‘सेकुलर’ क्या है

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

आर्थिक समानता का लक्ष्य एक इहलौकिक लक्ष्य है। जहाँ भी इसके लिए संघर्ष, आंदोलन होता है वहां सांप्रदायिकता की भावना कम होती है। विडंबना यह है कि समाजवादी और साम्यवादी समूह भी आर्थिक समानता के विचारों को फैलाने का आंदोलन  नहीं कर रहे हैं। इन कारणों से सेकुलर खेमा कमजोर हो गया है।

राजनीति में जब कोई अपने को सेकुलर कहता है तो उसका अर्थ है ‘धर्मनिरेपक्ष’। मतलब है कि हमारी राजनीति से धर्म का कोई वास्ता नहीं है। धर्म अलग है, राजनीति और राज्य अलग।

सिर्फ यूरोप के इतिहास में पाया जाता है कि वहां राज्य और धर्म में बहुत लंबे समय तक संघर्ष चला। यूरोप में ईसाई धर्म का संगठन इतना शक्तिशाली और व्यापक था कि वहां के राजाओं पर उसका प्रभुत्व था और सरकारों में उसका दखल देना जायज माना जाता था। इसके खिलाफ राजाओं ने और राष्ट्रों ने विद्रोह किया और अंत में धर्म को राजनीति से हट जाना पड़ा। उसके बाद धर्म का प्रभाव सिर्फ समाज तक ही सीमित हो गया, राजनीति में यह परोक्ष रूप में आता रहा। सीधे तौर पर धर्म का कोई विशेषाधिकार राज्य या प्रशासन में नहीं रहता।

लेकिन धर्म का प्रभाव इतना व्यापक और गहरा है, सामाजिक आचरण पर इसका इतना अधिक नियंत्रण है कि धर्म और राजनीति को बिलकुल अलग करना संभव नहीं है। धर्म सिखाता है, कभी-कभी निर्देश देता है कि कैसा आचरण करना है। राज्य का काम है सार्वजनिक आचरण को नियंत्रित करना ताकि एक व्यक्ति के आचरण से दूसरे व्यक्ति को नुकसान न हो; जैसे- हिंदू-धर्म ब्राह्मण और यादवों को निर्देश देता है कि हरिजनों से नफरत करो और इससे दोनों का नुकसान होता है, इसलाम धर्म के अनुसार एक आदमी एक साथ चार बीवी रख सकता है और इससे नारी की स्वतंत्रता खतम होती है। ऐसे सवालों पर अकसर माना जाता है कि धर्म का नियम पुराने जमाने का है। इसलिए आधुनिक दुनिया की बातों को समझकर सरकार नया कानून बनाए। इसलिए भारत के संविधान में अस्पृश्यता को अपराध माना गया। एक कानून बनाया गया जिसके अनुसार कोई हिंदू एक साथ दो बीवी नहीं रख सकता। लेकिन यह कानून मुसलमानों पर लागू नहीं; कारण, मुसलमान-समाज में नारी-जागरण बहुत कम है और पुरुष नारी पर अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहता।

ऊपर के मोटे उदाहरण से यह साफ है कि कोई राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। लोहिया ने  ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को गलत बताया और कहा कि हमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ नहीं, ‘इहलोकवादी’ या ‘ऐहिक’ होना चाहिए। यानी इहलोक (इस दुनिया, वस्तु जगत) में जो करना है, विज्ञान, राजनीति, मनोविज्ञान के सहारे करें, धर्म को छोड़ें। धर्म का संबंध परलोक हो तो उससे हो। इससे हमें एतराज नहीं होना चाहिए। लोहिया के सिद्धांत के अनुसार हमें सामाजिक-राजनीतिक कामों में अधिक से अधिक ‘नास्तिक’ होना पड़ेगा और धर्म के पुराने नियमों को छोड़ना होगा।

