1. जंगली-जाहिल और जानवर
तुम दबे पांव आते हो
बन्दूकें ताने हमारी ही धरती पर
और बताते हो हमें ही
जंगली, जाहिल, जानवर!
बताते हो हमें ही कभी नक्सल
कभी उग्रवादी तो कभी अलगाववादी!
तुम्हारी जैसी-हिंदी
नहीं झाड़ते हम साब,
ना ही झाड़ते हैं फट-फट फटाफट
अंग्रेजी!
पर अपनी मातृभाषा से
करते हैं प्रेम
आती नहीं हमें
अपनी मातृभाषा बोलने पर शर्म!
हम आदिवासी हैं साब,
जंगलों में रहते हैं,
करते हैं जंगलों की पूजा।
विद्यालय नहीं हैं हमारी धरती पर
ना ही बिजली-पानी
लेकिन समझते हैं पशुओं की भाषा
दिखता है हमें जंगलों का दर्द!
सुनाई देता हमें
पहाड़ों का दरकना और
नदियों का रुदन!
जंगली हैं साब,
खूब समझते हैं हम
जल-जंगल-जमीन का गणित!
पर करते नहीं हम
जंगल का दोहन!
लेकिन तुम, तुम तो जंगली जाहिल और जानवर का
मतलब भी नहीं समझते साब,
ना ही समझते हो,
नक्सल-उग्रवादी और अलगाववादी का मतलब!
हमारी ही जमीन पर आकर
गरियाते हो हमारी मां-बहनों को।
ठांय-ठांय बरसाते हो गोलियां
बन्दूक की नोक पर
करते हो हमारी ही आंखों के सामने
हमारी ही मां-बहनों का बलात्कार!
विकास का सपना दिखाकर
लोभ-प्रलोभन देकर
लूट लेते हो हमसे हमारी ही धरती
पेड़-पोधे, नदी, पहाड़-पगडंडियां
हमारी भाषा-संस्कृति
छीन लेते हो हमसे हमारी ही पहचान!
जंगल तुम जलाओ,
और जंगली हम कहलाएं?
पहाड़ तुम उजाड़ो और
उज्जड़ हम कहलाएं?
नदियां तुम बांधो- बहाओ मल-मूत्र
और जाहिल हम कहलाएं?
हमारी मां-बहनों-बेटियों को
नोचो-खसोटो तुम
तुम करो उनका बलात्कार
और जानवर हम कहलाएं?
बसाओ हमारी ही धरती पर
अपने कल-कारखाने
और हम ही अलगाववादी कहलाएं?
साब, हम भूखे हैं, पर
आदमी की हत्या नहीं करते!
नंगे हैं साब पर दूसरों की नंगई
नहीं भड़काती हमारे भीतर
वासना की आग!
छत नहीं हमारे सर पर
लेकिन हम तुम्हारी तरह
किसी को बेघर नहीं करते।
2. स्त्री की सपने से वापसी
स्त्री देखती है सपना
एक ऐसे घर का
जो हो उसका नितांत अपना
जहां रात-बेरात
दिखाए नहीं कोई
बाहर का रास्ता!
स्त्री देखती है सपना
एक ऐसी सड़क का
जिसपर निकलने से पहले
उसे देखनी न पड़े घड़ी
चल सके भीड़ में भी
बिल्कुल निर्द्वंन्द्व !
स्त्री देखती है सपना
एक ऐसे मालिक का
जिसकी भाषा में न हो
हिकारत नाम का कोई शब्द,
रहे वह हमेशा
बन्धु बनकर!
स्त्री देखती है सपना
एक ऐसे साथी पुरुष का
जो साथ भरवा सके पानी
सुलझा सके
बालों की गांठों के साथ
मन की गांठें भी!
स्त्री देखती है सपना
एक ऐसी धरती का
जहां हो नहीं
कोई प्रतिस्पर्धा,
हो आपस में
सहकारिता की भावना।
स्त्री का सपना
सपने में होने ही वाला था सच
कि कॉल बैल बजी दरवाजे पर,
‘ट्रीन’— ‘ट्रीन’— ‘ट्रीन’!
अलसायी आंखों से
उसने दरवाजा खोला,
सामने पति था
पी रखी थी उसने
जोर से झल्लाते हुए बोला,
“तेरा दिमाग तो ठिकाने है,
ये कोई सोने का समय है?
मत भूल, ये तेरे बाप का घर नहीं
तेरी ससुराल है……!’’
कि ठीक-ठाक खुल गयीं उसकी आंखें
सचमुच ही जग गयी वह
कि हुई अब उसकी
सपने से वापसी!
3. समझौता
स्त्री करीने से सजाती है
घर का कोना-कोना
धो-पोंछ रखती है मर्तबान
छुड़ाती है बर्तनों की कालीख
चमकाती है फर्श
बुहारती है आंगन
बुझाती है पौधों की प्यास…
पकाती है खाना
रोशनदानों को देती है परदों की आड़
रखती है घर-भर का ध्यान
इस तरह बीत जाती है उसकी आधी उम्र!
