मामा बालेश्वरदयाल की वैचारिक जमीन

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— विवेक मेहता —

त्तर प्रदेश के निवाड़ी कला गांव में दीक्षित परिवार में जनमे बालेश्वरदयाल मध्यप्रदेश, गुजरात के भील इलाके में आ गए। भीलों की दुर्दशा देखी और उनके उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगाकर यहीं के हो गए। उन्हें बेगारी प्रथा से मुक्त कराने, शराब की आदत छुड़वाने और मुख्यधारा में लाने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया और ब्राह्मण से भील मामा- यानी सहज सरल मन वाले मामा बालेश्वरदयाल बन गए। मामा जी ने समाजवाद का नारा नहीं दिया उसे जिया भी। मामा जी सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। स्वतंत्रता के पहले संघर्षरत उनके साथी जहां स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार में मुख्यमंत्री बने और उन्हें ही स्वतंत्रता के बाद जेल में डालते रहे।

25 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि थी। उनके प्रशंसक 21 दिसंबर से पदयात्रा करते हुए 25 दिसंबर को बामनिया उनके आश्रम में पहुंचते हैं। उनके ज्यादातर लेख भाषण अब अनुपलब्ध ही हैं। यहां उन्हें वैचारिक धरातल पर समझने का छोटा सा प्रयास है।

“क्षेत्र में मैं भीलों को शुद्ध करने नहीं आया। भीलों को जानने समझने उन्हें आवश्यक सहायता देने, उन्हें अपनी शक्ति की पहचान कराने की नीयत से आया। उनके भूतकाल से मैं बहुत प्रभावित हूं। वर्तमान से दुखी हूं। उनको कुछ भी मदद कर सकूं तो अपने आप को सार्थक मानूंगा।…. मैं भीलों को शुद्ध करके उन्हें किसी दकियानूसी जाति के दलदल में फंसाने के पक्ष में नहीं हूं। न उन्हें ईसाइयत की शरण में जाने देने के पक्ष में हूं। भील भील हैं। वो भील ही रहें। भील इस देश का मूलवासी है। इस देश का आदि शासक रहा है। भील स्वतंत्रचेता और स्वच्छंद जीवन जीने वाला रहा है। अपने उसी स्वभाव के कारण उसे पीढ़ियों पीढ़ियों से कष्ट उठाना पड़ रहा है। जंगल जंगल भटकना उसे स्वीकार है पर गुलामी स्वीकार नहीं। गुलाम बनकर एक जगह बसना और आराम की जिंदगी गुजार देना उसे गवारा नहीं। वह अपने प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने काम के प्रति पूरी तरह से ईमानदार है। मुफ्त का एक दाना भी अपने गले से नीचे नहीं उतारना चाहता। उसे ‘हराम’ मानता है। जो उसका हिस्सा है उसे पाना चाहता है। और वह भी ‘कुछ’ मिल जाता तो उसी से संतुष्ट है। और अधिक उत्सुक नहीं। कष्ट उठा लेता है, धीरज नहीं खोता। भूखा रह लेता है अपनी मस्ती नहीं खोता। उसका विश्वास कितना बड़ा है कि उसके बल पर सब कुछ सह जाता है। मैं उसके संघर्षशील स्वभाव को बनाए रखने और उसमें भविष्य की आकांक्षा जगाने आया। इस जीवट को इस जीवन को राष्ट्रीय धारा से जोड़ना भी मेरा लक्ष्य है। यह साहस बना रहे वह हंसता हंसता सब झेल जाए।”
(मामाजी से डॉ. मंगल मेहता की बातचीत के आधार पर। ‘संघर्ष सपूत- मामा बालेश्वर दयाल’ जीवनी, पृष्ठ- 59)

“…..किसी अज्ञात और व्यवस्थित उद्देश्य को लेकर शिकायत मुझसे की जा रही है कि भील लोग अभी तक चोरी करते हैं, ढोर मार कर खाते हैं, दारू पीकर भूखे नंगे हो जाते हैं वगैरह… पर मैं यह समझ नहीं सका कि इन शिकायतों का जवाब तलब मुझसे क्यों किया जाता है। कारण कि स्वभाव से तो भील या कोई भी समूची जाति चोर नहीं होती। व्यावहारिक हीनता और लाचारी मनुष्य को कुछ से कुछ बना देती है। और कुछेक के दोषों से समुचित जाति को बदनाम नहीं किया जा सकता। वास्ते यह तो समाज व्यवस्था का दोष है कि कुछ लोग इस हद तक गिरा दिए गए हैं और दोष तो तब दूर हो सकता है जबकि विदेशी हुकूमत और उसके अस्तित्व पर टिकने वाली सत्ताशाही इस युग के अनुरूप जनतंत्र के लिए रास्ता साफ कर दे। रहा प्रश्न ढोर मारकर खाने और शराब पीकर बर्बाद होने का, सो इसके लिए रियासती तत्त्व ही जवाबदार हैं जो जबरन भीलों में इस खोटी टेव का प्रचार और प्रोत्साहन करते रहे हैं।….

