धर्म का सबसे अच्छा और सबसे बुरा पहलू

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

— किशन पटनायक —

र्म आस्था पैदा करता है। धर्म से मुक्ति पाने के लिए आस्था का कोई दूसरा स्रोत पैदा करना होगा। धर्म देवी-देवता के माध्यम से आस्था पैदा करता है। भगवान या देवताओं के साथ अपने को जोड़कर मनुष्य को लगता है कि ब्रह्मांड में उसका एक स्थान है, वह निरर्थक नहीं है। बुद्ध एक धार्मिक पैगंबर थे। बगैर भगवान के उन्होंने आस्था पैदा की, एक धर्म पैदा किया। लेकिन यह चल नहीं सका। भारत में तो बिलकुल नहीं चल सका। दूसरे देशों में भी तब चला जब उनके शिष्यों ने बहुत-से देवी-देवता बना लिये।

आधुनिक भारत में बुद्ध को नास्तिकों और हरिजनों ने अपनाया है, जैसे मार्क्सवादी राहुल सांकृत्यायन, समाजवादी नरेन्द्रदेव और कृष्णनाथ तथा हरिजन नेता आंबेडकर। भविष्य की दुनिया के धर्म के लिए बुद्ध से बार-बार प्रेरणा मिलेगी क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को आस्था की जरूरत है, लेकिन हरेक के लिए भगवान की जरूरत नहीं है। हमारा मत है कि गांधीजी कभी-कभी भगवान को मानते थे और कभी-कभी नहीं मानते थे; जो कहता है भगवान ही सत्य है, वह भगवान को मानता है, लेकिन जो यह कहता है कि सत्य ही भगवान है, वह निश्चय ही भगवान से दूर हट रहा है।

सत्य को कठोरता से ढूँढ़ने वाले लोगों को भगवान की जरूरत नहीं होगी। लेकिन साधारण मनुष्य के लिए यह कठिन और असंभव है। उच्चकोटि का संगीत और साहित्य भी आस्था पैदा करते हैं। आधुनिक युग की विडंबना यह है कि भगवान पर विश्वास कमजोर हो रहा है (यह अनिवार्य है), लेकिन उच्चकोटि का संगीत और साहित्य भी लोकप्रिय नहीं हो रहा है (संगीत और साहित्य मनुष्य की संवेदना का विस्तार कर उसमें मूल्य पैदा करते हैं जिनसे वह आस्था प्राप्त करता है), इसलिए आधुनिक मनुष्य आस्थाहीन बन रहा है।

अभी तक हमने देखा कि धर्म मनुष्य को ब्रह्मांड में स्थान देता है- यह धर्म का पहला काम है। धर्म का दूसरा पहलू है भगवान, लेकिन यह हमेशा जरूरी नहीं है। तीसरा पहलू है, आचरण की शिक्षा और नियम या नीतिशास्त्र।

रोम और चीन की सभ्यताओं ने नीतिशास्त्र या कानून की पद्धति को देवी-देवताओं से भी अधिक महत्त्व दिया। आज भी कम्युनिस्ट चीन के लिए कनफुशियस के नीतिशास्त्र को समाप्त करना मुश्किल हो रहा है। रोम और चीन के लोगों ने देवताओं को छोड़कर आचरण के नियम बनाए। लेकिन ईसा या मुहम्मद ने भगवान के साथ जोड़कर आचरण के नियम बनाए।

दरअसल बात यह थी कि जब इन पैगंबरों ने काम शुरू किया तो समाज बहुत अनैतिक और अव्यवस्थित था; एक नए नीतिशास्त्र की जरूरत थी। मुहम्मद के समय के बारे में कहा जाता है कि एक मर्द बीसियों या सैकड़ों औरतों को रख लेता था। पैगंबर मुहम्मद ने इस पर पाबंदी लगाकर चार बीवियाँ रखने तक की इजाजत दी। यह बहुत अच्छी बात हुई। भगवान या ब्रह्मांड से इसका कोई संबंध नहीं था। समाज को व्यवस्थित और अनुशासित करने के लिए चार बीवी की पाबंदी बहुत अच्छी थी, लेकिन आज की दुनिया में चार बीवियाँ भी गलत हैं। यह औरत की आजादी के खिलाफ है; इसको बदला जाना चाहिए। परंतु मौलवी लोग कहेंगे कि चार बीवी की प्रथा का समाज और प्रगति से कोई मतलब नहीं है- अल्लाह और जन्नत से इसका संबंध है; इसलिए इसको नहीं बदलना चाहिए।

धर्म के नीतिशास्त्र ने जहाँ इस प्रकार की विकृत और क्रूर प्रथाओं को बना रखा है; वहीं उसने कुछ व्यक्तियों में नैतिकता और मानवीय गुणों को चोटी तक पहुँचा दिया है। गुरु तेगबहादुर का त्याग, मीरा का समर्पण, हरिश्चंद्र का दान, ईसाई संतों की कष्ट-सहिष्णुता- ये मनुष्य की नैतिकता की यानी जीवन की कला की सर्वोच्च चोटियाँ हैं।

क्रांतिकारी आंदोलन के लोग बार-बार धर्म के इस पहलू से प्रेरणा लेते हैं। लोहिया ने पूछा कि वह कौन सी ताकत थी जो ईसाई धर्म को बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही। मार्क्स के सहयोगी एंगेल्स ने ईसाइयों के त्याग की तुलना कम्युनिस्टों के त्याग से की है। लेकिन यहां यह समझ लेना होगा कि इस प्रकार की नैतिकता किसी धर्म के नीतिशास्त्र का परिणाम नहीं है; धर्म का नीतिशास्त्र तो महज औपचारिकता है।