उम्र के उस पड़ाव पर
जब चाहिए था उसे अपने बच्चे और पति का साथ
बेटे हो गए थे नौकरी पर सेटल
और बेटी मरखंड पति के साथ
ऐसे में ले आया पति एक नयी पत्नी!
पूर्व पत्नी रोती – बिलखती देती है गालियां
पति कहता है चीखकर,
‘रहना है तो रहे
वरना जाए अपने बच्चों के पास!’
पूर्व पत्नी सोचती है
चली जाए बच्चों के ही पास
जब पति ही नहीं रहे पास
तब रहना क्यों साथ?
कि आ जाती है उसको खांसी
‘जब तब जो थूक देते हैं इधर-उधर
सुरक देते हैं नाक
करेगा कौन साफ?
फिर क्या होगा इनकी बीमारी का
खाने-पीने/सोने-उठने/ध्यान-प्राणायाम
का भी तो रहता नहीं इन्हें ध्यान।
डायबटीज का भी क्या?
बढ़-घट जाती है कभी भी
कहीं भी इनकी बी.पी.
करनी होती है सुबह-शाम जांच
कौन दिलाएगा बात-बात पर
दवा-पानी की याद?
बात केवल इनकी हो तो छोड़ भी दे
पर आखिर घर का क्या होगा?
ये घर है उसका/उसके बच्चों का
इस घर से जुड़ी हैं उसकी और
उसके बच्चों की यादें’
बस इतना भर सोचते ही
हो जाता है परिवर्तन,
‘आखिर क्यों जाऊं अपना घर छोड़कर
बच्चों के पास?
बच्चे कभी तो आएंगे पास!
कैसे करने दूंगी अपने घर में
किसी दूसरी स्त्री को राज?’
पूर्व पत्नी कर लेती है समझौता
करीने से सजाती है कमरा
चमकाती है फर्श/बुहारती है आंगन
बुझाती है पौधों की प्यास…
छुड़ाती है बर्तनों की कालिख
सजाती है मर्तबान/पकाती है खाना
कि आखिर घर तो है
उसका ही!
4. आदर्श स्त्री की पहचान
कितना आसान है समाज में
करना भले-बुरे स्त्रियों की पहचान
पिता-पति की आज्ञा मानना
खूब समझना घर के काज
सुन्दर स्वस्थ बेटे को जनना
घर को रखना साफ और साज
बड़ों के आगे घूंघट करना
छोटों का भी देना प्यार
सास-ससुर की सेवा करना
समय मिले तो पूजा करना
भूखी रह उपवास भी करना
सबको खुश रखे बिना नहीं
तुम्हें खुश रहने का अधिकार
यही है आदर्श स्त्री की पहचान
पति को ढोना/परिवार को ढोना
ढोना तुम हर धर्म विधान
समय-बेसमय फटकार भी खाना
मिले कभी तो मार भी खाना
बिना प्रतिकार के सब कुछ सहना
यही है आदर्श स्त्री की पहचान
गर भूल से किया प्रतिकार
बना दी जाओगी
एक झटके में बेअदब बदतमीज और
और व्याभिचार!
5. स्त्री
बात-बात पर डांट
बात-बात पर गाली
बात-बात पर मार
बात-बात पर घरनिकाला!
घर वाले देते हैं नसीहत –
‘जैसा कहते हैं, वैसा करो, बेटी!’
जैसा चाहते हैं वैसी रहो बेटी!’
पति का घर ही घर
पति ही तुम्हारे परमेश्वर!
बाकी सब ठीक करेंगे ईश्वर!
ईश्वर!
स्त्री बजाती है घण्टी
करती है वंदना,
रखती है उपवास
कि एक दिन
बदल जाएगा सबकुछ
हो जाएगा सब ठीक-ठाक
एक दिन
करेगी वो भी अपनी मन की
कि देंगे नहीं
बात-बात गाली
कि उठायेंगे नहीं
बात-बात पर हाथ
करेंगे नहीं जबतब घरनिकाला!
दिन बीते, साल बीते, बीत गया अर्सा
पर नहीं बदली उसकी नियति
बात-बात पर डांट
बात-बात पर गाली
बात-बात पर मार
बात-बात पर घरनिकाला
एकदिन चुकता है धीरज
करती है स्त्री ईश्वर से सवाल,
‘क्यों-क्यों सहूं मैं
बात-बात पर डांट
बात-बात पर गाली
बात-बात पर मार
क्यों हो मेरा कोई परमेश्वर
जब तुम हो सबके ईश्वर?’
मूक, निरीह, अवाक, जड़वत
बना रहता है ईश्वर
चुकता है, स्त्री का धीरज,
‘कोई नहीं मेरा परमेश्वर
कोई नहीं मेरा ईश्वर!
अगर कोई है तो
मैं ही हूं अपनी ईश्वर!’
