मनुष्य ही नहीं भविष्य में आने वाला मनुष्य भी उतना ही समान है। अतः उसकी उपेक्षा या अधिकारों का हनन उतना ही स्वार्थ-केंद्रित और हिंसक और उस हद तक अमानवीय भी बनाता है जितना आज के मनुष्य का शोषण और अवमानना।

आर्थिक विकास की सही और मानवीय दिशा में हमें न केवल उत्पादन और वितरण के फलों को सब तक समान स्तर पर पहुँचाना होगा बल्कि उसकी प्रक्रिया में प्रकृति और भावी मानवता के प्रति भी एक उत्तरदायित्व का बोध विकसित करना होगा।

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