— ध्रुव शुक्ल —
महात्मा गांधी ने कविता नहीं लिखी पर उनके चरित से कविता का वह आलोक झरता रहा, जिसकी आभा में शब्द युगानुरूप अर्थगौरव से भर उठते हैं।
किसी कवि की कविता पढ़कर यह ज्ञान सहज ही होने लगता है कि उसने जीवन का स्वाद किस तरह चखा है। इसी तरह किसी के जीवन को देखकर यह पता चल ही जाता है कि उसके जीवन में कविता किस तरह बसी हुई है। कवि और कविता के पाठक की जीवन-शैली ही किसी काव्य दृष्टि में रूपांतरित होती होगी। कविता और जीवन एक-दूसरे में इस तरह घुले-मिले हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
साहित्य के आचार्यों की दृष्टि में कविता और उपासना दोनों ही भाव साधनाएं हैं। दोनों में ही सत्य की प्रतिमा गढ़ी जाती है। जिसमें निश्चय ही पूर्ण सत्य का दर्शन नहीं होता पर सत्याग्रह अवश्य होता है। महात्मा गांधी कविता की प्रयोगशाला में अपने आपको परखने की कला विकसित करते हैं और इस कला में सबके जीवन की भूमिका का आह्वान करते हैं। वे उन निर्भय देहों को पुकारते हैं जो अहंकार को त्यागकर संचय विमुख हो सकें और अपनी ज़रूरत के साधन पाकर जीवन को परस्पर आश्रय में भोग सकें। बापू सबके जीवन में इसी तरह कविता को चरितार्थ करने के उपाय सुझाते हैं।
बापू के जीवन में अतीत को कोसने और अनजाने भविष्य को पोसने की जगह कभी नहीं रही। वे तो जीवन को उस वर्तमान को सौंपना चाहते हैं जो अभी ही कर्मकुशलता से भरा हुआ है। वह तो नश्वरता के बोध से भरा जीता-जागता पल है जहां सब मिलकर ऐसी कर्मकुशल काव्यमय प्रार्थना रच सकते हैं जो सबके जीवन को संयम की प्रतीति में डुबा सके।
महात्मा गांधी बीसवीं सदी के उस पुरुषोत्तम नवीन जैसे हैं जिसे कविता की रसात्मक अनुभूति और गुणगान ही एकमात्र सहारा है। वे अकेले लोकनायक हैं जिनका काम किसी एकाध तराने से नहीं चला। उन्हें तो कई समयों में रची गयी बहुत-सी कविता की ज़रूरत पड़ी — कबीर, सूरदास, तुलसीदास, मीरा, नानक, रैदास, नरसिंह मेहता, तुकाराम, नज़ीर, बंकिम चटर्जी और रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएं बापू की प्रात:सायं प्रार्थनाओं में शामिल हो गयीं। गांधीजी ने ऐसे लोक प्रचलित गुणगान चुने जो सबकी सांसों की लय में गूंजकर जीवन की लौ ऊंची उठाये रख सकें।
लोग जीते-जी कोई न कोई कविता पढ़ते ही हैं और जब मरने लगते हैं तो फिर उसे ही सुनने की इच्छा करते हैं। कोई भूला-बिसरा गीत फिर सुनना चाहते हैं। मृत्यु की गहराई में उतरते हुए उस गीत को साथ ले जाना चाहते हैं। कामनाओं से भरे जीवन में कविता से बड़ा सहारा कोई दूसरा नहीं। कविता औषधि जैसी है जो जीवन भर मानस रोगों का उपचार करती है। वह एक शब्द — राम — जिसके काव्य चरित में सबके जीवन की कविता बसी हुई है, बापू उसे जीते-जी और अपने देहावसान के समय भी नहीं भूले। कविता की अंगनाई में किसी वाद और आदर्श का बंधन नहीं, बेहद का मैदान फैला है जिसमें सबका होना ही दिखायी देता है। महात्मा गांधी ने स्वराज्य को पाने का मार्ग कविता में ही खोजा। उनका सत्याग्रह जीवन में कविता के पुनर्वास जैसा है।