विमल कुमार की सात कविताएं

0
पेंटिंग : मज़हर निज़ार


1. नए साल पर

मैं सिर्फ तारीख नहीं हूँ
जो बदल जाता हूँ
मैं अपने समय का इतिहास भी हूँ
जो बीतता रहता हूँ
न जाने कितने ज़ख्मों को लिये हुए
कितने टूटे पंखों को बटोरे
कितने स्वप्न और पुल ध्वस्त हुए

मैं सिर्फ तारीख नहीं हूँ
कैलेंडर का
मैं बदलता हूँ
तो तुम भी थोड़ा बदल जाते हो
थोड़ी धूल तुम्हारे चेहरे पर जमा हो जाती हैं
कभी कभी कोई खुशी तुम्हारी आँखों में चमक जाती है

मैं बीतता हूँ घड़ी के भीतर
तो तुम भी थोड़ा बीत जाते हो
थोड़ा तुम्हारा प्लास्टर भी झर जाता है
एक दीवार की तरह तुम भी गिर जाते हो
एक दरवाज़े की तरह काँप जाते हो

मैं सिर्फ तारीख नहीं हूँ
कैलेंडर तुम जरूर बदल देते हो
मुझसे एक उम्मीद लिये हुए
कि अब सब कुछ ठीक होगा
बीतेगा सब कुशल मंगल से

लेकिन तुम्हें कैसे बताऊँ
अपनी व्यथा
मैं नहीं हूँ निरपेक्ष
सब कुछ मेरे हाथ में नहीं है

मुझे भी कोई गढ़ता है
मुझे भी करता है कोई नियंत्रित
मैं सब कुछ तय नहीं करता हूँ
घड़ी के भीतर जरूर बैठा रहता हूँ
पर उसकी केवल टिक टिक भर नहीं हूँ
मैं सिर्फ तारीख नहीं हूँ
एक तोते की तरह मेरी जान भी अटकी रहती है
किसी के हाथ में
मैं सिर्फ तारीख नहीं हूँ
एक त्रासदी भी हूँ
एक विडंबना भी हूँ एक चिंगारी भी
तुम्हारे सीने में छिपी हुई।

2. रंग कथा

बिखर गये हैं
अब सारे रंग
मेरी यात्रा में
एक रंग गिरा था
मेरी जेब से
उसे झुक कर उठाया
तो मेरे सपने का रंग ही गिर गया
हो गया वह सड़क पर गिर कर
खून का रंग

इस खंडहर की दीवारों पर
अब कोई रंग नहीं है बचा
झरते हुए पलस्तर के नीचे
तुम्हरी स्मृतियों का धूसर रंग था
इसलिए अब कोई रंग नहीं
मेरी किसी स्मृति में
सब बिखर गये हैं

जिन्दगी भर भरता रहा घड़ी में
रंगों की चाबी
और घड़ी है
कि रुकी पड़ी है
कई सालों से
एक रंग मरा हो अस्पताल में तो बताऊँ
आखिर कौन
दफन कर आया है
मेरे इन रंगों को
अस्पताल से ले जाकर
झरते हुए फूलों के किसी सुनसान बगीचे में.

3. वृक्ष को दूर से नहीं जानो

कई बार तुम एक वृक्ष को देखते हो
और उसे समझने की कोशिश करते हो
कभी उसके नजदीक जाकर
छूते भी हो

कभी उससे दूर होकर
देखते भी हो

उसके एक पत्ते से
उसके फल से
उसकी टहनियों से
उसकी जड़ों से
उसकी छाया से
जानोगे तुम
तो वृक्ष को ठीक से पहचानोगे.

4. समंदर के बारे में एक अधूरा इतिहास

अगर मैं होता पानी का जहाज़
तो तुम्हारी कथा जरूर लिखता
होता अगर एक छोटी सी भी लहर
तो तुम्हारी व्यथा जरूर लिखता

एक घड़ियाल भी नहीं हूँ
तुम्हारे अन्तःस्थल को जान सकूँ ठीक से
एक शंख भी नहीं हूँ
कि तुम्हारे भीतर क्या छिपा है
उसे पहचान सकूँ ठीक से

न हूँ कोई किनारा
न तुमने ही मुझको कभी पुकारा
फिर भी लिख रहा हूँ
इतिहास तुम्हारा

लेकिन लिखूं तो कैसे
तुम्हारी भाषा भी नहीं समझता
हर रोज तुमसे मिलकर
मैं अपने भीतर थोड़ा और उलझता

