सबका जीवन ढाई अक्षर का

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पेंटिंग : बिंदु प्रजापति


— ध्रुव शुक्ल —

लख और इलाही के बीच कभी कोई बहस हुई हो, इसका कोई इतिहास ही नहीं मिलता। सिवा इसके कि ये एक होते हुए भी दो नाम भर हैं। पर इन्हें मानने वाले इन पर सदियों से बहस करके भ्रमित होते रहे हैं। अभी कल-परसों से बाबा आदम के ज़माने से चली आ रही यही बहस फिर छिड़ गयी है जो सद्भाव से नहीं, भेदभाव से भरी हुई जान पड़ती है। यह बहस राजनीतिक ही लग रही है, आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं। बीते समय में हिन्दुओं और मुसलमानों को बीच बहस में निर्भय होकर टोकने वाले लोग भी होते रहे हैं। पर ये दोनों उनके उपदेश पर अब तक कान न धर सके। इन्हें फटकारने वाले लोग ही थक गये और उन्हें यह कहना पड़ा कि — ‘इन दोउन राह न पाई’।

भारत के मध्यकालीन इतिहास में इन दोनों को टोकने वाले संतों में कबीरदास की उस फटकार को कोई अब तक शायद भूला नहीं होगा जिसमें उन्होंने संतों को संबोधित करते हुए दोनों से ही कहा है कि —

संतो देखो जग बौराना।
केतिक कहौ कहा नहिं माने, आपहि आप समाना।
हिन्दू कहै मोहिं राम पियारा, तुर्क कहे रहिमाना।
आपस में दोउ लरि-लरि मूए, मरम न काहू जाना।
बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ें कितेब कुराना।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
नेमी देखे धरमी देखे, आतम खबरि न जाना।
गुरू और चेला दोऊ डूबे, अन्त काल पछताना।
कहहिं कबीर सुनो हो संतो, ई सब भरम भुलाना।

कबीर की बानी दोनों के अनुचित सामाजिक क्रियाकलापों और मज़हबी पाखण्डों के ख़िलाफ ललकार बनी और वह आज भी सबके मन में गूंजती है। शायद इसीलिए यह सिद्ध नहीं हो पाया कि कबीर हिन्दू थे कि मुसलमान थे। कबीर खु़द ही अपना और सबका नाम-पता बताते हुए जो कह गये हैं, वही इन्सानियत के लिए सच है —

हम वासी उस देस कौ, जहॅं जाति बरन कुल नाहिं।
शब्द मिलावा होय रहा, देह मिलावा नाहिं।
जाति हमारी आत्मा, प्रान हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम।

अब विचार करें कबीर के उस ढाई अक्षर के प्रेम पर, जिसे पढ़ने से हर कोई उस सांचे शब्द को पहचान सकता है, जिसके सहारे इस संसार की पैदाइश की एक कहानी कही गयी है। ॐ (ओमकार) में पूरा ‘अ’ तो सबको पोषण देने वाली ऊर्जा का प्रतीक है। पूरा ‘उ’ इस संसार के संहार का प्रतीक है और आधा ‘म्’ संसार को रचने वाली शक्ति का प्रतीक माना गया है। ओंकार एक अनाहत ध्वनि से रचा गया ढाई अक्षरों का संयुक्ताक्षर है। आशय यह है कि सृष्टि में सबके जीवन का स्रोत किसी अनाहत ध्वनि में छिपा हुआ होगा। जिस किसी भी कारण से यह ध्वनि आहत हुई होगी, उसी से मनुष्य या कहें आदमी सहित सभी प्रकार के प्राणी उत्पन्न हुए होंगे, अब तक होते आ रहे हैं। उनका होना और जीना-मरना सबको साफ़ दिख रहा है।

मनु और आदम को मानने वाले बंदों को अपनी ही पैदाइश के अनुभव से यह सत्य अब तक ज़रूर पहचान लेना चाहिए कि हम हिन्दू और मुसलमान तो जन्म लेने के बाद कहलाने लगते हैं। दरअसल हमारे प्राणों की कोई जाति और रंग नहीं होता। किसी पण्डित -मौलवी को मालूम हो तो बताये। हम जिस किसी भी मज़हबी शरीयत और संहिता को मानने वाले समाज में संयोगवश पैदा हो जाते हैं, वह समाज जन्म लेते ही हमारे जिस्म को अपने मन के रंग में रॅंगने लगता है। कोई राम कहलाने लगता है कोई रहीम बन जाता है। कोई मंदिर जाता है, कोई मस्जिद जाने लगता है। पर दोनों के प्राणों का रंग क्या है, इसका विवेक करने पर पता चलता है कि किसी के प्राण किसी रंग में नहीं रॅंगे जा सकते। सबके प्राणों का कोई रंग नहीं। यही कारण है कि किसी के प्राण लेने से मन आज भी सकुचाता है।

सबका जन्म ढाई अक्षर का है – आधे अक्षर (म्) से सबका जन्म होता है। एक पूरा अक्षर (अ) सबका पालन-पोषण करता है और फिर किसी दिन एक पूरा अक्षर (उ) ही जीवन को न जाने कहाॅं उठा ले जाता है। किसी की मृत्यु का कोई रंग नहीं होता। सिर्फ़ ज़िन्दगी जिस रंग में रॅंग दी जाती है, वह जीते जी उस रंग की दिखायी देने लगती है। वह अपने रंग के झण्डे के पीछे भाग-भागकर दूरियां ही रचती है। सबसे प्राणों की एकता नहीं साध पाती।

हर आदमी में जन्म से ही यह खूबी है कि वह दुनिया में आकर अपना नेतृत्व ख़ुद कर सके। पर उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि उसे उन रंगबिरंगे झण्डों की छाया में जबरन खींच लिया जाता है जिन्हें कुछ मज़हबी और राजनीतिक नेता आदमी को अपने बाड़े में क़ैद किये रहने के लिए उठाये फिरते हैं। अगर कोई भगवान और ख़ुदा है तो उसे अपनी सत्ता बचाये रखने के लिए किसी हिन्दू-मुसलमान का वोट नहीं चाहिए। वह तो सबके बावजूद भी है। अगर किसी की नज़र में नहीं है तब उसे न मानने वाले भी अपनी ज़िन्दगी इस दुनिया में काट ही लेते हैं।

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