— आनंद कुमार —
क्या डा. लोहिया की ‘संगठन के प्रति उदासीनता और सिर्फ समाजवादी विचारधारा की क्रांतिकारिता पर आधारित उनकी कार्यशैली’ के कारण समाजवादी आंदोलन कभी ‘कांग्रेस हटाओ’ और कभी ‘भाजपा हटाओ’ तक ही सीमित रह गया? कुछ और नहीं किया? इसका उत्तर देने के लिए भारतीय समाजवादी आंदोलन का 1934 से लेकर 2022 तक के बीच के विवरण को जानना जरूरी है। वैसे बिना तथ्यों की जानकारी के फतवेबाजी करनेवाले पर यह शर्त नहीं लागू की जानी चाहिए। आखिर अपने अज्ञान का प्रदर्शन भी एक मौलिक अधिकार होता है।
भारत में समाजवादी आंदोलन के 88 बरस के रोमांचक इतिहास को 1964-69 और 1978-80 के दो प्रसंगों में सीमित करना लापरवाही है। क्योंकि समाजवादी आंदोलन ने चुनावी वाहनों (सोपा/प्रसोपा/सपा/संसोपा/जपा/जद/राजद आदि) के अलावा वर्ग संगठनों (हिंद मजदूर सभा/ हिंद किसान पंचायत/ हिंद मजदूर किसान पंचायत), हित समूह संगठन (निखिल वनवासी पंचायत/ समाजवादी युवक सभा/ समाजवादी युवजन सभा/ महिला दक्षता समिति), बौद्धिक संगठन (नव संस्कृति संघ/ खोज परिषद/परिमल/विचार केंद्र) और रचनात्मक कार्य मंच (राष्ट्र सेवा दल) भी स्थापित किए। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’, पंढरपुर मंदिर प्रवेश सत्याग्रह, गोवा मुक्ति आंदोलन, नेपाल आंदोलन, काशी विश्वनाथ मंदिर आंदोलन, किसान आंदोलन, 1960 की सिविल नाफरमानी, महंगाई विरोधी आंदोलन, अंग्रेजी हटाओ आंदोलन, गुजरात आंदोलन, रेल मजदूर आंदोलन, बिहार आंदोलन, इमरजेंसी विरोधी आंदोलन, मंडल रिपोर्ट आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर मौजूदा संविधान बचाओ आंदोलन तक एक शानदार सिलसिला है। हिंदी, मराठी, ओड़िया, तेलुगू, मलयालम, बंगाली, असमिया, कन्नड़ और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिका-किताब का प्रकाशन चलता आया है। इसमें जनता(अंग्रेज़ी), जनवाणी, जन, मैनकाइंड (अंग्रेजी), साधना(मराठी), चौखंभा, चौरंगी वार्ता, सामयिक वार्ता और युवा पौराटम(तेलुगू) का अपना अपना योगदान है।
स्वयं डा. लोहिया की राजनीतिक जिंदगी 1934 से 1964 के बीच 33 साल की रही। उन्होंने समाजवादी आंदोलन के एक हिस्से का 1953 से 1967 के बीच कुल 14 बरस सीधे नेतृत्व का प्रयास किया। 13 बार गिरफ्तारी दी। 4 बार संसद के चुनाव में उतरे जिसमें 1957 और 1962 में हारे और 1963 और ‘67 में जीत मिली। कुल 57 बरस की उम्र में डाक्टरों की लापरवाही से उनका निधन हो गया। 1953 से 55 के 3 बरस नेहरू-जेपी संवाद, अशोक मेहता-मधु लिमये विवाद, केरल की पट्टमथाणु पिल्लै की सरकार द्वारा केरल में गोली चलाने से पैदा विवाद और लोहिया-लिमये के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई में खर्च हुए। लोहिया आत्मरक्षा में मुट्ठीभर साथियों के साथ आचार्य नरेन्द्रदेव, जेपी, आचार्य कृपालानी, अशोक मेहता, एसएम जोशी जैसे दिग्गज समाजवादी नायकों से अलग नयी पार्टी बनाने को विवश हुए। फिर भी 1957 से 1962 के बीच जाति नीति, दाम नीति और भाषा नीति के जरिए समाजवादी समाज की रचना के लिए वोट-जेल-फावड़ा की त्रिवेणी का सूत्रपात किया। वोट के मोर्चे पर कांग्रेस, प्रसोपा, कम्युनिस्टों, जनसंघ और क्षेत्रीय दलों का ‘एकला चलो’ की रणनीति से असफल मुकाबला किया। अंग्रेजी के मुकाबले देशी भाषाओं के प्रयोग, दाम बांधने, दलितों के मंदिर प्रवेश से लेकर उत्तर पूर्व के प्रदेशों की देश से एकजुटता के लिए सत्याग्रह किए।