……. मैं भीलों और किसानों का अन्न खाता हूं वास्ते उनके हितों को लक्ष्य में रखकर चलता हूं और ऐसा करते हुए किसी के स्वार्थ को धक्का लगे और वे नाराज हों तो मैं ईमानदारी के कवच से लैस होकर उस टक्कर को झेलने के लिए तैयार हूं…. ।”
(अक्टूबर 1944 में वायसराय द्वारा बामनिया-इंदौर स्टेट से निष्कासन के बाद अपनी स्थिति स्पष्ट करता हुआ राजस्थान भील सेवक संघ, बामनिया के संस्थापक के तौर पर बालेश्वर दयाल द्वारा वितरित पत्र के अंश)

जातिगत भेदभाव पर उनके विचार

“…..कि भक्त, राज्यश्री मीरा के स्वर्गीय संदेश- पारस जनम की विचार बुलंदी पर भी विचार करें कि भक्तों ने पारस के गुण का कहां तक पालन किया। जिन्हें पारस बना सकते थे उन्हें थोथे अभिमान के चक्कर में चमार, कुम्हार, हरिजन और कहार कह कर मसल देने पर कमर कसी। नतीजा यह हुआ कि राजदरबार में खुद ही अल्पसंख्यक अछूत बन गए और आज पारस की उस विशाल बिरादरी में मिलने से शर्माते हैं। दूसरी ओर वह मीरा थी जो जात से राजपूत, पर पांत पसंद की लोहारों, चमारों, बंजारों की। वन पर्वत की धूल छानती, अमरत्व का संदेश देती, वह तो असंख्य टूटे मन की मौलिक मणियों की नेता बन गई।”

(‘राजपूती कट्टरता और मुस्लिम स्फूर्ति’ भाषण/लेख के अंश)

मानपुर में जब निहत्थे लोगों पर गोली चलाई गई और उन्होंने विरोध किया तो सरकार ने जेल में डालने की धमकी दी। तब मामाजी ने आह्वान किया था –
‘नाहर इना जोर ती भोजन पावे हे। और कुतरा पूंछड़ा हिलावी ने ऐठों बटको खावे हे। किसान भाई अपना हक वास्ते लड़ी रिया हे। वीने ढीलों पाड़वा वास्ते राज वाला परचार करे हे के तमारा मामाजी तो पकड़ाई गया हे। तो तमारे चेतावनी हे के जेल और मारपीट तो घणी खादी हे पर आखर बात म्हारीज खरी उतरी। राज वारा हारी गया। ओर हजू तो म्हने कोई पकड़वा आवे नी हे पण जो कदी पकड़ाई भी जाऊंगा तो म्हने भरोसो हे कि घणां छाती ठोकी ने जेल में आवा तैयार रेगा। कोई निडर धमकी में आवेगा नी। या तो लड़ाई हे और लड़ाई मरद को खेल हे। मरद जुलुम को सामान करे हे। नामरद लुगाई के माफक घर में रोवे हे।
(पंचायती राज 10/11/1948 के अंक में)

“…..भूख दुनिया का सबसे बड़ा भूत है जिस पर रोटी के सिवा कोई भी आज तक विजय प्राप्त नहीं कर सका।….”
(24 फरवरी 1951 को राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी को लिखे प्रतिवेदन से)

“…..कभी-कभी दिल अहंकार के उतार में ठंडी सांसें लेता है कि पारिवारिक सुख हराम करके औरों के लिए क्यों और कितनी मुसीबत गले में रखें। दिमाग ताना मारता है कि ऐसा था तब किसी मठ या मस्जिद के मसीहा बनकर आराम की जिंदगी गुजारनी थी। इस ताने के साथ तसल्ली भी देता है कि भगवान और शैतान के दोनों छोर छोड़कर इंसानी हस्ती की बुलंदी के लिए इतने दिन तपस्या की तो आधुनिक युग से ही सबक सीखो, हवा पानी चीरकर आकाश में हल्की उड़ान से संतुष्ट नहीं रहा, अब वह 18000 मील फी घंटा की चाल से चंद्रलोक और दीगर ग्रहों में भी सैर-सपाटे के जतन में लीन है। तुम तो पृथ्वी और प्रकृति के स्वामी हो, मिथ्या आराम के गुलाम मत बनो, गति ही जीवन है, शून्य का नाम मृत्यु…..”
(चौखंबा 16/9/ 58 के ‘दिल दिमाग की दोस्ती-दुश्मनी’ लेख से)

बहुत कठिन, मुश्किल, परेशानी भरा जीवन जीते हुए वे इसी इंसानी हस्ती को बुलंद करने के लिए संघर्षरत थे। 1957 में जब अखिल भारतीय राजनीतिक संस्था के अध्यक्ष थे तब के एक पत्र में लिखा था –
“…..नोन तेल लकड़ी की चिंता में बाहर नहीं निकल सका।…….. उसकी अहमियत में मुझे पूर्ण विश्वास है पर कहां तक पूरी कर सकूंगा मेरा मन ही जानता है कि आज जब पत्र लिख रहा हूं पिछले 5 दिन से ऐसी हालत है कि एक वक्त कच्चे मक्की के भुट्टे सेंक कर और दूसरे टाइम रोटी से कुछ पेट भर कर गुजर चल रही है तो भी उस दिशा में कुछ करूंगा। न कर सका तो अकर्मण्य मान लूंगा और सजा स्वीकार कर लूंगा…..”

