— नंदकिशोर आचार्य —
साहित्य के साथ जब भी किसी दर्शन, विचारधारा या विचारक के रिश्ते की बात की जाती है, सामान्यतः यही देखा जाता है कि किसी विचार या विचारक ने साहित्य, रचना को किस प्रकार प्रभावित किया है। यह मानकर चला जाता है कि साहित्य का काम कैसे किसी विचार या विचारधारा को संवेदनात्मक स्तर पर ग्राह्य बनाकर- सच कहें तो लुभावना बनाकर- किसी तरह पाठक के गले उतार देना है। यह भुला दिया जाता है कि साहित्य स्वयं सत्य या यथार्थ को जानने की एक विशिष्ट स्वायत्त प्रक्रिया है। यह नहीं है कि समय और परिवेश के साथ अथवा विचार-प्रणालियों के साथ वह कोई अंतःक्रिया नहीं करता- अंतःक्रिया तो स्वाभाविक ही है क्योंकि यथार्थ का बोध यथार्थ से अंतःक्रिया के बिना नहीं उपजता- लेकिन अंतःक्रिया का तात्पर्य अनुगामी होना नहीं है, इसलिए इस अंतःक्रिया से जो कुछ बरामद होता है, वह साहित्य का अपना विशिष्ट सत्य होता है, किसी पूर्व निर्धारित विचार की पद्यात्मक प्रस्तुति नहीं।
जब साहित्यकार किसी विचारधारा का अनुगामी होकर रचना-कर्म में प्रवृत्त होता है तो वह साहित्य के अन्वेषण-धर्म को छोड़कर किसी विचारधारा के पिष्टपेषण का रूप अख्तियार कर लेता है। ऐसा नहीं है कि साहित्य और विचारधारा का रिश्ता सदैव एक अस्वस्थ रिश्ता हो। आक्तोविजो पॉज ने कविता और इतिहास के रिश्ते पर विचार करते हुए कहीं लिखा है कि कविता इतिहास की सेवा में नहीं प्रस्तुत होती। इतिहास ही कविता के उपयोग के लिए उपस्थित होता है। कविता के लिए इतिहास से सहज रिश्ता यही हो सकता है। यही बात किसी दर्शन, विचार या विचारक के लिए कही जा सकती है।
साहित्यकार परिवेश और समय से संवेदनात्मक साक्षात्कार से दृष्टि या मूल्य बरामद करता है, वह उसका अनुभव प्रसूत सत्य होता है और यदि किसी विचारधारा या विचारक में वह किसी समान मूल्य दृष्टि को पाता है तो उसकी ओर उसका आकर्षण स्वाभाविक होता है लेकिन तब भी वह उसका अनुगामी नहीं हो जाता। अपने अनुभव और रचनात्मकता को समझने के लिए वह उस विचारक की अवधारणाओं का इस्तेमाल जरूर करता है, लेकिन साथ ही, अपनी रचनात्मकता को उसके प्रचार के लिए समर्पित नहीं कर देता। यदि वह ऐसा नहीं करता और किसी विचारक या विचारधारा का अनुगामी हो जाता है तो जिस हद तक यह अनुगमन उसकी रचनात्मकता में प्रवेश करता है उस सीमा तक वह आहत होती ही है। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह मार्क्स हैं या गांधी या डॉ. लोहिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के हिंदी साहित्य और डॉ. लोहिया के रिश्ते को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। इस दौर का हिंदी रचनाकार भारतीय विचारकों में सर्वाधिक सामीप्य डॉ. लोहिया से महसूस करता रहा- यहां तक कि उसने गांधी को भी लोहिया के नजरिये से ही समझा- उनके घोषित वैचारिक उत्तराधिकारी विनोबा के नजरिये से भी नहीं। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विजयदेव नारायण साही, विपिन अग्रवाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. रघुवंश, अशोक सेकसरिया, नंद चतुर्वेदी से लेकर कमलेश, प्रयाग शुक्ल, रमेशचंद्र शाह, गिरधर राठी, अशोक वाजपेयी आदि की पीढ़ी से होते हुए- जिसमें मैं स्वयं को भी सम्मिलित करता हूं- युवा लेखकों तक एक बड़ी संख्या ऐसे हिंदी रचनाकारों की रही है जो डॉ. लोहिया के वैयक्तिक और वैचारिक संपर्क में रहे हैं। इनमें से किसी एक में भी डॉ. लोहिया के विचारों का साहित्यानुवाद शायद न मिले, लेकिन साहित्य और समाज को समझने की अवधारणाओं की दृष्टि से दोनों में अद्भुत साम्य दिखाई दे सकता है ।