6. सरहद के पार
बहुत दिनों तक
बताया गया औरत को
घर की चारदीवारी तक ही
सीमित है उसकी दुनिया
रोशनदानों से आता
मुट्ठी भर प्रकाश
ॲंजुरी भर हवा
आँगन में बरसते पानी तक ही
सीमित हैं उसके अधिकार!
समझाया गया उसे बचपन से ही
अपनी मेधा, प्रतिभा,
अपनी ममता और अपनत्व से
सींचती रहे अपना
घर परिवार
इससे इतर नहीं है
उसकी काई दुनिया
कि बाहर की दुनिया
नहीं खतरों से खाली
अगर निकलेगी बाहर तो
कर दी जाएगी राह चलते कत्ल
कर दी जाएगी कहीं भी कभी भी बेइज्जत
और अगर बचकर आ भी गई वापस तो
बख्शी नहीं जाएगी पड़ोसियों द्वारा
और अगर पड़ोसी बख़्श भी दें
घर में वह कदापि बख़्शी नहीं जाएगी।
उसे पता भी नहीं चलेगा
और चुपके से दे दिया जाएगा
उसके भोजन-पानी में जहर
या रसोई में स्टोव के फटने से
होगी उसकी अकस्मात मौत
देख नहीं पाएगी
अगले दिन का प्रकाश!
अगर होगी तुम
इक्कीसवीं सदी की स्त्री तो
फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हें
अपने अस्तित्व और अस्मिता की
परवाह किये बगैर
निकल जाओगी तुम
घर से बाहर
देखोगी तुम, पाओगी तुम
ये धरती, ये आकाश, ये पृथ्वी,
ये पूरा ब्रह्माण्ड
ब्रह्माण्ड में फैले पहाड़, पर्वत, मैदान, नदी-झरने
घने जंगल, जंगल के सारे पशु-पक्षी
ऊंचे-ऊचे शालवन, नदी, तालाब
चांद-सूरज-तारे, सारे ग्रह, नक्षत्र
हवा, पानी, मिट्टी
सब तुम्हारे हैं
कि तुम लौटना नहीं स्त्रियो
घर-परिवार की परवाह मत करना
फैला देना अपने ममत्व और अपनत्व का सारा आंचल
कि हर दबा, सताया, उपेक्षित
तुम्हारा परिवार है,
बहा देना अपने दूध की अजस्र धारा
प्रकृति पर
कि ये प्रकृति ही तुम्हारी संतान है
तुम लौटना नहीं इक्कीसवी सदी की स्त्रियो
कि हर सरहद के पार
बसती एक नई दुनिया है!’
7. कमाऊ बच्चा
“पांच रुपये की कलम
ले लो भाई, ले लो बहन
खाना नहीं खाया, सुबह से हूं भूखा
पांच रुपये की कलम
ले भाई, ले लो बहन!”
मिल जाते हैं ऐसे कई बच्चे
प्रायः चौक-चौराहों पर
स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालय के दरवाजों पर
हालांकि बेचते हैं ये
कभी कलम, कभी मोजे, कभी खिलौने
या कभी अगरबत्तियां!
पर रहते हैं खुद
उसकी उपयोगिता से महरूम!
ऐसा नहीं कि ये
समझते नहीं उसकी उपयोगिता!
पर कुछ तो होती होगी इनकी विवशता
वरना क्या कलम बेचते हाथ
नहीं समझते कलम की महत्ता?
ठंड से ठिठुरते पांव मोजों की महत्ता?
खेलने की उम्र में खिलौनों की महत्ता?
या सीलन भरी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले
अगरबत्ती की महत्ता?
आखिर कुछ तो होती होगी इनकी विवशता
इसलिए तो बेचते हैं महज
चंद रुपयों की खातिर
चौक-चौराहों पर अपना बचपन!
“पांच रुपये की कलम
ले लो भाई, ले लो बहन
खाना नहीं खाया, सुबह से हूं भूखा!”
कुछ तो जरा-सा मोल-भाव कर
बढ़ जाते हैं आगे
कुछ दिखा देते हैं अपनी दरियादिली
कुछ देते हैं दुत्कार
कुछ दे देते हैं गालियां।
बावजूद इसके चुकता नहीं इनका धीरज
बड़ी ही नफासत से करते हैं ये
अपना नन्हा-सा रोजगार!
“पांच रुपये की कलम
ले लो भाई, ले लो बहन
खाना नहीं खाया, सुबह से हूं भूखा……!”
इन्हें परवाह नहीं होती
किसी के दुत्कारे जाने की
नहीं होती है परवाह
किसी की गालियों की
‘जिसकी दुत्कार जिसकी गाली उसी के द्वार’
शायद चल रहा हो कुछ ऐसा
इनके भीतर!
इन्हीं के कमाए पैसों से
जलता है इनका चूल्हा
चलता है इनका घर-परिवार!
ये खुश हैं कि नहीं करते ये चोरी
नहीं बीनते कूड़ा
नहीं फैलाते हैं किसी के आगे
अपने नन्हे हाथ!