धर्म के असर से कभी-कभी आस्था इतनी गहरी हो जाती है कि मनष्य की भावनाएँ महान और उदात्त हो जाती हैं- इसी से नैतिकता की चोटी बनती है। धर्म का यह पहलू अत्यंत सुदंर और मानवीय होता है, लेकिन धार्मिक नीतिशास्त्र का प्रभाव अत्यंत क्रूर और कुरूप होता है और धर्म का सबसे बुरा पहलू यही है। जब हिन्दू धर्म अति रूढ़िवादी हो गया तो औरत की बात तो क्या, मर्द तक के घूमने-फिरने पर पाबंदी लग गई- वह विदेश नहीं जा सकता था क्योंकि म्लेच्छों को छू लेने से, उनके साथ खान-पान से वह अपवित्र हो जाएगा। ऐसा धर्म मानने वाला समूह दुनिया में गतिशील कैसे हो सकता है, जब वह धर्म द्वारा पंगु बना दिया गया हो?

धर्म की अमानवीयता और क्रूरता सबसे अधिक औरत के संबंध में है। औरत को बंधन में रखने के लिए धर्म का सहारा लेना पड़ा; बगैर धर्म के औरत केवल मर्द के बल-प्रयोग के आगे झुक सकती थी।

ईसाई, इसलाम और हिन्दू- ये तीनों दुनिया के सबसे बड़े धर्म हैं; ये औरत को नीच मानते हैं, भोग की वस्तु मानते हैं। भोग की वस्तु है; इसलिए न सिर्फ उस पर पाबंदियाँ लगाते हैं बल्कि उससे परहेज रखने का नियम मर्दों के लिए बनाते हैं। परहेज, संयम, सतीत्व- इन अवधारणाओं के पीछे धर्म की यही मान्यता है कि नारी भोग की वस्तु है और भोग गलत चीज है; इसलिए नारी को सिर्फ बच्चा पैदा करने यंत्र मानना चाहिए। यह मान्यता इतनी गलत है कि धर्म ने यौन संपर्क को एक विकृत और गंदी चीज बना दिया है। यह कोई अचरज की बात नहीं कि धार्मिक समाजों में वेश्यावृत्ति का सबसे अधिक प्रसार है। विडंबना यह है कि धर्म नारी के प्रति क्रूर है लेकिन नारी अपनी असहाय अवस्था में धर्म को अपनी सुरक्षा का स्रोत मानती है; मर्द की तुलना में वह धर्म के ऊपर अधिक निर्भर रहती है।

क्रांतिकारी आंदोलन को देर-सबेर धर्म के खिलाफ या धर्म के कुछ पहलुओं के खिलाफ संघर्ष करना पड़ता है। धर्म के अंदर भी हमेशा रूढ़िवादियों और उदारवादियों के बीच संघर्ष चलता रहता है। क्रांतिकारी आंदोलन के साथ-साथ उदारवादी धारा मजबूत होती है।

धर्म का विरोध अपने में एक विद्रोह है, लेकिन सामाजिक क्रांति में धर्म को बिलकुल नकारना संभव नहीं होता है क्योंकि साधारण आदमी के लिए धर्म ही आस्था पैदा करने वाली वस्तु है। क्रांतिकारी आंदोलन उसको धर्म छोड़ने के लिए कैसे कहेगा? इसलिए क्रांतिकारी आंदोलन की तलाश यह होती है कि धर्म की उदारवादी धारा को मजबूत किया जाए यानी मंदिर तोड़ने की बात न हो, लेकिन मंदिर में हरिजन प्रवेश हो। विष्णु या शिव की पूजा का विरोध न हो, लेकिन जाति-प्रथा खतम हो; शादी-विवाह हो लेकिन पुरोहितवाद और तिलक-दहेज खतम हो।

क्रांतिकारी खुद अपने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ रूढ़ियों से मुक्त होगा बल्कि उसको पूजा-पाठ और ईश्वर से भी मुक्त होना चाहिए। जनेऊधारी या पुरोहित बुलानेवाला व्यक्ति क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थक हो सकता है, लेकिन वह खुद क्रांतिकारी नहीं है। ईश्वर के संबंध में क्रांतिकारी नास्तिक होगा। लेकिन नास्तिकता अकसर एक सतही भावना है। किसी भी नास्तिक के बारे में यह जानना चाहिए कि वह किन मूल्यों को शाश्वत मानता है। मनुष्य मात्र या जीव के प्रति उसकी कितनी करुणा है- इन आस्थाओं के बगैर नास्तिक का समाज के लिए कोई उपयोग नहीं है।

कुछ लोग भगवान के रूप में उस शक्ति को मानते हैं कि जिसको विज्ञान द्वारा समझा नहीं जा सकता है। प्रकृति और जीवन, सारी सृष्टि का कोई महान उद्देश्य होगा और यह उद्देश्य अपने में एक चालक शक्ति होगा- जो लोग ईश्वर को इस रूप में देखते हैं, वे पूजा-पाठ नहीं करते या मंदिर नहीं जाते। इस विश्वरूप का ध्यान करने से ही उनका मन उदात्त और संवेदनशील होता है। वैज्ञानिक आइनस्टाइन या दार्शनिक ह्वाइटहेड ईश्वर को एक प्राकृतिक शक्ति के रूप में ही समझ पाते हैं। यह भी नास्तिकता है। धर्म के ईश्वर से यह बिलकुल अलग है।

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