डॉ. लोहिया के लिए समता और स्वतंत्रता केंद्रीय मूल्य हैं- बल्कि उनकी दृष्टि में वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं- जैसे गांधी जी के लिए सत्य और अहिंसा। लोहिया इन्हीं दो मूल्यों के आधार पर इतिहास की व्याख्या करते और एक नए समाज का सपना भी देखते हैं। लोकिन, वह इनमें से किसी एक को दूसरे के लिए बलिदान करने को उचित नहीं मानते। इसी तरह, भौतिकता और आध्यात्मिकता में से भी वह किसी एक को दूसरे के लिए त्याग नहीं करना चाहते क्योंकि दोनों को एकसाथ हासिल किए बिना पूर्णता सपना साकार नहीं होता।
‘आधुनिक सभ्यता का अर्थ’ निबंध में- जो आधुनिक सभ्यता का बहुत तलस्पर्शी विवेचन है- डॉ. लोहिया कहते हैं, “अगर पिछली सभ्यताएँ आध्यात्मिक समानता और सामाजिक विषमता के अनमेल बोझ से टूटीं तो आधुनिक सभ्यता सामाजिक समानता और आध्यात्मिक विषमता के अनमेल बोझ से टूट रही है।” इसलिए कि क्रांतिकारी प्रौद्योगिकी के अत्यधिक विकास से आधुनिक मनुष्य उस मानसिक स्थिति में पहुंच गया है जहां वह अन्य मनुष्यों के साथ प्रत्यक्ष और नजदीकी अपनापन नहीं महसूस कर पाता।” स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता से डॉ. लोहिया का तात्पर्य मनुष्यों के बीच प्रत्यक्ष और अपनेपन के संबंधों से है। इसलिए वह कहते हैं, व्यक्ति की गरिमा के रूप में जो कुछ शुरू हुआ था, वह अब केवल एक अंक और एक बिल्ला मात्र रह गया है- व्यक्ति की गरिमा से शुरू होकर, ऐसा मालूम पड़ता है कि सभ्यता पूरा चक्कर चलकर उस जगह आ गई है, जहां व्यक्ति समूह की मशीन के एक पुर्जे से अधिक नहीं रह गया।”
डॉ. लोहिया मानते हैं कि जब तक इस द्वैध को- आध्यात्मिकता और भौतिकवाद, समता और स्वतंत्रता, व्यक्ति और समाज, रोटी और संस्कृति, प्रकृति और पुरुष आदि के बनावटी ‘अयथार्थ’ विरोध का अतिक्रमण नहीं हो पाता, तब तक एक पूर्ण सभ्यता का विकास संभव नहीं है।
डॉ. लोहिया इस कृत्रिम विरोध का मुख्य कारण यह मानते हैं कि आधुनिक सभ्यता में दूरस्थ का महत्त्व है, प्रत्यक्ष और तात्कालिकता का नहीं। हम क्षण को केवल प्रवाह के रूप में देखते हैं और उसके शाश्वत स्वरूप को भूल जाते हैं जबकि ‘हर क्षण प्रवाह भी है, शाश्वत भी…अगर यह जरूरी है कि मनुष्य इतिहास में रहना सीखे तो उसे इतिहास के बाहर रहने की भी उतनी ही आवश्यकता है।’ इसलिए डॉ. लोहिया नैतिकता की तात्कालिकता की मांग करते हैं और उस क्षण की नैतिकता को किसी प्रवाह की नैतिकता के नाम पर बलिदान करना उचित नहीं मानते। वह चाहते भी हैं : ‘हम सचमुच एक स्वर्ण युग की ओर बढ़ सकते हैं, अगर हम तत्काल ही उसे पाने की कोशिश करें। जिस हद तक हम उसे तत्काल पाते हैं और प्रत्यक्ष साक्षात्कार के सिद्धांत को व्यवहार में लाते हैं, उस हद तक क्षण के लिए प्रवाह और शाश्वत रूपों के बीच कड़ी भी जोड़ी जा सकती है।’ इसी बात को आगे और स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं, “प्रत्यक्ष साक्षात्कार के इस सिद्धांत के अनुसार हर क्षण का औचित्य स्वयं उसमें ही होता है और यहां, अभी जो काम किया जाता है, उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए बाद के किसी काम का हवाला देने की जरूरत नहीं।”
