वरिष्ठ समाजवादी योगेश पुरी नहीं रहे

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स्मृतिशेष : योगेश पुरी

29 दिसंबर। अभी-अभी खबर आई है कि योगेश पुरी नहीं रहे। उनके न रहने पर हमने सचमुच में अपना एक वरिष्ठ सोशलिस्ट खो दिया है।

1965 -66 में, मैंने जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के किरोड़ीमल कॉलेज में हिस्ट्री ऑनर्स में दाखिला लिया था, तो योगेश भाई वहां पर राजनीतिक शास्त्र विभाग में अध्यापन कर रहे थे। उसी समय हमारे एक अन्य वरिष्ठ सोशलिस्ट साथी मरहूम हरभगवान मेंहदीरत्ता जो बाद में दयाल सिंह कॉलेज में अध्यापक बने, वे भी करोड़ीमल कॉलेज में एमए के छात्र थे। सोशलिस्ट होने के नाते मेरा उनसे तारुफ हो गया, उन्होंने मुझे बताया कि योगेश पुरी भी सोशलिस्ट हैं। उनके बड़े भाई बलराज पुरी जम्मू-कश्मीर के बहुत ही नामवर सोशलिस्ट बुद्धिजीवी हैं। फारूक अब्दुल्ला वगैरह वहां के नेता अक्सर इनसे सलाह -मशविरा करते रहते हैं। दो-तीन दिन बाद ही मेरी उनसे मुलाकात हो गई।

लगभग 56 वर्ष पहले उनसे हुआ संपर्क आखिर तक कायम रहा। योगेश भाई जितने जिस्मानी खूबसूरत थे, उससे कहीं अधिक अपने सलूक, मोहब्बत तथा साथीपन की भावना से ओतप्रोत थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी में जब सोशलिस्ट अध्यापकों ने अपना एक संगठन बनाने का फैसला किया तो उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी थी। संगठन के नामकरण पर विचार में भी उन्होंने कई सुझाव दिए थे।

समाजवादी शिक्षक मंच ने जब पहली बार संगठन बनाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी की एकेडमिक काउंसिल में विनय भारद्वाज को अपना उम्मीदवार बनाया तो एक परिचय छापा गया था, जिसमें बताया गया था कि हमारा संगठन किन उद्देश्यों के लिए बना है। तथा विभिन्न मुद्दों पर हमारी क्या राय है। पर्चे में सबसे ऊपर नामों में योगेश पुरी का नाम भी शामिल था। यूनिवर्सिटी में योगेश पुरी का बेहद सम्मान था, उनके नाम को देखकर बहुत से शिक्षकों में हमारे संगठन के लिए सम्मान पैदा हो गया।

समाजवादी शिक्षक मंच की हर गतिविधि में वे सक्रिय भागीदारी करते थे। वह हमेशा मुस्कुराहट के साथ सभी साथियों के साथ गुफ्तगू करते थे। दिल्ली में वक्त वक्त पर होने वाली सोशलिस्ट सभाओं में वे हाजिर होने का प्रयास करते थे। मैं जो कुछ भी फेसबुक या व्हाट्सऐप पर लिखता उस पर भी वे हमेशा हौसला अफजाई की कोई टिप्पणी या पसंद का संकेत देते थे।

ऐसे वरिष्ठ साथी का बिछड़ना, सोशलिस्ट तहरीक का तो एक नुकसान है ही, मेरे लिए व्यक्तिगत भी है। मैं जानता हूं कि गीता भाभी के लिए तो यह वज्रपात ही है।

अंत में उनकी याद में सिराज-ए-अकीदत पेश करता हूं।

– प्रो राजकुमार जैन

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