न साधन था, न सामाजिक आधार था, न कार्यकर्ताओं की बड़ी जमात थी। फिर भी निराशा के कर्तव्य के दर्शन, इतिहासचक्र के सिद्धांत और सप्तक्रांति के कार्यक्रम के जरिए देश और दुनिया को समाजवाद की ओर ले चलने में जुटे रहे। जाति तोड़ो सम्मेलन, अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन, हिमालय बचाओ अभियान, दाम बाँधो सम्मेलन, विद्यार्थी असंतोष को मार्गदर्शन, नर-नारी समता के लिए प्रोत्साहन, नदियों और तीर्थ स्थलों की स्वच्छता, खर्च पर सीमा का प्रस्ताव, अमरीका में रंगभेद के खिलाफ़ सत्याग्रह, भारत-पाक महासंघ के लिए बादशाह ख़ान से संपर्क, पूर्वी पाकिस्तान के साथ निकटता, नेपाल की जनतांत्रिक क्रांति को संरक्षण, तिब्बत और हिमालय बचाने के लिए पहल, सिंचाई सेना और रामायण मेला का असफल प्रयास इसी कालखंड की घटनाएँ थीं।
इसी क्रम में 1963 से 1967 के अंतिम 4 बरस ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ’ में लगाए जिसमें प्रसोपा, कम्युनिस्टों, बागी कांग्रेसियों और जनसंघ को एक 10सूत्री कार्यक्रम के आधार पर संयुक्त मोर्चा बनाकर जोड़ने का जोखिम उठाया। इस प्रयोग को 1962 के चीनी हमले से पैदा राष्ट्रीय शर्म से आधार मिला। इसमें वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी राजगोपालाचारी द्वारा गठित स्वतंत्र पार्टी का भी योगदान था। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में ग़ैर-कांग्रेसी दलों की जिम्मेदार भूमिका से ताकत मिली। राष्ट्रपति पद के लिए डा. ज़ाकिर हुसैन और उपराष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरी के मुकाबले श्री सुब्बाराव और प्रो. हबीब की उम्मीदवारी का असर था। इस प्रयोग की सफलता ने चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, बीजू पटनायक, प्रकाश सिंह बादल, देवीलाल, राजनारायण, मधु लिमये, रामानन्द तिवारी, नंबूदरीपाद, ज्योति बसु, अच्युत मेनन, अटल बिहारी बाजपेयी, विजया राजे सिंधिया, बलराज मधोक और करुणानिधि जैसे राजनीतिज्ञों को राष्ट्रीय पहचान दिलायी। 1969 में कांग्रेस की टूट और श्रीमती इंदिरा गाँधी के सर्वशक्तिमान बनकर उभरने का भी इससे रिश्ता था। इस सब के बावजूद लोहिया की जीवनयात्रा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिक राजनीति के विस्तार तक सीमित करना एक शर्मनाक विमर्श है।
विफलताओं का अहसास
किसी मूल्यांकन में विफलताओं की चर्चा न होने से असंतुलित प्रस्तुति हो जाती है। किसी भक्त की तरफ से कीर्तन लगता है। यह बात डा. लोहिया के बारे में भी लागू होती है।
आइए, डा. लोहिया की गलतियों के बारे में देखें। लोहिया व्यक्तिपूजक नहीं थे। उन्होंने अपनी नजर से कृष्ण और राम, बुद्ध और महावीर, मार्क्स और गांधी, आंबेडकर और जयप्रकाश की भी आलोचना की थी। इसी क्रम में अपनी विफलताओं और त्रुटियों की गिनती करके हमारे जैसे विद्यार्थियों का काम आसान कर दिया है।
डा. लोहिया अपनी राजनीतिक गलतियों में भारत विभाजन के खिलाफ सत्याग्रह न करने और 1948 में कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी बनाने को शामिल कर चुके हैं। शुरुआती दिनों की उग्रता के बारे में भी अफसोस था। उन्होंने अपनी इस मान्यता को भी गलत पाया कि संगठन की शक्ति के बिना भी सही विचार समाज में प्रभावशाली हो सकते हैं। वह इस सच से भी अचंभित थे कि आजादी के बाद की राजनीति में ‘कुछ करने’ का, ‘कुछ बन जाने’ का ज्यादा आकर्षण हो गया था। ‘निराशा के कर्तव्य’ शीर्षक विश्लेषण भी इंसान की फितरत, दुनिया के रुझहान और भारत की समस्याओं के बहाने अपने सिद्धांत और आचरण की आलोचना है। लोहिया राजनीतिज्ञ थे और इस नाते इससे ज्यादा दुखद क्या बोध होगा कि मैं अपने जीते जी बेअसर रहने के लिए अभिशप्त हूँ ! उन्होंने स्वीकार किया था कि ‘लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर। लेकिन मेरे मरने के बाद….’.