अज्ञेय ने जब रचनात्मक प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए ‘क्षण’ के महत्त्व और ‘अनुभूति’ की प्रामाणिकता की अवधारणा का प्रतिपादन किया था तो हमारे आलोचक अपने अस्तित्ववादी उत्साह में इस बात की अनदेखी करते हुए कि वह उस रचनात्मक क्षण और प्रत्यक्ष साक्षात्कार की बात कर रहे थे, जो साहित्य, कला तथा धर्म-दर्शन का बीज है। वह क्षण के प्रवाह रूप की अनदेखी न करते हुए भी उसके शाश्वत रूप पर आग्रह करना है क्योंकि डॉ. लोहिया के शब्दों में, “न समझना क्षण के शाश्वत रूप से बिल्कुल इनकार करता है, और साथ ही व्यक्ति के महत्त्व से भी, जबकि वह कला और साहित्य, कथा और पुराकथा, धर्म और दर्शन के द्वारा स्थापित हो चुका है।” यहां यह उल्लेख करना भी अस्थाने नहीं होगा कि नैतिकता की तात्कालिकता ही जीवन के प्रत्येक क्षण में सत्याग्रह का समावेश है। जिस अपनेपन के क्षण की बात लोहिया करते हैं, इस डूबती हुई सभ्यता में उसी अपनेपन के अहसास की अभिव्यक्ति अज्ञेय की ‘एक बूंद सहसा उछली’ कविता में होती है, जब-जब डूबते सूरज से क्षणभर के लिए बूंद का रंगा जाने में आत्मीय स्पर्श का बोध नश्वरता से मुक्ति का क्षण हो जाता है।
स्वतंत्रता और समता के बीच दूरस्थता की नैतिकता के ही कारण कृत्रिम द्वैध पैदा किया गया है और व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर व्यक्तिवाद तथा लेखकीय स्वतंत्रता पर रूपवाद के लेबल चस्पां किए गए। तत्कालीन सोवियत व्यवस्था तथा चीनी सांस्कृतिक क्रांति के दौर में लेखकों के अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को जिस तरह प्रताड़ित और दंडित किया गया, वह तथाकथित दूरस्थ नैतिकता के नाम पर ही तो हुआ। हिंदी लेखकों के जिस वर्ग ने अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य के इस दमन का विरोध किया, यह स्वाभाविक ही था कि डॉ. लोहिया को अपने अधिक नजदीक पाता।
हिंदी साहित्य में ‘परिमल’ का इतना तो योगदान मानना ही होगा कि उसने उस दौर में लेखकीय स्वतंत्रता की मशाल को जलाए रखा और यह कोई गोपनीय तथ्य नहीं है कि ‘परिमल’ के अधिकांश सदस्य- चाहे वे भारती हों, लक्ष्मीकांत वर्मा हों या विजयदेव नारायण साही, की डॉ. लोहिया के विचारों और राजनीति से गहरी निकटता थी। लेखकीय स्वातंत्र्य और प्रतिबद्धता का विवाद मूलतः प्रगतिशील धारा और परिमलीय धारा के बीच चला विवाद ही था और हम कह सकते हैं कि आज शायद ही कोई लेखक लेखकीय स्वातंत्र्य को महत्त्व न देता हो।
डॉ. लोहिया की इस तात्कालिकता की नैतिकता अथवा नैतिकता की तात्कालिकता से विजयदेव नारायण साही भी सहमत हैं और अशोक वाजपेयी जैसे बाद की पीढ़ी के आलोचक उसे ‘मानवीय तात्कालिकता’ कहते हैं। ‘तात्कालिक अनुभव’ जब ‘मनुष्य और चरम अनुभव’ के प्रकाश में उजागर होता और समझा जाता है, तभी वह ‘मानवीय तात्कालिकता’ की अवधारणा के रूप में अभिव्यक्त होता है जो अशोक वाजपेयी की आलोचना का केंद्रीय पद है। इस आग्रह में एक ओर अनुभूति की प्राथमिकता का आग्रह है तो दूसरी ओर ऐतिहासिक विवेक का। अशोक वाजपेयी भी जब ‘परस्परता की उपस्थिति’ का आग्रह करते और उसे जातीय मानस में अस्तिमूलक चिंताओं के समाधान के रूप में प्रस्तावित करते हैं तो यह प्रकारांतर से डॉ. लोहिया द्वारा प्रस्तावित अपनेपन वाली आध्यात्मिकता के बहुत अधिक निकट आ जाता है।