पूंजीवाद, क्रांति, किसान, मजदूर को लेकर उनके विचार बहुत स्पष्ट थे और आज की स्थिति में भी वह सही बैठते हैं।
“मनस्विता की आग बुझा हुआ मनुष्य कितना ही माया संपन्न क्यों न हो जावे, अपनी वासना या कामना के लिए कोई राम उस मायामृग का शिकार तो करता ही है। इस लाचारी और शिकारी के विरुद्ध अगर कोई सामाजिक दर्शन सामूहिक हिलोर पैदा करके दलितों को बुलंदी की दिशा में ले जा सकता है तो वह है वैचारिक क्रांति; जिसका साधन है सामूहिक हिलोर वाली सिविल नाफरमानी, सत्याग्रह, अन्याय का प्रतिकार। इसका एक ही सूत्रोच्चार अपने आप में पूर्ण है- न मानेंगे, न मारेंगे।”
(चौखंबा 16/2/1960 में ‘दो कल्पना दो क्रांति’ लेख )

“….पूंजीवादी सभ्यता ने सदियों से इंसानी स्वभाव में शोषक और शोषित के नाते रिश्ते कायम कर दिए हैं। पहला अल्पसंख्यक है पर होश में है। दूसरा बहुसंख्यक है पर उतना ही मदहोश। पहला अपनी शक्तिसंख्यक कानूनी कमजोरी समझता है। संकट के मुंह में फंसा होकर भी संगठित शक्ति से अपनी रक्षा कर रहा है। पूंजीशाहों की यह क्रिया फौजीशाहों की तरह संगठित और कठोर रहा करती है। दूसरा जो बहुसंख्यक है वह इस कदर अंधा और अहदी बन गया है कि अमेरिकी और रूसी औलाद की खच्चर सभ्यता से चाचा नेहरू की हिकमतअमली में हिलोरिया लेकर उसे कभी किस्मत और कभी कलयुग के पालने में पशु बनाकर झूला रही है।…”
(‘राजपूती कट्टरता और मुस्लिम स्फूर्ति’ लेख)

“संपत्ति को समूचा समेट लेने या विपत्ति को मूलतः निरस्त करने के विभिन्न इरादों से ही संगठन बनाए और बलवान किए जाते हैं।…. आज हम जिन हालातों में जीवित हैं देखते हैं कि सदियों से ही पूंजीवादी संगठन सचेतन बनता जा रहा है और मध्यमवर्गीय मशीन के मार्फत उसने किसानों के सामाजिक और आर्थिक शोषण को ऐसी चरम सीमा पर पहुंचा दिया कि जिन कुटियों और वनों से इस देश की सभ्यता का निर्माण हुआ था वह आज गर्वीले जगत द्वारा गंवार कहे जाने लगे और जहां इस तहजीब का गला घोंटा गया वे सभ्य माने जाने लगे।……. उस तथाकथित सभ्यता ने दोपाये को चौपाया बनाना शुरू किया।…. ‘कोउ नृप होउ’ के गुलामी के गीत ने किसानों की बुद्धि और कला को इतना कुंठित कर दिया कि आज वह जरखरीद गुलाम बनकर दिन-रात परिश्रम करता है और अपने ही उत्पादन के मूल्य निर्धारण का उसे अधिकार नहीं रहा। वह सरकार का हाली हरवाह (मजदूर) मात्र है।”
(1954 में बेटमा में दिया अध्यक्षीय भाषण)

वर्तमान राजनीतिक परिवेश और समाज की स्थिति का इससे बढ़िया चित्रण क्या हो सकता है।

“जनतंत्र में मतदाता समाज का सर्जक है। मन समाज का राजा है। धन सरकारी दीवान है। धन द्वारा मन जीतने की क्रियाएं कामयाब तभी होती हैं जब जागरूक मन के अभाव में राजा गुलाम बन जाता है। ऐसी मन:स्थिति में निहित स्वार्थ वाली शक्तियां वोट द्वारा सरकार पर कब्जा कर लेती हैं और धन का मनचाहा इस्तेमाल करके मन के विकास को रोकने की कोशिश करती हैं। उस स्थिति में सचेत मन के व्यापक प्रभाव को जगाने की जरूरत रहती है। जागरूकता की इस क्रिया का नाम विचार क्रांति है। यही विचारक्रांति रक्तक्रांति को निष्फल करती है।”
(क्रांति कैसी- लेख का अंश)

अपनी मृत्यु के बाद अपने विचारों और कार्यों से आदमी जीवित रहता है, मामा बालेश्वरदयाल उसका जीता जागता सबूत हैं।

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