अगर मैं रेत भी होता
तो लिख सकता जरूर तुम्हारी कोई जीवनी

तुमने अपनी कोई आत्मकथा भी तो नहीं लिखी
तुम्हारे ख़त भी नहीं किसी के नाम

तुम्हारी डायरी भी उपलब्ध नहीं है
किसी अखबार को तुमने इंटरव्यू भी नहीं दिया है
आज तक

कुछ कविताएँ जरूर हैं तुम्हारे बारे में लिखी हुई
कुछ चित्र तुम्हारे बारे में देखे हैं
कुछ वृत्तचित्र भी हैं

लेकिन बहुत मुश्किल है
लिखना तुम्हारे बारे में
किसी शाम आते तुम मेरे घर
तो तुम्हारे साथ एक कप चाय पीते हुए
गपशप करते हुए
पूछ लेता तुम्हारी ज़िन्दगी के बारे में कुछ सवाल
तुम्हारा उत्तर ही मेरे लिए
क्या होता पूरा इतिहास

पेंटिंग- तपाज्योति

5. नहीं आया वसंत

बुलाता ही रह गया मैं उसे
हाथ हिलाकर उसे
देकर अपनी आवाज़

कहा उसने भी था
कि वह आएगा
एक चिट्ठी भी उसने लिखी थी मेरे नाम
जिसमें वादा किया था उसने साफ़ साफ़
कि वह फलां दिन आएगा

नहीं आया वसंत
बादल भी कहाँ आये थे
पिछली बरसात में

अब कोई आता नहीं है
सिर्फ देता है झूठा दिलासा

धूप भी कहाँ आयी थी
शरद ऋतु में
रात भी कर गयी थी
मुझसे गले लिपटने का वादा

शाम ने भी कहा था धुत नशे में
मुझे देगी वह एक नीला चुम्बन

वे भी थे
सत्ता के नशे में ही
जो एक बार आते थे
तो फिर नहीं कभी आते थे

वसंत नहीं आया
अखबार में सिर्फ आया
उसका एक विज्ञापन
कि वह आ रहा है
एक खिला हुआ फूल लेकर
अपने हाथों में वृक्ष करते रहे प्रतीक्षा वन में.

6. क्या क्या बना दिया तुमने

मैं वृक्ष ही बनना चाहता था
पर ऐ खुदा
तुमने मुझे पत्थर बना दिया

मैं बादल बनना चाहता था
पर तुमने मुझे रेत बना दिया

हर जन्म में तुमने मुझे
वह नहीं बनाया जो चाहता था बनना

चाहता था मैं खरगोश बनना
पर तुमने मुझे शेर बना दिया
अब जंगल जंगल भटक रहा हूँ

नहीं चाहता हूँ
मेरे भीतर कोई हिंसा हो
कोई लालच
कोई वासना
कोई भूख
शांति से अब चाहता हूँ जीना

पर खुदा तुमने मुझे क्यों आदमखोर बना दिया

चाहता था एक इंसान बनना

पर क्या था मेरा कसूर
कि तुमने मुझे मेरे भीतर
एक शैतान भी बना दिया.

7. फिर से जीवन

नहीं बैठा था मैं
किसी चौराहे पर
न ही किसी प्लेटफार्म पर
न ही किसी मंदिर के किनारे
पर भिखारी ही था मैं

हाथ में नहीं था कोई भिक्षापात्र
न पुकारता था हाथ पसारे किसी को
न देखा कातर नज़रों से
किसी को झुक कर

मौन ही था अब तक
जीवन में
वंचित भी
बहिष्कृत भी

कोई सोच भी नहीं सकता था
कि सड़क पर जो जा रहा है चुपचाप
वो एक भिखारी ही है
रंगों में
चित्रों में
शब्दों में
रागों में
धुनों में
नृत्य में
अभिनय में
क्या मांग रहा था
जिसे समझ नहीं पाए
तुम अब तक

पेड़ों से छांह मांगते हुए
नदी से पानी
सूर्य से थोड़ी धूप
आसमान से विस्तार
पहाड़ से धीरज

कितना कुछ मांग कर
बिताई इतनी उम्र

मांगता रहा भीख ही
मृत्यु से
दे दो तुम
कुछ और मोहलत
दुनिया में
जी सकूँ
फिर से
ये जीवन
जो नहीं जी पाया
अपने समय में
अब तक.

Leave a Comment