पिछले दो-तीन दशकों में दलित-विमर्श और नारी-विमर्श को हिंदी रचनात्मकता के नए प्रासंगिक आयामों के रूप में देखा जाता है और दलित-विमर्श को डॉ. आंबेडकर तथा नारी-विमर्श को पश्चिमी नारीवादी आंदोलन से जोड़कर देखने की कोशिश की जा रही है। यहां हमें फिर डॉ. लोहिया का स्मरण हो आता है, जिनके द्वारा ‘वर्ण’ और ‘योनि’ के आधार पर होने वाले अन्यायमूलक भेद की ओर निरंतर ध्यान आकर्षित किया जाता रहा। यदि हिंदी में इन दोनों विमर्शों को सहज स्वीकृति मिली है तो इसमें डॉ. लोहिया द्वारा निर्मित समझ के महत्व की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। डॉ. आंबेडकर का आह्वान मुख्यतः दलितों के लिए था, जबकि डॉ. लोहिया ने दलितों, पिछड़ी जातियों और स्त्रियों के साथ अन्यायमूलक भेद का विश्लेषण करते हुए उन सभी के स्वतंत्र मानवीय व्यक्तित्व का आग्रह किया। ‘द्रौपदी या सावित्री’ तथा ‘वशिष्ठ और वाल्मीकि’ जैसे लेखों अथवा, राम, कृष्ण और शिव की प्रतीकात्मकता को उजागर करने वाले निबंधों को उन लोगों द्वारा भी ललित निबंध की तरह पढ़ा जाता है जो अन्यथा डॉ. लोहिया की राजनीति से अधिकांशतः कम ही सहमत होते हैं। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अशोक सेकसरिया तथा ओमप्रकाश दीपक आदि के रचनाकर्म में स्त्रियों और दलित जातियों के लिए जो सरोकार दिखाई देता है, उनकी पृष्ठभूमि में और प्रभाव भी हैं। लेकिन लोहिया की मूल्य-दृष्टि की स्पष्ट छाप वहां दिखाई दे जाती है।
अंत में, मैं स्वयं डॉ. लोहिया द्वारा लिखित कुछ पुस्तक समीक्षाओं का उल्लेख करना चाहूंगा, जिनसे साहित्य में न केवल रुचि बल्कि तलस्पर्शी समझ का भी साक्ष्य मिलता है। निराला पर लिखी एक टिप्पणी में वह उनकी कविता में उपलब्ध नए संगीत का संकेत करते हुए उनकी कहानियों की प्रशंसा करते हैं- खासतौर पर ‘चतुरी चमार’ की, जिसमें, उन्हीं के शब्दों में, ‘लंबे समय तक जीवित रहने की सबसे अधिक संभावना है।’ ‘सफलता’ और ‘साखी’ भी उनके निकट इतनी ही चिरस्थायी महत्त्व की है। आरिगपूडि कृत ‘जीने की सजा’ पर टिप्पणी करते हुए वह उनकी एक कहानी के अंतिम वाक्य को अनावश्यक बताते हैं, क्योंकि वह कहानी की पूरी संरचना के अनुरूप नहीं है। इसी तरह वह रामावतार ‘अरुण’ को शब्दाडंबर और बासी उपमाओं से बचने की सलाह देते हैं। नंदना नाम की एक बच्ची की अंग्रेजी कविता का उनका विश्लेषण बहुत संवेदनापूर्ण है। कविताओं की प्रशंसा करते हुए भी वह अफसोस जाहिर करते हैं कि अंग्रेजी में लिखने के आग्रह और अपनी भाषा में न लिखने के कारण उस बच्ची की कितनी ही संभावनाएँ व्यर्थ जा रही हैं।
जैसा मैंने शुरू में कहा था कि साहित्य अपना सत्य अपने रास्ते से तलाश करता है, इसलिए उसमें डॉ. लोहिया का अनुकरण खोजने का कोई भी प्रयास व्यर्थ होगा। लेकिन उनके विचारों से एक सामीप्य, सभ्यता के विश्लेषण से सहमति तथा एक पूर्ण सभ्यता के सपने को तत्काल साकार करने के लिए ‘अनुभूति की प्राथमिकता’ प्रत्यक्ष साक्षात्कार तथा ‘तात्कालिकता की नैतिकता’ का स्वीकार पांचवें दशक के बाद के साहित्य लेखन में स्पष्ट देखा जा सकता है। लेकिन, कविता या कहानी की संरचना में उनके विचारों का अनुवाद या प्रत्यक्ष प्रभाव देखना गलत होगा। यही कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता का आग्रह साहित्य में सर्जनात्मक प्रक्रिया की स्वायत्तता के रूप में प्रकट होता है, जिसे डॉ. लोहिया के विचारों से भी पूर्ण नैतिक समर्थन मिलने की वजह से दोनों में एक सामीप्य देखा जा सकता है।