नास्तिकता को बहुत कम लोग हजम कर पाते हैं। इसलिए सर्वोदय के लोगों ने ‘सेकुलर’ का अर्थ बताया है- ‘सर्वधर्म समभाव’, यानी सभी धर्मों का समान रूप से आदर राज्य करे। लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है- क्योंकि ऐसा मानने पर व्यवहार में अधिसंख्यक लोगों का धर्म ही चलने लगेगा। इसलिए धर्म निरपेक्षता पर इतना जोर देते हुए भी नेहरू के जमाने से भारत सरकार के औपचारिक कामों में मंत्र, पूजा-पाठ और पुरोहित आ जाता है। पुलिस थानों में महावीर स्थान बन गए हैं। यह न धर्म निरपेक्षता है, न सर्वधर्म समभाव। सर्वधर्म समभाव के अनुसार होना चाहिए कि जिस थाने में मुसलमान दरोगा है वहां प्रथमतः एक मसजिद बनाई जाए। समाधान तो इसी में है कि पूजा-पाठ, मंत्र-तंत्र बिलकुल निजी और घरेलू चीज होनी चाहिए- इसमें सार्वजनिक प्रदर्शन कम से कम हो और प्रशासन में तो बिलकुल नहीं।

धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्म समभाव से सांप्रदायिकता एक अलग चीज है। सांप्रदायिकता वहां आती है जहां एक धर्म या संप्रदाय के लोग खुले या छुपे ढंग से संगठित होकर दूसरे संप्रदाय के प्रति नफरत पैदा करते हैं या उसके लोगों के अधिकार को छीनना चाहते हैं। भारत में कई प्रकार के सांप्रदायिक संघर्ष होते हैं। लेकिन सबसे जहरीला और अमानवीय ढंग से हिंदू-मुसलमान दंगा होता है। इन दंगों के पीछे धर्म कम होता है, राजनीति अधिक होती है। हिंदू जब दंगा करना चाहता है तब महावीरी जुलूस निकालकर, साथ में भाला, गँडासा लेकर चलता है। ऐसा कहीं धर्म के नियमों में नहीं है। लोगों के मन के अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और द्वेष-भावनाओं का फायदा उठाकर सांप्रदायिक संगठन बढ़ने लगता है। बाला साहेब देवरस ने फबती कसी- ‘मसजिदों की संख्या जमशेदपुर में बढ़ रही है, मंदिर कम हो गए हैं।’ इससे द्वेष-भावना बढ़ती है और दंगा करना आसान हो जाता है।

इसलिए केवल जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पूर्व-रूप) या आरएसएस पर हमला करने से सांप्रदायिकता रुकेगी नहीं। इसके लिए चाहिए कि हिंदू समाज में धर्म की भावनाओं को आधुनिक और उदार बनाया जाए। पुरोहितों, मंदिरों, पूजापाठ, ज्योतिषी, बाबा और मठ के प्रभावों को कम किया जाए। यह सब धर्म का कर्मकांडी रूप है और धार्मिक संकीर्णता को बढ़ावा देता है। विडंबना यह है कि आरएसएस पर पाबंदी लगाने के लिए ललकारने वाले खुद  ‘बाबा’ और  ‘ज्योतिषी’ से घिरे रहते हैं।

केवल हिंदू धर्म में नहीं, भारत के दूसरे धार्मिक समाजों में भी रूढ़िवाद के खिलाफ आंदोलन होना चाहिए। मुसलमान नेता यह चाहता है कि हिंदू लोग अपने धर्म को उदार बनाएं लेकिन हम अपने धर्म को संकीर्ण बनाकर धर्म के नाम पर मुसलमानों का अंध समर्थन लें। यह विरोधाभास है। सेकुलर नेता लोग सत्ता के लोभ में जब मुसलमान नेताओं को फुसलाते हैं तब इन बातों को सामने नहीं रखते हैं। नतीजा यह होता है कि मुसलमान और ईसाइयों की धार्मिक कट्टरता बनी रहती है और उसे देखकर औसत हिंदू को भी यह तर्क अच्छा लगता है कि हम क्यों सुधरें?

‘सेकुलर’ कहलाने वाले समूह इस समस्या से जूझने में असफल हो रहे हैं, क्योंकि धर्मों के अंदर सुधार लाने का कार्यक्रम उनके एजेंडे में नहीं है। सेकुलर का अर्थ अगर इहलोकवाद है तो सेकुलर समूहों का एक यह काम होना चाहिए कि इहलौकिक जीवन को सुंदर और न्यायमूलक बनाने का कार्यक्रम चलाएँ। आर्थिक समानता का लक्ष्य एक इहलौकिक लक्ष्य है। जहाँ भी इसके लिए संघर्ष, आंदोलन होता है वहां सांप्रदायिकता की भावना कम होती है। विडंबना यह है कि समाजवादी और साम्यवादी समूह भी आर्थिक समानता के विचारों को फैलाने का आंदोलन  नहीं कर रहे हैं। इन कारणों से सेकुलर खेमा कमजोर हो गया है।

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